बीआर दीपक, प्रोफेसर, जेएनयू
Dalai Lama : विगत दो जुलाई को, अपने 90वें जन्मदिन से कुछ दिन पहले दलाई लामा ने कहा, ‘मैं यह पुष्टि करता हूं कि दलाई लामा संस्था जारी रहेगी और भविष्य में मेरे पुनर्जन्म को मान्यता देने का अधिकार केवल गदेन फोडरंग ट्रस्ट को होगा, किसी और को इसमें दखल देने का कोई अधिकार नहीं है.’ छह जुलाई को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा को उनके 90वें जन्मदिन पर दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य की शुभकामनाएं दीं, जिससे चीन भड़क उठा. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने एक मीडिया ब्रीफिंग में कहा कि ‘नयी दिल्ली को शित्सांग (तिब्बत) से जुड़े मामलों की अत्यधिक संवेदनशीलता को पूरी तरह समझना चाहिए और 14वें दलाई लामा के स्वभाव को पहचानना चाहिए’. उन्होंने आगे यह कहा कि 14वें दलाई लामा राजनीतिक निर्वासित हैं, जो लंबे समय से अलगाववादी गतिविधियों में संलग्न हैं. भारत में चीन के राजदूत श्वी फेईहूंग ने भी कुछ इसी तरह की टिप्पणी की.
उत्तराधिकारी से संबंधित दलाई लामा की यह घोषणा सीधे बीजिंग के उस दावे को चुनौती देती है कि तिब्बती धार्मिक मामलों पर सिर्फ चीन का एकाधिकार है. यह दावा 1793 की साम्राज्यकालीन परंपराओं और 2007 के आधुनिक कानूनी प्रावधानों पर आधारित है. रीतियों की बात करें, तो अक्सर उद्धृत ‘तिब्बत के अधिक प्रभावी शासन के लिए 1793 के 29-धारा अध्यादेश’ का हवाला दिया जाता है, जिसके तहत अंबान (तिब्बत में चीन के सम्राटीय आयुक्त) को दलाई लामा और पंचेन लामा के समान दर्जा दिया गया था. दलाई लामा, पंचेन और अन्य उच्च लामा का पुनर्जन्म गोल्डन अर्न की प्रक्रिया से अंबानों की देखरेख में निर्धारित किया गया और इसे सम्राट के दरबार में स्वीकृति के लिए भेजा गया.
जुलाई, 2007 में चीन के राज्य धार्मिक मामलों के प्रशासन ने ऐसे नियम जारी किये, जिससे तिब्बती बौद्ध पुनर्जन्म पर बीजिंग को विशेष अधिकार मिल गया. इसके अनुच्छेद दो में कहा गया कि कोई भी पुनर्जन्म राज्य की एकता, जातीय एकजुटता और धार्मिक सामंजस्य बनाये रखेगा, पारंपरिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं का सम्मान करेगा, लेकिन सामंती विशेषाधिकारों को पुनर्जीवित नहीं करेगा. सबसे अहम यह है कि किसी भी विदेशी व्यक्ति या संगठन को इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं है. इस कानूनी ढांचे से चीन को अधिकार मिलता है कि वह विदेश में घोषित किसी भी दलाई लामा के पुनर्जन्म को अमान्य घोषित कर सके.
हालांकि चीन ने दलाई लामा की घोषणा को अवैध करार दिया है, फिर भी अब ऐसा परिदृश्य बनने जा रहा है जिसमें तिब्बत का प्रश्न और गहरा सकता है. एक दलाई लामा, जिन्हें निर्वासित तिब्बती समुदाय दलाई लामा के आशीर्वाद से चुनेंगे, और दूसरे को बीजिंग द्वारा तिब्बत में सख्त नियंत्रण में स्थापित किया जायेगा, जैसा पंचेन लामा के मामले में हुआ था. यह केवल धार्मिक विभाजन नहीं, बल्कि खुला भू-राजनीतिक संकट होगा. भारत की दुविधा इसमें साफ है- अगर दलाई लामा भारत में पुनर्जन्म लेते हैं, तो नयी दिल्ली के लिए उसे मान्यता देना या न देना, दोनों ही स्थिति में चीन के साथ उसके संबंधों पर गंभीर असर पड़ेगा. अगर भारत दलाई लामा की इच्छा का समर्थन करता है, तो बीजिंग इसे अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप और अलगाववाद को प्रोत्साहन मानकर देखेगा. यह संदेह नया नहीं है. चीन हमेशा ही दलाई लामा को ‘विभाजनकारी’ मानता आया है, भले ही उन्होंने बार-बार चीनी संविधान के अंतर्गत ‘वास्तविक स्वायत्तता’ की मांग की है, न कि पूर्ण स्वतंत्रता की.
ऐसी स्थिति में चीन पाकिस्तान के साथ रणनीतिक तालमेल बढ़ाकर भारत पर दबाव बढ़ा सकता है. हाल ही में पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ त्रिपक्षीय बैठक बुलाकर चीन ने संकेत दे दिया कि वह भारत को घेरने के लिए नये गठजोड़ बनाने को तैयार है. पाकिस्तान के जरिये ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में चीन के हथियारों के परीक्षण की यादें अभी ताजा हैं. पूर्व और पश्चिम, दोनों मोर्चों पर दबाव बनाकर भारत को घेरने की दीर्घकालिक योजना पर चीन काम कर सकता है. वह अपनी आर्थिक ताकत को अपना हथियार बना सकता है और दुर्लभ खनिजों व दवाओं के लिए जरूरी एपीआइ के निर्यात को रोक सकता है. इससे भारत की इलेक्ट्रिक वाहन नीति और दवा उद्योग पर सीधा असर पड़ेगा. इसके साथ ही, चीन तिब्बत से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध निर्माण का काम तेज कर सकता है या जल प्रवाह को मोड़ सकता है, जिससे पूर्वोत्तर भारत में कृषि और जनजीवन के प्रभावित होने की आशंका रहेगी.
सबसे गंभीर बात यह है कि वैसी स्थिति में सीमा फिर से तनाव का केंद्र बन सकती है. वर्ष 2020 की गलवान घाटी की झड़प से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि नियंत्रण रेखा कितनी तेजी से हिंसक हो सकती है. बौखलाया बीजिंग अरुणाचल प्रदेश या फिर लद्दाख जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में नयी घुसपैठ कर सकता है. इसके अलावा, चीन पूर्वोत्तर भारत में 1960-70 के दशक की तरह उग्रवाद को फिर से हवा दे सकता है, जिससे सुरक्षा बलों पर अतिरिक्त दबाव बनेगा. जाहिर है, चीन के आक्रामक रवैये को देखते हुए भारत के लिए निर्वासित तिब्बती समुदाय और दलाई लामा एक दोधारी तलवार हैं. दरअसल, दलाई लामा की मौजूदगी से चीन को हमेशा इस बात का संदेह रहता है कि भारत तिब्बत में अस्थिरता पैदा कर रहा है. जाहिर है, तिब्बती शरणार्थियों के भारत में रहने तक चीन सीमा पर दबाव बनाये रखेगा. यह मुद्दा तय करेगा कि हिमालयी क्षेत्र में भारत कितनी मजबूती से खड़ा रह सकता है. यह तो तय है कि चीन अपनी रणनीति नहीं बदलेगा. वह दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थियों को अलगाववादी मानता ही रहेगा. चीन को इस बात का डर है कि अगर दलाई लामा को ‘बातचीत’ के नाम पर तिब्बत लौटने दिया गया, तो वहां नयी मांगें उठेंगी और उसका नियंत्रण कमजोर होगा.
नयी दिल्ली के लिए असली सवाल यह नहीं है कि दलाई लामा को अपने उत्तराधिकारी को चुनने का अधिकार मिलना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि क्या भारत उनके समर्थन की कीमत चुकाने के लिए तैयार है. अगले दलाई लामा, वह चाहे जहां भी जन्म लें, यह तय करेंगे कि भारत और चीन एक आध्यात्मिक परंपरा के बहाने एक-दूसरे को कितनी दूर तक चुनौती देंगे. पश्चिमी देश दलाई लामा की स्वतंत्रता का समर्थन तो करेंगे, लेकिन चीन से अपने रिश्ते बिगाड़ने से बचेंगे. इसका नतीजा यह होगा कि भारत को चीन की प्रतिक्रिया का सामना अकेले ही करना पड़ेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)