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Birth Anniversary : अन्याय के खिलाफ लड़ाई का आह्वान है नागार्जुन का साहित्य

Birth Anniversary Nagarjuna : बाबा अपनी मिसाल आप ही थे. भले घुमक्कड़ी के चलते उनको दूसरा राहुल सांकृत्यायन कहा जाता था और फक्कड़पने को लेकर दूसरा कबीर. अपनी सहज रूप से जिंदादिल और संप्रेषणीय कविताओं की मार्फत वे ऐसा मनोरम काव्य संगीत रच गये हैं, जो बार-बार हमें जीवन के विविध छंदों व लक्ष्यों की याद दिलाता चलेगा

Birth Anniversary Nagarjuna : हिंदी व मैथिली के अलबेले बहुभाषाविद प्रगतिशील कवि व कथाकार बाबा नागार्जुन ने अपनी इस कविता में अपने हाथों अपने कान उमेठते हुए-से अपना जैसा परिचय दिया है, शायद ही किसी और साहित्यकार ने दिया हो. वे लिखते हैं, ‘मैं, यानी /अर्जुन नागा/उर्फ बैजनाथ मिसिर/ उर्फ यात्री जी/साकिन मौजे तरउनी बड़की/ थाना बहेड़ा/ जिला दरभंगा/ बिहार राज्य/ होशोहवास/अपनी धर्मपत्नी/आदरणीय श्रीमती/ अपराजिता देवी के/चंद लफ्जों के मुताबिक/ ‘हम तो आज तक/इन्हें समझ ही नहीं पाये’/ हां/ वही, वही, वही, जो/कोटि-कोटि/अन्नहीन वस्त्रहीन जनों का प्रतिनिधि/ नागार्जुन है न.’


यह उनकी उस प्रवृत्ति के अनुरूप ही है, जिसमें वे यावत्जीवन हरचंद कोशिश करते नजर आते हैं कि उनके और उनके पाठकों के बीच कहीं कोई छद्म न रह पाए. इस आत्मपरिचय के बरक्स उन्हें किसी दूसरी अपनत्व भरी निगाह से देखना चाहें, तो प्रसिद्ध आलोचक विजय बहादुर सिंह याद आते हैं, जो 1967 के बाद के कई दशकों तक इस मायने में बाबा के ‘सहचर’ रहे कि उस दौर में मध्य प्रदेश में विदिशा स्थित उनका घर बाबा के प्रवास का सबसे पसंदीदा ठौर हुआ करता था. विजय बहादुर नागार्जुन के ‘कुछ कुछ अष्टावक्री तेवर और बहुत कुछ दुर्वासाई अंदाज’ को इन शब्दों में याद करते हैं : ‘सरलता ऐसी कि बच्चा भी सटकर बतिया ले और गूढ़ता ऐसी कि बड़े-बड़े पंडित भी खौफ खा जाएं.

प्रखरता ऐसी कि रौब-दाब वाली कथित प्रवर बौद्धिकता भी पानी भरे… वेश जैसे नगरपालिका के चुंगी नाके का रिटायर्ड नाकेदार….ठाठ देखें, तो लगे जैसे खैनी-तंबाकू का कोई बूढ़ा व्यापारी. गले में पुरबिया गमछा. धड़ पर कुर्ता या कोट. कमर में पतलून या पैजामा और दाढ़ी बिल्कुल ऋषियों जैसी…हंसे तो कत्थई मटमैले दांतों के साथ मसूड़े भी मुसकी मारें. खीझे तो भौंहों और नथुनों से बरसे कोप. ठेंपी खुले, तो खुली ही रह जाए. बंद रहे तो गूंगापन भी झख मारे.’


बाबा अपनी मिसाल आप ही थे. भले घुमक्कड़ी के चलते उनको दूसरा राहुल सांकृत्यायन कहा जाता था और फक्कड़पने को लेकर दूसरा कबीर. अपनी सहज रूप से जिंदादिल और संप्रेषणीय कविताओं की मार्फत वे ऐसा मनोरम काव्य संगीत रच गये हैं, जो बार-बार हमें जीवन के विविध छंदों व लक्ष्यों की याद दिलाता चलेगा. बाबा अपनी कविताओं में जनविरोधी सत्ता प्रतिष्ठानों पर प्राय: हमलावर हो उठते. इसीलिए कुछ समीक्षक कहते हैं कि उनकी कविताओं में शब्द आग के गोलों में बदल जाते थे.


हिंदी व मैथिली में लिखे बाबा के संपूर्ण साहित्य में अन्याय के खिलाफ लड़ाई का आह्वान तो है ही, जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ उद्वेलन भी है, क्रांति के सपने भी और भूख व गरीबी से गरिमा के साथ जूझने की यथार्थवादी तरकीबें भी. इसे यों भी कह सकते हैं कि हिंदी के गद्य साहित्य में जो काम कभी प्रेमचंद ने किया, पद्य में वही काम बाबा ने. प्रसंगवश, अपनी कविताओं की बाबत एक साक्षात्कार में बाबा ने कहा था कि वे कविताएं तब लिखते हैं, जब उन्हें समाज या व्यवस्था पर बहुत गुस्सा आता है. और तब वे बहुत मूड में होते हैं. यह पूछने पर कि उनकी कुछ कविताओं पर संस्कृत काव्य का प्रभाव बहुत अधिक क्यों है, वे उत्तेजित होकर पूछा करते थे कि जो दिन-रात अंग्रेजी पढ़ते हैं, उनकी कविताओं पर अंग्रेजी का ज्यादा प्रभाव होता है या नहीं?

ऐसे में, जब मैं मूलतः संस्कृत का ही आदमी हूं, तो मेरी कविताओं पर उसका ज्यादा असर क्यों नहीं होगा? लेकिन साथ ही वे कहते थे कि उनकी कविताओं पर उनके विपन्न अंचल और उसकी विडंबनाओं से भरी परिस्थितियों का भी गहरा असर है. एक बातचीत में यह पूछे जाने पर कि एक आदर्श कवि के बारे में उनकी धारणा क्या है, उन्होंने बताया था कि वे अच्छे कवि की अपेक्षा अच्छे नागरिक को कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं. यह पूछे जाने पर कि तब क्या वे अपने को कवि नहीं मानते, उनका उत्तर था- ‘कविता की मैंने कभी परवाह नहीं की और इस सवाल का जवाब मांगने के लिए मैं सही पात्र नहीं हूं. हां, किसी शायर की ये पंक्तियां मेरे दिमाग में गूंजती रहती है- फरिश्ते से इंसान बनना है बेहतर, मगर इसमें पड़ती है मुश्किल जियादह’.


इसी बातचीत में उन्होंने कहा था- ‘हम तो ऐसे हैं, साधु का लबादा छोड़ने पर भी जो एक अच्छा पति नहीं बन सका, एक अच्छा पिता नहीं हो सका. वह भला अच्छा कवि और अच्छा नागरिक कैसे होगा? प्रत्येक बंधन से छुटकारा पाने की कोशिश में, किसी प्रकार के दायित्व को न निभा पाने की निराशा में आहिस्ता-आहिस्ता औघड़ बन जाना ही मैं अपने लिए सहज मानता आया हूं. प्रतिभासंपन्न काजी नजरुल इस्लाम (बांग्ला साहित्यकार) का गूंगा हो जाना या निराला का विक्षिप्त हो जाना मुझे समझ में आता है. कोई भी संवेदनशील आदमी इन सामाजिक विडंबनाओं के बीच कभी भी विक्षिप्त हो सकता है.’ (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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