Chandradhar Sharma Guleri : हिंदी कहानी के प्राथमिक पाठक की भी स्मृति में ‘उसने कहा था’ कहानी सुरक्षित है. कहानीकार की हैसियत से पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां लिखीं. उनकी पहली कहानी, ‘सुखमय जीवन’ 1911 में ‘भारत मित्र’ में छपी थी. उसके चार वर्ष बाद ‘उसने कहा था’ 1915 ई के ‘सरस्वती’ (भाग 16, खण्ड 1, पृ. 314) में प्रकाशित हुई. यह हिंदी कहानी की शिल्प-विधा तथा विषय-वस्तु के विकास की दृष्टि से मील का पत्थर कहानी मानी जाती है. इसमें एक यथार्थपूर्ण वातावरण में प्रेम के सूक्ष्म तथा उदात्त स्वरूप की मार्मिक व्यंजना की गयी है.
‘इस कहानी में उन्होंने पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संभव किया था. इस कहानी की घटना ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती हैं, पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है- केवल झांक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है. कहानी में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है. सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुंचती. इसकी घटनाएं ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं’-यह टिप्पणी रामचंद्र शुक्ल जी की है. गुलेरी जी की तीसरी कहानी ‘बुद्धू का कांटा’ है. निबंध लेखन के क्षेत्र में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी विलक्षण शैलीकार के रूप में सामने आते हैं. उनके निबंधों की संख्या सौ से अधिक है. उन्होंने गूढ शास्त्रीय तथा सामान्य कोटि के विषयों पर भी समान अधिकार से लिखा. पांडित्यपूर्ण हास तथा अर्थगत वक्रता की दृष्टि से उनकी शैली विशिष्ट मानी जाती है. इनके दो निबंध ‘कछुआ धरम’ तथा ‘मारेसि मोहि कुठाउं’ अपने समय में बहुत प्रसिद्ध हुए थे.
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म पुरानी बस्ती, जयपुर में सात जुलाई,1883 को एक विख्यात पंडित घराने में हुआ था. उनकी मृत्यु मात्र 39 वर्ष की अवस्था में 1922 में हो गयी. उनके पूर्वज कांगड़ा के गुलेर नामक स्थान से जयपुर आये थे. गुलेरी जी बहुभाषाविद् थे. संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बांग्ला के साथ अंग्रेजी, लैटिन तथा फ्रेंच आदि भाषाओं में भी उनकी अच्छी गति थी. वह संस्कृत के पंडित थे. प्राचीन इतिहास और पुरातत्व उनका प्रिय विषय था. भाषा विज्ञान में भी उनकी गहरी रुचि थी. गुलेरी जी की सृजनशीलता के चार मुख्य पड़ाव थे-‘समालोचक’ (1903-06 ई.), ‘मर्यादा’ (1911-12), ‘प्रतिभा’ (1918-20) और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ (1920-22). इन पत्रिकाओं में उनका रचनाकार व्यक्तित्व बहुविध उभरकर सामने आया. उन्होंने 1904 से 1922 तक अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों में अध्यापन कार्य किया, ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से सम्मानित हुए और पं मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर 11 फरवरी, 1922 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के प्राचार्य भी बने. जीवन के अंतिम वर्षों में वह पहले अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्यापक रहे, फिर काशी-हिंदू-विश्वविद्यालय के ओरियंटल कॉलेज के प्रिंसिपल होकर आये.
गुलेरी जी ने छोटी अवस्था में ही जयपुर से ‘समालोचक’ नामक एक मासिक पत्र अपने संपादकत्व में निकाला था. उक्त पत्र के जरिये गुलेरी जी एक बहुत ही अनूठी लेख-शैली लेकर साहित्य-क्षेत्र में उतरे थे. जैसा गंभीर और पांडित्यपूर्ण हास उनके लेखों में रहता था, वैसा और कहीं देखने में न आया. अनेक गूढ़ शास्त्रीय विषयों तथा कथा-प्रसंगों की ओर विनोदपूर्ण संकेत करती हुई इनकी वाणी चलती थी. इसी विशिष्टता के कारण इनकी चुटकियों का आनंद अनेक विषयों को जानकारी रखनेवाले पाठकों को ही विशेष रूप से मिलता था. व्याकरण जैसे रुखे विषय पर भी इनके लेख मजाक से खाली नहीं होते थे. उनकी शैली में जो विशिष्टता और अर्थगर्भित वक्रता है, वह और किसी अन्य लेखक में नहीं मिलती. इनके स्मित हास की सामग्री ज्ञान के विविध क्षेत्रों से ली जाती रही है. अतः इनके लेखों का पूरा आनंद उन्हीं को मिल सकता है, जो बहुज्ञ या कम से कम बहुश्रुत हैं. इनके ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहिं कुठाऊं’ नामक लेखों से उद्धरण दिये जा सकते हैं. एक लेख में वह कहते हैं कि ‘मनुस्मृति’ में कहा गया है कि जहां गुरु की निंदा या असत् कथा हो रही हो, वहां पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या और कहीं उठकर चला जाए. मनु महाराज ने न सुनने योग्य गुरु की कलंक-कथा सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताये हैं- या तो कान ढक कर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो. तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तान कर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करनेवाले का जबड़ा तोड़ दो या मुंह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे. आधुनिक हिंदी कहानी, निबंध, समीक्षा एवं भाषाशास्त्र के विकास में गुलेरी जी का बड़ा योगदान है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)