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जयंती विशेष : राजनीति में अजातशत्रु थे चंद्रशेखर

Birth Anniversary Chandrashekhar : जीवन के कई दशक समाजवादी आंदोलन को देने के बाद चंद्रशेखर कांग्रेस में जाकर ‘युवा तुर्क’ तो कहलाये थे, पर इंदिरा गांधी से वैचारिक असहमतियों ने वहां उनकी पारी लंबी नहीं होने दी थी. वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा, तो विपक्षी नेताओं के साथ उनको भी जेल भेज दिया था.

Birth Anniversary Chandrashekhar : वर्ष 1927 में 17 अप्रैल को यानी आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक बलिया जिले में स्थित इब्राहिमपट्टी गांव के एक सामान्य से परिवार में जन्मे देश के आठवें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का कोई आधी शताब्दी का राजनीतिक जीवन कई चढ़ाव-उतारों से भरा रहा है. लेकिन वह कभी राजनीतिक अस्पृश्यता व असहिष्णुता के फेर में नहीं पड़े और आठ जुलाई, 2007 को इस संसार से अजातशत्रु के रूप में विदा हुए.


उनके अजातशत्रु होने की एक मिसाल यह भी है कि अलग-अलग और परस्पर विरोधी खेमों में रहने के बावजूद वह अटल बिहारी वाजपेयी को हमेशा ‘गुरुदेव’ कहकर बुलाते रहे. वह ‘गुरुदेव’ से पहले प्रधानमंत्री बन गये, तो भी उनका यह संबोधन नहीं बदला. जब भी संसद में अटल भाषण दे रहे होते और विरोधी नेता शोरगुल करते, तो वह शोरगुल शांत कराने की कोशिश जरूर करते थे. यह और बात है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में वह उनकी कई नीतियों के मुखर आलोचक भी रहे.


जीवन के कई दशक समाजवादी आंदोलन को देने के बाद चंद्रशेखर कांग्रेस में जाकर ‘युवा तुर्क’ तो कहलाये थे, पर इंदिरा गांधी से वैचारिक असहमतियों ने वहां उनकी पारी लंबी नहीं होने दी थी. वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा, तो विपक्षी नेताओं के साथ उनको भी जेल भेज दिया था. वर्ष 1977 में वह इंदिरा के विरुद्ध हुए जनता पार्टी के प्रयोग में शामिल होकर उसके अध्यक्ष पद तक पहुंचे.


दस नवंबर, 1990 को बेहद विपरीत परिस्थितियों में वह तब देश के आठवें प्रधानमंत्री बने, जब अयोध्या मामले को लेकर रथयात्रा निकाल रहे वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया और उससे खफा भाजपा ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिरा दिया था. वह सरकार गिर जाने के उपरांत सत्तारूढ़ जनता दल में फूट पड़ गयी थी और उसके सांसदों के एक गुट ने चंद्रशेखर के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए उस कांग्रेस का ‘बाहरी समर्थन’ लेने से भी परहेज नहीं किया था, जिसके खिलाफ उसने साल भर पहले चुनाव लड़ा था, इसलिए चंद्रशेखर के शपथग्रहण के दिन से ही देश को पता था कि उनकी सरकार की उम्र बहुत लंबी नहीं होने वाली.

चंद्रशेखर आठ महीने से कुछ कम ही समय तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रह पाये थे. लेकिन उस दौरान बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने जो भी फैसले लिये, किसी दबाव में आये बिना बहुत दृढ़ होकर लिये. वह जब प्रधानमंत्री बने, तब देश की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता थी. विदेशी मुद्रा भंडार इतना खाली हो गया था कि उसे पूरी तरह खाली करके भी सिर्फ 20 दिनों के आयात बिल भरे जा सकते थे. दूसरे शब्दों में कहें, तो देश दिवालिया होने के कगार पर था और उसकी साख बचाने के लिए देश का 20 हजार टन सोना स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में गिरवी रखना पड़ा था. चंद्रशेखर ने उस विकट स्थिति का बहुत दृढ़ होकर सामना किया.


आत्मकथा ‘जीवन जैसा जिया’ में अपने जीवन का जिक्र करते हुए चंद्रशेखर ने लिखा है कि प्रधानमंत्री तो क्या, संसद सदस्य बनना भी उनके सपने में नहीं था. उन्हें लगता था कि सांसद जब भी आपस में मिलते होंगे, तब देश और समाज की गंभीर समस्याओं को हल करने पर ही विचार-विमर्श करते होंगे. लेकिन बाद में यह देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई कि ऐसा नहीं था और सांसदों को आमतौर पर अपने घरों की चमक-दमक की ही ज्यादा फिक्र रहती थी.


निधन से कुछ महीने पहले अस्वस्थ होने के बावजूद वह आखिरी बार ट्रेन से अपनी जन्मभूमि बलिया पहुंचे, तो सहानुभूति जताने आये लोगों का अपने प्रति स्नेह देखकर भावुक हो उठे और ट्रेन के गेट पर ही सुबकने व फफकने लगे थे। इसके बाद तो वहां शायद ही कोई रहा हो, जिसकी आंखें द्रवित न हो गई हों. बलिया ने 1984 को छोड़कर उन्हें 1977 से आठ बार अपना सांसद चुना था. वर्ष 1989 में वह बिहार की महाराजगंज सीट से भी लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते थे. राज्यसभा के वर्तमान उपसभापति हरिवंश उनके प्रधानमंत्री काल में उनके अतिरिक्त सूचना सलाहकार हुआ करते थे. उन्होंने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर ‘चंद्रशेखर : द लास्ट आइकन ऑफ आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स’ नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें उनके भारतयात्री रूप पर भी काफी फोकस है. ज्ञातव्य है कि चंद्रशेखर ने छह जनवरी, 1983 को कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक से अपनी भारत यात्रा शुरू की थी और करीब 4,200 किलोमीटर की पदयात्रा के बाद 25 जून, 1984 को दिल्ली के राजघाट पर समाप्त की थी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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