नर्मदा परिक्रमा: हजारों वर्षों की परंपरा
Narmada Parikrama: सौंदर्य की नदी नर्मदा के लेखक अमृतलाल वेगड़ अपनी किताब में लिखते हैं कि पूर्णिमा के दिन अमरकंटक से निकली मां नर्मदा में महिलाएं दीप प्रज्वलित कर नदी में अर्पित कर रही थीं. यह देखकर अमृतलाल जी ने भी एक महिला से दीप मांग लिया और मां नर्मदा में प्रवाहित किया. उन्होंने बहते हुए दीप को देख मां नर्मदा से प्रार्थना की— “मैया, एक दीप मैं तुम्हारे लिए जला रहा हूं, एक दीप तुम मेरे भीतर जलाना, क्योंकि अंदर बहुत अंधेरा है और वहां का दीप जल नहीं पा रहा है, इस वजह से अंदर से प्रकाश नहीं आ पा रहा है.”
शायद यही कारण रहा होगा कि ऋषि मार्कंडेय ने अपने भीतर के प्रकाश को प्रज्वलित करने के लिए मां नर्मदा की परिक्रमा की थी. स्कंद पुराण, शिव पुराण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि नर्मदा परिक्रमा करने वाले प्रथम व्यक्ति ऋषि मार्कंडेय थे. उन्होंने नर्मदा के दोनों तटों पर स्थित लगभग 999 सहायक नदियों को बिना पार किए, प्रत्येक नदी के स्रोत की परिक्रमा करते हुए यह यात्रा पूरी की. इस परिक्रमा को संपन्न करने में उन्हें पूरे 45 वर्ष लगे थे.
पूरे विश्व में यह एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है. यह परिक्रमा भारत की एक प्राचीन धार्मिक और आध्यात्मिक परंपरा भी है. मां नर्मदा की यात्रा अमरकंटक से उसके संगम स्थल खंभात की खाड़ी तक पैदल की जाती है. इस संपूर्ण परिक्रमा को करने में लगभग 3 वर्ष, 3 महीने और 13 दिन लगते हैं, जिसमें भक्त नदी को दाहिनी ओर रखते हुए उसकी परिक्रमा करते हैं. यह यात्रा केवल आध्यात्मिक आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि प्रकृति के साथ गहरे संबंध को भी दर्शाती है.
यदि आप इस विषय को विस्तार से समझना चाहते हैं, तो अमृतलाल वेगड़ द्वारा लिखी गई तीन किताबें— सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा— अवश्य पढ़ें. ये पुस्तकें यात्रा वृत्तांत हैं, जो नर्मदा के सौंदर्य और आध्यात्मिक महत्त्व को गहराई से चित्रित करती हैं. अमृतलाल वेगड़ जी लिखते हैं कि अमरकंटक में नर्मदा एक बालक जैसी प्रतीत होती है, जबलपुर आते-आते चंचल हो जाती है और खंभात की खाड़ी में पहुंचते-पहुंचते शांत और गंभीर हो जाती है. वेगड़ जी का मानना है कि मां नर्मदा का सौंदर्य अन्य भारतीय नदियों की तुलना में अधिक अद्भुत है. यह नदी जलप्रपातों, पहाड़ों और जंगलों को पार करते हुए सतत प्रवाहित रहती है. आज भी परिक्रमा के दौरान स्थानीय निवासी परिक्रमावासियों का आतिथ्य-सत्कार और सदाव्रत करते हैं, जिससे समाज में आपसी सहयोग और सांस्कृतिक एकता की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.
Narmada Parikrama: तीन साल, तीन महीने और तेरह दिन की आध्यात्मिक यात्रा
मध्यप्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग के अनुसार, परिक्रमा पथ पर सुविधाओं के विस्तार के लिए योजनाएं बनाई गई हैं, जिनमें घाटों के विकास, वृक्षारोपण, आवास निर्माण और अन्न क्षेत्र की स्थापना शामिल हैं. 2025 के बजट में घोषित ‘अवरिल निर्मल नर्मदा योजना’ के तहत नर्मदा के तटों के 10 किलोमीटर क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जाएगा और जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाएगा.
देव उठनी एकादशी के बाद यदि कोई साधक नर्मदा परिक्रमा शुरू करता है, तो पैदल यात्रा में 3 साल, 3 महीने और 13 दिन लगते हैं. यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक तपस्या का प्रतीक है. श्रद्धालु इस पूरी यात्रा में नर्मदा को दाहिनी ओर रखते हुए चलते हैं और परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले आश्रमों, मंदिरों और गांवों में रुकते हैं.

तीन साल में कितना बदल जाएगा भारत? चुनाव, अर्थव्यवस्था और खेल का बदलता परिदृश्य
अगर कोई 15 मार्च 2025 को इस यात्रा पर निकलता है, तो वह लगभग जून 2028 में परिक्रमा पूरी करेगा. इन तीन वर्षों में देश और दुनिया में बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे.
अर्थव्यवस्था और वैश्विक स्थान: भारत वर्तमान में दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आईएमएफ के अनुसार, यह 2025 तक जापान को पछाड़कर चौथे स्थान पर पहुंच सकता है, जिसका अनुमानित जीडीपी 4,340 बिलियन डॉलर है. एनएसओ के अनुसार, वित्त वर्ष 2024 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7.6% थी, जबकि 2025 में इसके 6.5% रहने का अनुमान है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, यह दर 2025 में 6.6% और 2026 में 6.7% हो सकती है, जो स्थिर आर्थिक प्रगति का संकेत है.
मॉर्गन स्टेनली के अनुसार, मजबूत नीतियों और बुनियादी ढांचे के कारण, भारत 2028 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा, उपभोक्ता बाजार का नेतृत्व करेगा और वैश्विक उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएगा. भारतीय अर्थव्यवस्था, जो वर्तमान में 3,500 बिलियन डॉलर है, 2026 तक 4,700 बिलियन डॉलर और 2028 तक 5,700 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकती है, जो इसे जर्मनी से आगे निकलकर तीसरे स्थान पर ला खड़ा करेगी।
इसके अलावा, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में भारत की हिस्सेदारी 2029 तक 3.5% से बढ़कर 4.5% हो जाने का अनुमान है, जिससे यह वैश्विक आर्थिक संतुलन में एक प्रमुख देश बन जाएगा.
चुनावी परिदृश्य: भारत में 2029 के लोकसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी होंगी. इस दौरान सरकारें बदल सकती हैं, नए नेता उभर सकते हैं और कई नीतियां में बदलाव हो सकती हैं.
खेल जगत में परिवर्तन: जब परिक्रमार्थी यात्रा पूरी करेंगे, तब तक 2028 लॉस एंजेलेस ओलंपिक या तो चल रहा होगा या समाप्त हो चुका होगा. इस ओलंपिक में क्रिकेट 128 साल बाद वापसी करेगा और भारत की भागीदारी ऐतिहासिक होगी. भारतीय एथलीट कई नए खेलों में पदक जीत सकते हैं, और शायद भारत किसी अनदेखे खेल में स्वर्ण पदक हासिल कर चुका होगा.
तकनीकी और सामाजिक परिवर्तन: जब आप यात्रा शुरू कर रहे हैं, तब AI और इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर चर्चा हो रही होगी, लेकिन जब आप लौटेंगे, तब तक AI कई नौकरियों की जगह ले चुका होगा, और इलेक्ट्रिक गाड़ियां आम हो चुकी होंगी. भारत के अंतरिक्ष अभियान में भी कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल हो चुकी होगी—शायद कोई भारतीय चंद्रमा पर कदम रख चुका होगा.
परिक्रमार्थी जब लौटकर आएंगे, तब उनके आसपास की दुनिया नई होगी—लेकिन मां नर्मदा की धारा शाश्वत रूप से बहती रहेगी, अविरल और अडिग.
अमरकंटक से अरब सागर तक: नर्मदा की पवित्र यात्रा
नर्मदा नदी, जिसे ‘रेवा’ के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक प्रमुख जीवनदायिनी नदी है. इसका उद्गम स्थल मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में स्थित अमरकंटक है, जो समुद्र तल से 1,057 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. अमरकंटक को ‘तीर्थों का मुकुटमणि’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहां से नर्मदा के अलावा सोन और जोहिला नदियां भी निकलती हैं.
नर्मदा नदी की कुल लंबाई लगभग 1,312 किलोमीटर है. यह मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर बहती हुई गुजरात के भरूच जिले के पास खंभात की खाड़ी में अरब सागर में मिलती है. यह भारत की एकमात्र प्रमुख नदी है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है. मां नर्मदा अमरकंटक से निकलकर जबलपुर, होशंगाबाद, ओंकारेश्वर, महेश्वर और भरूच जैसे महत्वपूर्ण स्थलों से होकर गुजरती है. जबलपुर के पास भेड़ाघाट में संगमरमर की चट्टानों के बीच से बहती नर्मदा अत्यंत सुंदर और अविस्मरणीय दृश्य उत्पन्न करती है.

परिक्रमा करने वालों की कहानियां
हमने मां नर्मदा की परिक्रमा करने वाले रघुराही से बात की, जिन्होंने अमरकंटक से ओंकारेश्वर तक की यात्रा की. बातचीत के दौरान उन्होंने अपने अनुभव साझा किए और बताया कि उन्होंने यह परिक्रमा क्यों की.
रघुराही कहते हैं, “जब मैंने नर्मदा परिक्रमा शुरू की, तब मुझे इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी. बस इतना सुना था कि मध्य भारत में नर्मदा नदी की परिक्रमा की जाती है, जो गांवों, शहरों और जंगलों से होकर लगभग 3500 किलोमीटर की होती है. चूंकि मैं एक यात्री हूं और अपनी यात्राओं के माध्यम से जीवन के गहरे अनुभवों को महसूस करना चाहता हूं, इसलिए परिक्रमा के बारे में जानकर मैं बहुत उत्साहित हुआ. यह सोचकर ही मुझे अपार आनंद हुआ कि महीनों तक मुझे प्रकृति के एकदम करीब, नर्मदा नदी के साथ चलने का अवसर मिलेगा. यही विचार अपने आप में मेरे लिए एक बड़ा प्रेरणा स्रोत बना और इसीलिए मैंने परिक्रमा शुरू करने का निर्णय लिया.”
वे आगे बताते हैं, “परिक्रमा प्रारंभ करने के बाद मुझे इसका वास्तविक महत्व समझ में आया. यह कोई साधारण यात्रा नहीं थी, बल्कि लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था और श्रद्धा से जुड़ी हुई थी. गांवों और आश्रमों में रहने वाले लोगों का अतुलनीय प्रेम और सेवा भाव देखकर मैं चकित था. आज के युग में ऐसा समर्पण और निःस्वार्थ सेवा दुर्लभ है. इस अनुभव ने मेरे भीतर भी मां नर्मदा के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न कर दी. परिक्रमा से पहले और इसके दौरान मुझे ऐसे अद्भुत अनुभव हुए, जिन्होंने मेरी मां नर्मदा के प्रति आस्था को और अधिक प्रगाढ़ कर दिया.”

आस्था और आध्यात्म: नर्मदा परिक्रमा का आध्यात्मिक रहस्य
नर्मदा परिक्रमा सिर्फ आस्था और श्रद्धा के लिए नहीं की जाती, बल्कि यह यात्रा अपने भीतर आध्यात्मिक साधना को जगाने के लिए भी की जाती है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, नर्मदा शिव के पसीने से उत्पन्न हुई हैं, इसलिए इन्हें गंगा से भी अधिक पवित्र माना गया है. इतिहास में यह पाया गया है कि सतपुड़ा और विंध्याचल गंगोत्री से भी पहले अस्तित्व में आए थे, जिसके अनुसार मां नर्मदा का जन्म गंगा से पहले हुआ.
शास्त्रों के अनुसार, यह तपस्या का स्वरूप है, जिसमें परिक्रमार्थी सांसारिक मोह से दूर रहकर केवल मां नर्मदा की शरण में होते हैं. भूमि पर विश्राम, भिक्षा पर निर्वाह और पैदल यात्रा इसमें अनिवार्य मानी जाती है.
स्कंद और शिव पुराण में नर्मदा को मोक्षदायिनी कहा गया है. मत्स्य पुराण में वर्णन है कि नर्मदा के दर्शन और जल स्पर्श मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं. यह यात्रा न केवल धार्मिक, बल्कि मानसिक और आत्मिक शुद्धि का मार्ग भी है. इसलिए इस परिक्रमा को लोग आज भी बड़े श्रद्धा और आदर के साथ नियमपूर्वक करते हैं। आज भी जो महिलाएं इस नदी की परिक्रमा करती हैं, उन्हें साक्षात मां नर्मदा का स्वरूप मानकर सम्मान दिया जाता है.
परिक्रमा का सांस्कृतिक प्रभाव और लोककथाएं
नर्मदा का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश में है, वह महाराष्ट्र से होते हुए गुजरात में अरब सागर में विलीन हो जाती है. इस परिक्रमा के दौरान यात्री विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों और परंपराओं से रूबरू होते हैं. परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले गांव और कस्बे परिक्रमावासियों का स्वागत बड़े आदर और श्रद्धा के साथ करते हैं. इस यात्रा के दौरान गाए जाने वाले लोकगीत, भजन, और कीर्तन भी सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. निमाड़ी लोकगीत और भजन-कीर्तन परिक्रमा के दौरान विशेष रूप से गाए जाते हैं.
अमृतलाल वेगड़ अपनी पुस्तक में एक रोचक प्रसंग साझा करते हैं— जब उन्होंने नर्मदा के किनारे एक मगरमच्छ देखा, तो स्थानीय निवासियों से पूछने पर उन्होंने कहा कि नर्मदा में मगरमच्छ कभी नहीं देखे गए. इस पर उनके साथी यात्रियों ने कहा कि वेगड़ जी को स्वयं मां नर्मदा ने मगरमच्छ के रूप में दर्शन दिए हैं, लेकिन वेगड़ जी इसे मानने से इनकार कर देते हैं. ऐसी अनेक रहस्यमय कथाएं नर्मदा परिक्रमा से जुड़ी हुई हैं.
नर्मदा परिक्रमा पर आधारित साहित्य और कला: अमृतलाल वेगड़
अमृतलाल वेगड़ जी एक चित्रकार थे, लेकिन उन्होंने अपनी पहली नर्मदा परिक्रमा यात्रा 1977 में, 47 वर्ष की उम्र में शुरू की थी. इसके बाद, 2002 में, 75 वर्ष की उम्र में, उन्होंने दूसरी बार परिक्रमा की. इस अंतिम यात्रा में उनके पूरे परिवार के साथ-साथ कई अन्य लोग भी शामिल हुए, जो उन्हें जानते और सम्मान करते थे.
अमृतलाल वेगड़ जी मूल रूप से गुजराती संस्कृति से ताल्लुक रखते थे, लेकिन उनका जन्म मध्य प्रदेश के जबलपुर में हुआ था. शायद यही वजह रही होगी कि उनका नर्मदा से इतना गहरा जुड़ाव था. उन्होंने 1948 से 1953 तक पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में कला का अध्ययन किया, जहां उन्हें नंदलाल बोस जैसे महान कलाकार का मार्गदर्शन मिला. इसी शिक्षा की नींव पर उन्होंने अपनी पुस्तकों में नर्मदा का चित्रों के माध्यम से सुंदर वर्णन किया है—जैसे नदी के पास घड़े में पानी भरती महिलाएं, तटवर्ती जीवन, और प्राकृतिक सौंदर्य.

पहले वे एक चित्रकार के रूप में जाने जाते थे, लेकिन परिक्रमा के दौरान लिखी गई उनकी पहली पुस्तक सौंदर्य की नदी नर्मदा ने उन्हें एक लेखक के रूप में भी स्थापित कर दिया. उनकी गुजराती पुस्तक सौंदर्यनी नदी नर्मदा के लिए उन्हें 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
आधुनिक दौर में नर्मदा परिक्रमा की चुनौतियां
नर्मदा परिक्रमा, जो हजारों वर्षों से आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय महत्व रखती है, आज के दौर में कई नई चुनौतियों का सामना कर रही है। बढ़ते शहरीकरण, बांधों और जलविद्युत परियोजनाओं ने नदी के प्रवाह को प्रभावित किया है, जिससे परिक्रमार्थियों के लिए स्वच्छ जल और पारंपरिक मार्ग बाधित हो रहे हैं, और परिक्रमा में उन्हें कभी-कभी नदी के तीरे से ज्यादा दूर होकर चलना पड़ता है. आधुनिक जीवनशैली और सुरक्षा चिंताओं के कारण युवा पीढ़ी की भागीदारी घटी है, लेकिन कुछ संगठन और समुदाय इस परंपरा को संरक्षित करने में प्रयासरत हैं. नर्मदा परिक्रमा, जो विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर जोड़ती है, आज भी भारतीय आस्था, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता का प्रतीक बनी हुई है. जो भी इस नदी पर बांध बने हैं, जैसे सरदार सरोवर बांध और महेश्वर बांध, उनसे आसपास के गांव और शहरों को सूखे से मुक्ति मिली है और नदी से पैदा होने वाली बिजली उत्पादन परियोजनाओं, जैसे पावर प्लांट्स, का भी निर्माण हुआ है. इसलिए मां नर्मदा को जीवनदायिनी भी कहा जाता है.
अंततः, नर्मदा नदी की यात्रा को एक काव्यात्मक रूप में देखा जा सकता है, जो इसके भौगोलिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को संजोए हुए है. अमरकंटक की विंध्यांचल पहाड़ियों से उद्गमित यह नदी अपने प्रवाह के दौरान भेड़ाघाट में संगमरमर की चट्टानों के बीच अठखेलियां करती है, जहां इसकी लहरें चांदनी रात में दूधिया आभा बिखेरती हैं. आगे बढ़ते हुए, जब यह अरब सागर में विलीन होती है, तो मोक्ष और अनंत शांति का प्रतीक बन जाती है.
नर्मदा हमें सिखाती है कि जीवन भी इसकी धारा की तरह परिवर्तनों से गुजरता है—अमरकंटक में, जहां इसे कोई छोटा बालक भी सहजता से पार कर सकता है, वहीं संगम के समीप इसका विस्तार अद्भुत रूप से बढ़ जाता है. ‘उदास नर्मदा’ की संकल्पना न केवल इसके बदलते स्वरूप की ओर संकेत करती है, बल्कि प्रदूषण और आधुनिक चुनौतियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है, जो इसकी पवित्रता और प्रवाह को प्रभावित कर रहे हैं. अंततः, यह नदी सिखाती है कि हर परिवर्तन के बावजूद अंत में शांति और विलीनता ही अंतिम सत्य है.
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