Farmer Suicide : देशभर के न्यूज चैनलों एवं सोशल मीडिया में वायरल हो रही यह खबर महाराष्ट्र के लातूर जिले के 76 वर्षीय किसान की चुनौतियों का भयावह प्रतीक है. अंबादास नामक किसान के पास चार बीघा खेत थे. दस साल पहले उन्होंने अपने बैल बेच दिये थे, क्योंकि बैलों का खर्च वहन करना उनके लिए मुश्किल हो गया था. इसलिए वायरल खबर में बेबस किसान अंबादास की पत्नी मुक्ताबाई को हल खींचकर जोतते हुए दिखाया गया है. ‘मदर इंडिया’ फिल्म की अभिनेत्री पर फिल्माये गये इसी तरह के एक दृश्य ने दर्शकों को भावुक कर दिया था. स्पष्ट है कि उस किसान दंपति के पास बैल, ट्रैक्टर या मजदूर वहन करने की आर्थिक क्षमता नहीं थी. बारिश, सूखा और बढ़ती लागत ने नुकसान और कर्ज का बोझ बढ़ा दिया है, जिससे वे किसी मदद के बिना खेती नहीं कर पा रहे थे.
बीती सदी के तीसरे दशक में प्रेमचंद के महाकाव्य ‘गोदान’ में भारतीय गांव की दुर्दशा के निराशाजनक सामाजिक, आर्थिक की परिस्थितियां आज भी मौजूद हैं. ‘गोदान’ के पात्र होरी के पास तीन बीघा असिंचित जमीन थी और वह अपनी पत्नी धनिया, बेटे गोबर और दो बेटियों सोना और रूपा सहित अपने पूरे परिवार के साथ वहां काम करता था. अपने पूरे जीवन में अपनी खेती पर कब्जा बनाये रखने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ा और समय-समय पर मजदूरी करने के लिए भी मजबूर होना पड़ा. अंबादास की कहानी उन तमाम वादों की पोल खोलती है, जो सरकारें और राजनेता हर साल कर्ज माफी और आधुनिक खेती के लिए करते हैं. यह संसाधनों की कमी, मौसम के अनियमित प्रभाव और वित्तीय बोझ जैसे मूल कारणों को भी उजागर करती है. यह घटना नीतिगत बदलाव की जरूरत भी सामने लाती है, चाहे वह सब्सिडी हो, कर्ज माफी हो, किसान जागरूकता हो या मंचों तक पहुंच हो.
महाराष्ट्र के मराठावाड़ा संभाग से किसान आत्महत्याओं के मामले भी निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. मराठावाड़ा के पूर्व संभागीय आयुक्त सुनील केन्द्रेकर द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक अकेले इसी संभाग में लगभग एक लाख किसान आत्महत्या करने पर विचार कर रहे हैं, जिसका मुख्य कारण फसल का नुकसान एवं अन्य वित्तीय परेशानी है. यह रिपोर्ट 10 लाख किसानों पर किये गये सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गयी है. किसानों के इन समूहों ने स्वीकार किया कि वे निराश हैं तथा कर्ज, सूखे, बेमौसम बारिश के कारण फसलों की विफलता, फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने, घर चलाने या बच्चों की शादी के लिए पैसे न होने जैसे मुद्दों के कारण अपना जीवन समाप्त कर लेने के बारे में विचार कर रहे हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, हर वर्ष औसतन 12 हजार अन्नदाता मौत को गले लगा रहे हैं और पिछले 20 साल में करीब तीन लाख किसानों ने तंगहाली में अपनी जान दे दी है. पहले पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के किसान आत्महत्या जैसा कदम उठाने से बचते थे, लेकिन वहां से भी इस तरह की खबरों में वृद्धि के समाचार हैं. आत्महत्या के ये मामले देश में उदारीकरण लागू होने के बाद यानी 1991 से बढ़े हैं. वर्ष 2008 में 16,196, जबकि 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्या की. मराठवाड़ा के अलावा कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से भी आत्महत्या के आंकड़े प्राप्त हो रहे हैं. वर्ष 2001 की जनगणना एक और चौंकाने वाला खुलासा करती है कि पिछले 10 साल में करीब 70 लाख किसानों ने खेती-बाड़ी को घाटे का सौदा मानकर खेत-खलिहानी करना छोड़ दिया.
सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में केंद्र सरकार ने माना है कि हर साल करीब 12,602 किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जिनमें से 8,007 उत्पादक किसान और 4,595 के करीब खेतिहर मजदूर हैं. वर्ष 2014 में 12,360, 2015 में 12,602 और 2016 में 11,370 किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या करने वाले किसानों की कृषि जोत के आकार से पता चला है कि मध्य प्रदेश और हरियाणा को छोड़कर सभी प्रमुख राज्यों में छोटे और सीमांत किसान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. देश में आधे से ज्यादा किसानों पर कर्ज है. आंध्र एवं तेलंगाना में 90 फीसदी से ज्यादा किसान कर्जदार हैं. हर किसान पर औसतन 2.45 लाख कर्ज है. राजस्थान के 60 प्रतिशत से ज्यादा किसान कर्जदार हैं, तो झारखंड के हर किसान पर 8,500 रुपये कर्ज है.
सबसे आश्चर्यजनक आंकड़े बिहार से हैं, जहां एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. कृषिवैज्ञानिक प्रफुल्ल सारडा के अनुसार, बिहार में कृषि पर निर्भरता कम करके आजीविका के विविध स्रोत पैदा किये गये हैं. ज्यादातर छोटी जोत वाली खेती के कारण राज्य में कर्ज का जोखिम न के बराबर है. मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड, सिंचाई योजनाएं और फसल बीमा योजनाओं का सरली क्रियान्वयन इसका मुख्य कारण है. स्वभाव से बिहारी जनमानस सामाजिक सहयोग एवं मजबूत पारिवारिक तंत्र से जुड़ा है. आर्थिक सहयोग के बिना जीवित रहने की क्षमता और आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति भी एक बड़ा कारण है. कृषिवैज्ञानिक सारडा के मुताबिक, देश को बिहार पैटर्न की जरूरत है. ऐसा मॉडल, जो किसानों की आत्महत्या को जड़ से खत्म कर दे. उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की है कि वे बिहार मॉडल को गंभीरता से समझें और इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करें. अगर बिहार जैसे आर्थिक रूप से कमजोर राज्य में यह मुमकिन है, तो पंजाब, महाराष्ट्र, तेलंगाना जैसे राज्यों में नामुमकिन क्यों है?
बिहार ने चाहे जैसे भी हो, ‘शून्य किसान आत्महत्या’ का जो आंकड़ा दिया है, वह अब देश की बाकी सरकारों के लिए आईना बन गया है. एनडीए का नेतृत्व इसे अपने सघन अभियान का हिस्सा बनाने की योजना तैयार करने में लगा है कि नीतीश सरकार के 20 वर्षों में किसान अथवा मजदूर द्वारा आत्महत्या का एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया है. आखिरकार राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, व्यापारियों और उद्योगपतियों का गठजोड़ यह देखने में असफल क्यों है कि देश के कमेरे वर्ग ने सामूहिक रूप से पलायन किया है? कुल आबादी में कृषक जनसंख्या का अनुपात तेजी से घट रहा है. समय की मांग है कि सभी पूर्वाग्रहों को त्याग कर एक किसान आयोग का गठन किया जाये, कृषि मूल्य आयोग जैसे उपक्रमों में किसान विशेषज्ञों की हिस्सेदारी बढ़ायी जाये, एमएसपी के मूल्यांकन का वैज्ञानिक स्वरूप हो और अन्य बाजार उत्पादकों की तर्ज पर किसान उत्पादों को निर्धारित मूल्य से कम पर न बेचने की वैधानिक चेतावनी जारी हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)