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Republic Day Special: देश को वर्ष 2047 में विकसित बनाने के लिए शिक्षा को वरीयता की दरकार !

देश को वर्ष 2047 में एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए शिक्षा को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है. जब हम भविष्य की कल्पना करते हैं, तो यह सोचने की ज़रूरत होती है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत, समृद्ध और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं.

गिरीश्वर मिश्र; शिक्षा की प्रक्रिया ज्ञान अर्जित करने का माध्यम है और इसकी उपयोगिता समझ कर सभ्य देशों ने इसे संस्थागत रूप दिया है. आज आदमी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा, औसतन लगभग 20 वर्ष की आयु तक, इस संस्था की गहन निगरानी में बीतता है. शैक्षिक संस्थाओं में रहते हुए विद्यार्थी देखकर, सुनकर, प्रयोग कर और समझ कर जीवन मूल्यों को अपनाता है. साथ ही व्यवहार के स्तर पर वह कुछ नैतिक मानकों का अभ्यास करता है, जिनका व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से दूरगामी प्रभाव पड़ता है. आज ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से अग्रणी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. ठीक इसके विपरीत एक सशक्त गणतंत्र बनने के बाद भी भारत में शिक्षा अनेक विसंगतियों से जूझती आ रही है. दुर्भाग्य से औपनिवेशिक काल में ज्ञान और संस्कृति के अप्रतिम प्रतिमान के रूप में अंग्रेजियत छाती चली गयी. भारतीयों को अशिक्षित ठहरा कर उनके लिए अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की जगह कुशिक्षा का प्रावधान किया गया. यह कुछ इस तरह हुआ मानों अंग्रेजी शिक्षा विकल्पहीन है और विकसित होने के लिए अनिवार्य है. परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी की धरी रह गयी. स्वतंत्र भारत में अपनाई गयी शिक्षा की नीतियां, योजनाएं और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही अग्रसर हुआ. स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी मॉडल के जाल से आज भी हम उबर नहीं पाये हैं और हेर-फेर लाकर काम चलाते रहे. पाश्चात्य दृष्टि को सार्वभौमिक मानते हुए उसे आरोपित किया जाता रहा. संरचनात्मक बदलाव, विषय वस्तु, छात्रों पर शैक्षिक भार और अध्यापक-प्रशिक्षण आदि गंभीर विषयों को लेकर भी असमंजस ही बना रहा. आज पूर्व प्राथमिक (प्री प्राइमरी) से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा तक किस्म-किस्म के सरकारी और निजी क्षेत्र के पैमाने देश में चल रहे हैं. अध्यापकों की कमी से तदर्थवाद या एडहाकिज्म का बोलबाला होता गया है. साधन संपन्न लोग अपने बच्चों को विदेश पढ़ने को भेज रहे हैं और ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है.

देश को 2047 तक विकसित करने के लिए संसाधनों की जरुरत

देश को वर्ष 2047 में विकसित करने का संकल्प बड़ा आकर्षक है, लेकिन उसके लिए योग्य, प्रशिक्षित और निपुण मानव संसाधन की जरूरत सबसे ज्यादा होगी. जनसंख्या वृद्धि के कारण शिक्षार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इस दृष्टि से योजना बनानी होगी और बजट में शिक्षा के लिए प्रावधान बढ़ाने की जरूरत है, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता स्थापित की जा सके. कई वर्षों से शिक्षा पर देश के बजट में छह प्रतिशत खर्च करने की बात दोहराई जाती रही है, परंतु वास्तविक व्यय तीन प्रतिशत भी बमुश्किल हो पाता है. तथाकथित लचीली, बहु अनुशासनात्मक, कौशल आधृत, जीवनोपयोगी और दक्षता पर बल देने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के महत्वाकांक्षी प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए वित्त की आवश्यकता को स्वीकार करना होगा.

शिक्षा के क्षेत्र में ढलान के ये लक्षण चिंताजनक

भारत की ज्ञान परंपरा में ज्ञान या विद्या को समझाते हुए उसे क्लेशों से मुक्त करने वाला, विवेक जगाने वाला और मन में कर्तव्य का भाव स्थापित करने वाला बताया जाता रहा है. ज्ञान प्रकृति से ही नैतिक है, जिसका कर्णधार अध्यापक है, जो मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाला है. परंतु, आज शैक्षिक परिवेश अध्यापकों की कमी और उनकी गैर अकादमिक आकांक्षाओं से प्रदूषित हो रहा है. पेपर लीक होने की घटनाएं आम होने लगी हैं. शोध में साहित्य चोरी (प्लैगरिजम) की घटनाएं बढ़ रही हैं. लाइन तोड़ कर आगे बढ़ने-बढ़ाने का चलन तेजी से बढ़ रहा है. ज्ञान में वृद्धि और नवोन्मेष की जगह दुहराव और पिष्ट-पेषण की प्रवृत्ति तेजी से फैल रही है. ज्ञान की जगह ज्ञान देने और पाने की कवायद (ड्रिल) तो हो रही है. इससे ज्ञान (पाने) का भ्रम बढ़ रहा है. अब औपचारिक पढ़ाई की गुणवत्ता पिटने के कारण हर काम के लिए, यहां तक कि अगली कक्षा में प्रवेश या फैलोशिप के लिए भी कोई न कोई परीक्षा देना अनिवार्य हो चुका है. खस्ताहाल हो रहे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की पढ़ाई अपर्याप्त होती है. ऐसे में कोचिंग एक बेहद लोकप्रिय और नफे वाला शानदार व्यापार बन चुका है, पर इसके सुचारू संचालन लिए जरूरी आधारभूत सुविधाओं का घोर अभाव है. इसका दबाव कितना भयानक है, यह विद्यार्थियों के मानसिक अस्वास्थ्य की बढ़ती संख्या में देखा जा सकता है. लोकहित के व्यापक लक्ष्यों के लिए समानता और समता जरूरी है, पर भारत में शिक्षा कई तरह से विभेदकारी होती जा रही है. आज शिक्षा संस्थाओं की अनेक जातियां और उपजातियां खड़ी हो गयी हैं और उनमें अवसर मिलने की संभावना सबको उपलब्ध नहीं है. पूरी तरह सरकारी, अर्ध सरकारी और स्ववित्तपोषित संस्थाओं की अजीबोगरीब खिचड़ी पक रही है. इनमें फीस, प्रवेश, पढ़ाई और परीक्षा के तौर तरीके भी बेमेल हैं. बच्चे को पढ़ाना अभिभावकों के लिए बरसों बरस चलने वाला युद्ध और संघर्ष का सबब बन चुका है. शिक्षा के क्षेत्र में ढलान के ये लक्षण चिंताजनक हैं.

कौन-सा ज्ञान लिया जाये ?

भारत जनसंख्या की दृष्टि विश्व में प्रथम हो चुका है, पर जीने के संसाधन बेहद सीमित हैं. देश एक बड़ा बाजार हो चुका है, पर उत्पादक कम खरीदार ज्यादा हैं. विश्व में युवा देश के रूप में भारत से आशा बंधती है, लेकिन इस युवा शक्ति को नियोजित करना अत्यंत आवश्यक है. ऐसे में ये प्रश्न महत्वपूर्ण हो गये हैं कि कौन-सा ज्ञान लिया जाये ? ज्ञान किस तरह से लिया जाये ? ज्ञान का उद्देश्य क्या हो ? विकसित भारत के संकल्प के साथ ज्ञान की दुनिया को सहेजना भी जरूरी है. भारत एक महान देश है, जिसके पास अतीत की बड़ी विरासत है. देश निकट भविष्य में ‘विश्व-गुरु ‘ बनने की उत्कट इच्छा पाले हुए है. साथ ही भारत को ‘विकसित देश’ और तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति का दावा भी कर रहा है. इस दृष्टि से युवा वर्ग की खास भूमिका है. उसे सभ्य, सुशिक्षित और समर्थ बनाकर ही हम इस दिशा में आगे बढ़ सकेंगे. शिक्षा को देशकाल के अनुकूल और स्वायत्तता के बोध को जगाने वाला नैतिक और मानवीय उपक्रम बनाकर ही यह किया जा सकेगा. ज्ञान के लिए जिज्ञासा, निष्ठा और समर्पण की संस्कृति विकसित करनी होगी.

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Prabhat Khabar Digital Desk
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