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II मोहन गुरुस्वामी II वरिष्ठ टिप्पणीकार [email protected] शनिवार (28 अप्रैल) को वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात होनेवाली है. वुहान चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी होने के अलावा केंद्रीय चीन का राजनीतिक, आर्थिक, वित्तीय, सांस्कृतिक, शैक्षिक तथा परिवहन केंद्र माना जाता है. इसका इतिहास तीन हजार वर्ष पुराना […]

II मोहन गुरुस्वामी II

वरिष्ठ टिप्पणीकार

[email protected]

शनिवार (28 अप्रैल) को वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात होनेवाली है. वुहान चीन के हुबेई प्रांत की राजधानी होने के अलावा केंद्रीय चीन का राजनीतिक, आर्थिक, वित्तीय, सांस्कृतिक, शैक्षिक तथा परिवहन केंद्र माना जाता है. इसका इतिहास तीन हजार वर्ष पुराना है और चीन के हालिया इतिहास में भी इसने एक अहम भूमिका अदा की है. क्या एक बार फिर यहां इतिहास रचा जायेगा?

व्यापार युद्ध के घिर आये स्याह बादलों की वजह से भूमंडलीकरण की उस व्यवस्था पर आसन्न संकट के मध्य आयोजित होनेवाली इस बैठक को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है, जिसने पिछले तीन दशक के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था के साथ ही चीन तथा भारत की अर्थव्यवस्थाओं का भी अब तक का सर्वाधिक बड़ा विस्तार सुनिश्चित किया है. मगर इस संकट की वजह से अब न सिर्फ चीन, अपितु भारत की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचनेवाला है.

यह सच है कि भूमंडलीकरण ने चीन को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाया है, पर भारत भी इससे कोई कम लाभान्वित नहीं हुआ है. चीन ने अमेरिका में अपने उत्पादित माल के लिए एक विशाल बाजार पाकर 245 अरब डॉलर का व्यापार लाभ कमाया, तो भारत ने भी पिछले वर्ष वहां 120 अरब डॉलर का आईटी बाजार हासिल किया.

अमेरिका के लिए भारत के आइटी निर्यात के मूल्यवर्धन की संभावना चीन से वहां आयातित तैयार माल के मूल्यवर्धन से कहीं अधिक है. चीन और भारत दोनों देशों की ऊंची विकास दर का आधार उनके द्वारा अमेरिका को किये जानेवाले निर्यात और उसमें अमेरिका को होनेवाला व्यापार घाटा ही है. इस तरह दशकों बाद, चीन तथा भारत दोनों के हित एकाकार हो चले हैं और उनके लिए इस संकट का सामना मिलकर करने की जरूरत आ गयी है और यही वुहान के एजेंडे का मुख्य बिंदु होनेवाला है.

इस बातचीत का अगला मुद्दा चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे में कमी लाना भी है, जिसके अंतर्गत इस सदी की शुरुआत से अब तक चीन के हाथों भारत 350 अरब डॉलर हार चुका है. इसमें भी 250 अरब डॉलर का घाटा तो हमें पिछले पांच वर्षों के दौरान पहुंचा है.

भारत का प्रयास है कि इस घाटे में कमी लाने को चीन उसे ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबोर) के ऋण फांस में डालने की बजाय खासकर वाणिज्यिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ) का माध्यम अपनाये. इस संदर्भ में चीनी आयात पर प्रतिबंध की कट्टरवादी मांग खारिज कर मोदी सरकार ने एक सही फैसला किया है, क्योंकि दवा और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में भारत की प्रगति का आधार चीन से हमारा आयात ही है.

ओबोर के वित्तीय निहितार्थों के प्रति भारत की शंकाएं वाजिब हैं, क्योंकि वह अमेरिकी बैंकों में जमा चीनी कोष का इस्तेमाल कर सीमेंट, स्टील एवं विद्युत निर्माण जैसे क्षेत्रों में चीन की अनुपयोगी पड़ी उत्पादन क्षमता का इस्तेमाल सुनिश्चित कर चीन को लाभ पहुंचाने की एक बड़ी योजना से ज्यादा कुछ भी नहीं है. इसके माध्यम से चीन पाकिस्तान तथा श्रीलंका जैसे देशों को ब्याज आधारित ऋण देकर अपने बेकार पड़े धन से लाभ कमाना चाहता है.

वापसी की उदार शर्तों पर बड़ी ऋण राशियां देने के साथ, बुनियादी ढांचे की बड़ी परियोजनाओं में निवेश, सैन्य सहायता तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में अपने वीटो से उन्हें उपकृत कर चीन ने भारत के चतुर्दिक स्थित विभिन्न देशों पर अपना प्रभाव काफी बढ़ा लिया है. विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक एवं सबसे बड़ा विनिर्माता बन जाने के अलावा चीन की कभी न बुझनेवाली आर्थिक भूख ने कई नयी चुनौतियां पैदा कर दी हैं.

विश्व के तेजी से बदलते आर्थिक, प्रौद्योगिक तथा सामाजिक परिदृश्य में भारत और चीन की तकदीरें अविछिन्न रूप से जुड़ चुकी हैं.

अगले दो दशकों में भारत तथा चीन का संयुक्त जीडीपी जी-7 को पीछे छोड़ चुका होगा, जिससे वैश्विक शक्ति संतुलन में एक बड़ा बदलाव आनेवाला है. दोनों देशों को इस वास्तविकता के प्रति जागरूक होकर अपने बचकाने ‘सामरिक विशेषज्ञों’ की सुनने की बजाय अपनी ऐतिहासिक भूमिकाओं में उतरने की तैयारी करनी ही चाहिए.

यह तय है कि शी इस बैठक में मोदी से अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया तथा भारत के चौगुट के प्रति अपनी आशंकाएं व्यक्त करेंगे. भारत अपने हित भलीभांति समझता है.

इस गुट के बाकी तीन देशों को चीन से विलग करने हेतु विशाल सागरों की सुरक्षित दूरियां मौजूद हैं, जबकि भारत की उसके साथ लंबी भू-सीमाएं लगी हैं और दोनों के मध्य किसी भी सशस्त्र संघर्ष से दोनों को अपूरणीय क्षति पहुंचनी अवश्यंभावी है. चीन के साथ अमेरिका एवं जापान के आर्थिक हित इस तरह गुंथे हैं कि ऐसे संघर्ष में उन्हें भारत का भरोसेमंद साथी नहीं माना जा सकता.

चीन को अपनी विश्वदृष्टि में भारत के लिए जगह बनानी ही होगी. बगैर इसके भारत चीन के झांसे में आनेवाला नहीं है. ऐसे संकेत हैं कि चीन में भी अब इस सत्य की स्वीकार्यता बढ़ रही है. दोनों देशों का बेहतर आर्थिक जुड़ाव ही दोनों के टिकाऊ दीर्घावधि विकास की सर्वोत्तम आशा है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

Prabhat Khabar Digital Desk
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