भारतीय चुनाव आयोग वोटर आइडी को आधार से जोड़ने के अपने अभियान को फिर गति देने जा रहा है. हाल ही में यूआइडीएआइ, गृह सचिव और अन्य अधिकारियों के साथ बैठक के बाद यह तय हुआ कि इस मामले में विशेषज्ञों की राय ली जायेगी. चूंकि संविधान में मतदान का अधिकार केवल भारतीय को है, जबकि आधार सिर्फ व्यक्ति की पहचान तय करता है, राष्ट्रीयता की नहीं, ऐसे में विशेषज्ञों की राय के बाद इस मामले में आगे बढ़ा जायेगा, साथ ही, इसका भी ध्यान रखा जायेगा कि सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना न हो.
दरअसल आधार को अनिवार्य बनाने की कोशिशों पर सर्वोच्च न्यायालय सितंबर, 2018 में लगाम लगा चुका है. शीर्ष अदालत ने 2018 के अपने फैसले में कहा था कि आधार कार्ड योजना पूरी तरह स्वैच्छिक है, और इसे तब तक अनिवार्य नहीं किया जा सकता, जब तक इस संबंध में अदालत का आखिरी फैसला नहीं आ जाता. तब उसने यह भी कहा था कि राज्य सब्सिडी और कल्याणकारी योजनाओं के अलावा आधार को किसी भी सेवा के लिए अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता.
चुनाव आयोग के मुताबिक, वोटर-आधार को जोड़ने का मकसद आगामी चुनावों से पहले चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता, समावेशिता और कुशलता को बढ़ावा देना है. चुनाव आयोग 31 मार्च से पहले निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों, जिला चुनाव अधिकारियों और मुख्य चुनाव अधिकारियों के स्तर पर बैठक करेगा. यही नहीं, चुनाव आयोग ने कानूनी ढांचे के भीतर सभी राष्ट्रीय और राज्य मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों से आगामी 30 अप्रैल तक इस संबंध में सुझाव भी मांगे हैं. इस संदर्भ में देखने की बात यह है कि बाधाओं के बावजूद चुनाव आयोग अब से पहले बार-बार यह अभियान शुरू करने की कवायद करता रहा है. इसकी शुरुआत तीन मार्च, 2015 को हुई, जब चुनाव आयोग ने मतदाता सूची को विश्वसनीय बनाने के लिए महत्वाकांक्षी एनइआरपीएपी (नेशनल इलेक्टोरल रोल प्यूरिफिकेशन एंड ऑथेंटिकेशन प्रोग्राम) की शुरुआत की. उसी वर्ष अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने जब इस अभियान पर रोक लगायी, तब तक लगभग 32 करोड़ मतदाताओं के वोटर आइडी को आधार से जोड़ा जा चुका था.
लेकिन आयोग के महत्वाकांक्षी एनइआरपीएपी अभियान पर 2018 में तब सवाल उठे, जब देश के कई राज्यों में मतदाता सूची से लाखों वोटरों के नाम गायब पाये गये थे. इस संदर्भ में कर्नाटक का खासकर नाम लिया जा सकता है, जहां कुल पांच करोड़ मतदाताओं में से 66 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूचियों से गायब पाये गये थे. यही नहीं, एनइआरपीएपी की डाटा शीट तब राज्य के कई इलाकों में पड़ी पायी गयी थी. इससे वोटर आइडी को आधार से जोड़ने के अभियान के प्रति संदेह और गाढ़ा हुआ था. फिर आयोग ने सत्यापन अभियान के जरिये हटा दिये गये 15 लाख वोटरों के नाम फिर से मतदाता सूची में जोड़े.
चुनाव आयोग की सोच यह रही है कि वोटर आइडी को आधार से जोड़ने पर मतदाता सूचियों की स्वीकार्यता बढ़ेगी और उन पर संदेह नहीं किया जायेगा. लेकिन जब आधार की विश्वसनीयता ही संदिग्ध है, तब आयोग का इस पर भरोसा जताना समझ में नहीं आता. आयोग की तरफ से कहा जाता है कि यदि किसी मतदाता का नाम सूची से हटा दिया गया हो, तो वह चुनाव आयोग के दफ्तर में जाकर अपना नाम फिर से जुड़वा सकता है. लेकिन आधार की गड़बड़ी के कारण यदि किसी मतदाता का नाम सूची से हटा दिया जाए, तो उसे वापस जुड़वाना व्यावहारिक धरातल पर इतना आसान नहीं है. न ही आम आदमी के लिए चुनाव आयोग से संपर्क साधना सहज है. ज्यादातर समाज के कमजोर आदमी इसका खामियाजा भुगतते हैं, जिनके लिए मतदाता सूची में नाम जुड़वाना बहुत ही मुश्किल है.
दो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नाम न छापने की शर्त पर बता चुके हैं कि यूआइडीएआइ लंबे समय से वोटर आइडी को आधार से जोड़ने के लिए लॉबिंग करता रहा है, ताकि उसकी विवादास्पद बायोमीट्रिक आइडी परियोजना को वैध रूप दिया जा सके. यह अलग बात है कि फरवरी, 2015 में चुनाव आयोग का रुख बदला, और मार्च, 2015 में एनइआरपीएपी की बाकायदा शुरुआत हुई. इस मामले में राजनीतिक पार्टियों का रवैया भी एक समान नहीं रहा. प्रारंभ में चुनाव आयोग ने जब एनइआरपीएपी की शुरुआत की, तब सभी पार्टियां वोटर आइडी को आधार से जोड़ने पर सहमत थीं. लेकिन अभी विपक्ष इससे सहमत नहीं है. चुनाव आयोग द्वारा फिर से इस मुद्दे पर आगे बढ़ने पर राहुल गांधी ने एक्स पर टिप्पणी की है कि इससे गरीबों को परेशानी होगी. यदि आधार नंबर डुप्लीकेट वोटर आइडी से जुड़ गया, तो लिंकिंग प्रोसेस में दिक्कत आयेगी.
जबकि हाल के वर्षों में केंद्र सरकार की तरफ से वोटर-आधार योजना पर प्रयास जारी रहा. वर्ष 2021 में केंद्र सरकार ने वोटर आइडी को आधार से जोड़ने के लिए ड्राफ्ट बिल को मंजूरी दी. इसके तहत जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन किया गया, ताकि फर्जी मतदाताओं से निपटा जा सके. फिर जून, 2022 में सरकार ने वोटर आइडी-आधार लिंकिंग के लिए अधिसूचना जारी की. हालांकि इसे जोड़ना स्वैच्छिक ही रखा गया. अप्रैल, 2023 में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान सरकार ने राज्यसभा में कहा कि यह प्रक्रिया चरणबद्ध तरीके से चल रही है, इसमें कोई डेडलाइन नहीं दी गयी है, और आधार से न जोड़े जाने पर भी मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से नहीं हटाये जायेंगे.
जाहिर है, वोटर आइडी को आधार से जोड़ने को स्वैच्छिक बनाये रखने के मामले में सहमति है और चुनाव आयोग स्वैच्छिक तरीके से ही इस अभियान पर आगे बढ़ने की योजना बना रहा है. इस संदर्भ में देखने की बात यह है कि जब बीएलओ आम नागरिक के घर जाकर उनसे वोटर आइडी कार्ड में आधार जोड़ने की बात कहता है, तो सामान्य नागरिक इस पर आपत्ति नहीं उठाता. इस तरह स्वैच्छिक आधार पर यह अभियान आगे बढ़ता है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि बीएलओ मेरे यहां भी इस अभियान के तहत आया था. मैंने जब पूछा कि ऐसा वह क्यों कर रहा है, तो उसका उत्तर था कि उसे ऐसा करने के लिए कहा गया है. जब मैंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, यह स्वैच्छिक है, तब बीएलओ का कहना था कि उसे इस बारे में कुछ नहीं मालूम. वह वही कर रहा है, जो उसे बताया गया है. चुनाव आयोग का प्रेस नोट भी कहता है कि वह वही करने के बारे में सोच रहा है, जैसा कि उसने पहले किया था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)