50 Years of Emergency : श्रीमती गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा बाह्य या आंतरिक उथल-पुथल के कारण नहीं थी. वर्ष 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान ही बाह्य इमरजेंसी लगी हुई थी. गुजरात और बिहार के युवाओं के बढ़ते असंतोष से पनपे आंदोलन का राष्ट्रव्यापी स्वरूप में आना, जेपी जैसे महानायक द्वारा इसे अपना नेतृत्व प्रदान करना, 12 जून, 1975 को गुजरात प्रांत से आये नतीजों में कांग्रेस की पराजय आदि कई प्रमुख कारण रहे. जेपी स्वाधीनता संग्राम में गांधी, नेहरू के विश्वासपात्र साथियों में थे, लिहाजा उनकी पीड़ा आपातकाल को लेकर अन्य नेताओं से भिन्न और मार्मिक थी. इसलिए इंदिरा गांधी को जेल से लिखा पत्र उनकी आत्मा की आवाज थी, ‘कृपया उन बुनियादों को तबाह न करें, जिन्हें राष्ट्र के पिताओं ने, जिनमें आपके पिता भी शामिल हैं, अपने खून-पसीने से सींचने का काम किया है. आप जिस रास्ते पर चल पड़ी हैं, उस पर संघर्ष और पीड़ा के सिवाय और कुछ नहीं है. आपको एक महान परंपरा, महान मूल्य और कार्यरत लोकतंत्र विरासत में मिला है. जाते-जाते दुखी कर देने वाला मलबा छोड़कर मत जाइए, फिर से जोड़ने में काफी समय लग जायेगा. जिन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया और उसे परास्त किया, वे अनिश्चित काल तक अधिनायकवाद के अपमान और शर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकते.’
इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा के 12 जून के फैसले से समूचे देश में भूचाल-सा आ गया था. समाजवादी नेता राजनारायण ने 1971 में श्रीमती गांधी के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ा था. वे चुनाव में पराजित हो गये, लेकिन उन्होंने श्रीमती गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में श्रीमती गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने, भ्रष्ट हथकंडे अपनाने, शराब एवं कंबल आदि बांटने का दोषी पाया और उनका चुनाव रद्द कर उन्हें छह वर्ष के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया. यद्यपि बाद में उनके वकील डीपी खरे द्वारा एक याचिका दायर की गयी, जिसमें 20 दिन की छूट की मांग इस आधार पर की गयी कि नये नेता का चुनाव करना होगा और इस बीच कोई उथल-पुथल राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध हो सकती है. यद्यपि नेता के चुनाव की बात तो दूर, समूची पार्टी ने एक बड़ी रैली 23 जून को कर उनके प्रति न सिर्फ आस्था का परिचय दिया, बल्कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने सभ्यता की सभी सीमाएं लांघकर उन्हें राष्ट्र का पर्याय घोषित कर दिया कि ‘इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है.’
25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में समूचे विपक्ष द्वारा आयोजित रैली संख्या में विशाल थी. जनसंघ नेता मदनलाल खुराना मंच का संचालन कर रहे थे. लोकदल से प्रतिनिधि के रूप में सत्यपाल मलिक और मैं भी उपस्थित था. सभी प्रमुख दलों के नेताओं के बाद जेपी अपना भाषण प्रारंभ करने को उठे. विशाल जनसमुदाय देर तक तालियां बजाकर उनका अभिवादन करने लगा. राष्ट्रीय कवि दिनकर की इस कविता का भी कई बार उल्लेख हुआ, ‘सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी/मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो/
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.’
जेपी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के घटनाक्रम का जिक्र करते हुए श्रीमती गांधी के इस्तीफे की पुन: मांग की कि यह जनसमर्थन के अभाव वाली सरकार है और वे इसे अस्वीकार करते हैं तथा वे सेना एवं पुलिस से भी अपील करते हैं कि किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें, जैसा कि उनका मैन्युअल भी कहता है. इस प्रकार का प्रस्ताव 1930 के दशक में इंदिरा गांधी के दादा मोतीलाल नेहरू ने भी पारित किया था कि पुलिस को चाहिए कि वह अवैध आदेशों का पालन न करें. उस समय के अंग्रेजी जजों ने भी स्वीकार किया था कि अवैध आदेशों का पालन न करने की अपील करने में कुछ गलत नहीं है.
श्रीमती गांधी असुरक्षा के दौर से गुजर रही थीं. एक तबके द्वारा अदालत का फैसला आने तक किसी वरिष्ठ मंत्री को कार्यभार सौंपने की मांग भी उठने लगी. सरदार स्वर्ण सिंह एवं बाबू जगजीवन के नाम प्रमुखता से चर्चा में रहे, लेकिन श्रीमती गांधी को अब किसी नेता पर विश्वास नहीं बचा था. उनकी मुसीबत को निरंतर बढ़ाने का काम युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर एवं कंपनी भी कर रही थी. मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मीकान्तमा इस कोर ग्रुप के सदस्य थे, जो निरंतर टकराव टालने एवं जेपी से संवाद करने के पैरोकार थे. इन्हीं नेताओं के प्रयास से दो दौर की वार्ता श्रीमती गांधी और जेपी के बीच हो चुकी थीं, जो बेनतीजा रहीं. इसी असुरक्षा के दौर में आरके धवन, संजय गांधी एवं चौधरी बंसीलाल का त्रिगुट सक्रिय हो चला. संजय गांधी को मारुति उद्योग के लिए 290 एकड़ जमीन आवंटित किये जाने पर संसद कई बार ठप्प हो चुकी थी. तीनों ने मिलकर सख्त कार्रवाई करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. इंदिरा गांधी के आवास पर 12 जून से निरंतर जनसमर्थन के नाम पर रैली आयोजित होने लगी. लंपट किस्म के तत्वों की यूथ कांग्रेस में भरमार हो चली. चंद्रशेखर के नॉर्थ एवेन्यू स्थित आवास पर 24 जून को जेपी के सम्मान में आयोजित डिनर में दो दर्जन से अधिक कांग्रेसी सांसदों की उपस्थिति सबको आश्चर्यचकित करने वाली थी.
सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कानूनविद आपातकाल का मसविदा तैयार करने लगे और संजय ब्रिगेड ने जेपी की पुलिस और सेना से की गयी अपील को मुख्य मुद्दा बना कर आपातकाल का प्लान तैयार कर लिया. रात्रि 11:45 को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद से हस्ताक्षर करा कर इसकी घोषणा कर दी गयी. प्रातः छह बजे कैबिनेट की बैठक में सभी महत्वपूर्ण जानकारियां आदान-प्रदान होती रहीं. उस समय तक देश के लगभग डेढ़ लाख से ज्यादा नेता और कार्यकर्ता जेल जा चुके थे. परिजनों को यातनाएं दी जा रही थीं. जमानत के लिए अदालतों पर दबाव बनाया गया और स्वतंत्र प्रेस से खफा श्रीमती गांधी ने सेंसरशिप लगाकर उसकी आजादी का भी गला घोंट दिया. हालांकि प्रेस क्लब, दिल्ली से कुलदीप नैयर की अगुवाई में 100 से ज्यादा पत्रकारों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन श्रीमती गांधी के सत्ता के जुनून के सामने सब फीका पड़ गया. आपातकाल के तमाम प्रसंगों व घटनाक्रमों से एक बड़ी सीख मिलती है कि जब कोई व्यक्ति या नेता अपने को पार्टी या फिर राष्ट्र का पर्याय मान लेता है, तो लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन और तानाशाही की बुनियाद शुरू हो जाती है.
(आपातकाल में लेखक जेल यात्रा कर चुके हैं.)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)