Caste Census: भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में जनगणना सिर्फ यह जानने का माध्यम नहीं है कि कितने लोग देश में रहते हैं, बल्कि इससे समाज की असल तस्वीर सामने आती है. खासतौर पर जातिगत जनगणना (Caste Census) को लेकर इन दिनों चर्चा तेज है. कई राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन इसकी मांग कर रहे हैं ताकि जातियों की सही संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन हो सके.
क्या है जातिगत जनगणना?
जातिगत जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें यह पता लगाया जाता है कि देश में कौन-सी जाति कितनी संख्या में है, उनकी शिक्षा, रोजगार, और रहन-सहन की स्थिति क्या है. इससे यह समझने में मदद मिलती है कि किस जाति को कितनी सरकारी मदद और योजनाओं की जरूरत है.
जनगणना और जातिगत जनगणना में फर्क
हर 10 साल में होने वाली सामान्य जनगणना (Census) में कुल जनसंख्या, लिंग, उम्र, शिक्षा, नौकरी, घर आदि की जानकारी ली जाती है. लेकिन जातिगत जनगणना विशेष रूप से जाति के आधार पर आंकड़े इकट्ठा करने का काम करती है. इसका मकसद सामाजिक न्याय और योजनाओं को सही दिशा देना होता है.
पिछली बार कब हुई थी जातिगत जनगणना?
भारत में 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान आखिरी बार पूरी जातिगत जनगणना की गई थी. इसके बाद 2011 में एक सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) जरूर की गई, लेकिन उसके आंकड़े अब तक सार्वजनिक नहीं किए गए.
कौन कराता है जनगणना?
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत जनगणना आयुक्त (Registrar General and Census Commissioner) जनगणना कराते हैं. जातिगत जनगणना करवाने का निर्णय पूरी तरह सरकार की नीति पर निर्भर करता है. हाल ही में बिहार जैसे कुछ राज्यों ने अपने स्तर पर जातिगत सर्वेक्षण भी कराया है.
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