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”फेक न्यूज और अफवाहों से समाज को होने वाले नुकसान से बच नहीं सकतीं सोशल मीडिया कंपनियां”

चेन्नई : मद्रास हाईकोर्ट ने माना कि सोशल मीडिया कंपनियां उनके मंच से प्रसारित की जा रही फर्जी खबर और अफवाह की वजह से समाज को होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. अदालत ने कहा कि उपभोक्ता की ओर से दुरुपयोग करने के प्रति उन्हें जवाबदेह बनाये जाने की जरूरत है. उपभोक्ताओं […]

चेन्नई : मद्रास हाईकोर्ट ने माना कि सोशल मीडिया कंपनियां उनके मंच से प्रसारित की जा रही फर्जी खबर और अफवाह की वजह से समाज को होने वाले नुकसान की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती. अदालत ने कहा कि उपभोक्ता की ओर से दुरुपयोग करने के प्रति उन्हें जवाबदेह बनाये जाने की जरूरत है.

उपभोक्ताओं की ओर से साझा की जा रही सामग्री के लिए मंच की जिम्मेदारी तय करने के महत्व को रेखांकित करते हुए अदालत ने कहा कि फर्जी खबर, भ्रामक सूचना और नफरत फैलाने वाले भाषण सैकड़ों लोगों तक पहुंचते हैं और इसका लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर होता है, जिससे अशांति फैलती है. अदालत ने कहा कि कानून-व्यवस्था खराब हो सकती है. यह मंच इसके इस्तेमाल से होने वाले नुकसान की जवाबदेही से नहीं बच सकता.

न्यायमूर्ति एम सत्यनारायणन और न्यायमूर्ति एन सेशासयी की खंडपीठ ने यह टिप्पणी शुक्रवार को एंटोनी क्लीमेंट रुबीन की याचिका पर सुनवाई करते हुए की. जब मामला सुनवाई के लिए आया, तो रुबिन ने अदालत से अनुरोध किया कि साइबर अपराध को रोकने के लिए सोशल मीडिया अकाउंट को आधार से या किसी अन्य सरकार द्वारा सत्यापित पहचान पत्र से जोड़ने का अनुरोध करने वाली उनकी याचिका में बदलाव की इजाजत दी जाए. हालांकि, अदालत ने इसे स्वीकार नहीं किया.

व्हाट्सएप की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एनएल राजा ने सोशल मीडिया अकाउंट को किसी पहचान पत्र से जोड़ने का विरोध करते हुए कहा कि यह निजता के अधिकार के खिलाफ होगा. उन्होंने कहा कि पहचान का दुरुपयोग हो सकता है. अगर कोई व्यक्ति गलत फोन नंबर, आधार नंबर और पहचान पत्र देता है, तो निर्दोष व्यक्ति को परेशानी हो सकती है. ऐसे में हम उसका कैसे पता लगायेंगे.

राजा ने रेखांकित किया कि सोशल मीडिया कंपनियां वैश्विक स्तर पर और भारत में स्व नियामन का प्रयास कर रही हैं और इस पर केंद्र सरकार से पहले ही चर्चा चल रही है. इस पर अदालत ने जोर देकर कहा कि निजता का मूल अधिकार भारत में पूर्ण नहीं है. निजता का सिद्धांत समाज की शांति पर पड़ने वाले असर से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता. बोलने की आजादी के साथ कुछ जिम्मेदारी भी होती है.

इससे पहले सोशल मीडिया कंपनियों के वकीलों ने मामले की सुनवाई इस आधार पर स्थगित करने की मांग की. उनकी दलील थी कि पहले ही विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों को शीर्ष अदालत में स्थानांतरित करने की याचिका उच्चतम न्यायालय स्वीकार कर चुका है.

Prabhat Khabar Digital Desk
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