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परिसीमन से बहुत कुछ बदल जायेगा, पढ़ें नीरजा चौधरी का लेख

Caste Census : केंद्र सरकार ने इस बार जाति जनगणना का फैसला क्यों लिया? सच तो यह है कि भाजपा पहले जाति जनगणना के पक्ष में नहीं थी, जबकि विपक्ष जाति जनगणना की बात कर रहा था. कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण को मंजूरी कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने 2015 में दी थी.

Caste Census : केंद्र सरकार ने जनगणना की अधिसूचना जारी कर दी है, जो 2027 में होनी है. जनगणना यानी आबादी की गिनती का काम तो 2021 में ही हो जाना चाहिए था, लेकिन कोरोना के कारण जनगणना का काम रुका, तो फिर वह टलता ही चला गया, जबकि सरकार के कल्याणकारी कामकाज और सामाजिक न्याय के लिए समय पर जनगणना जरूरी है, जिससे कि देश की आबादी में विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी का सही आंकड़ा सामने हो. जनगणना सिर्फ देर से ही नहीं हो रही है, इस बार होने वाली जनगणना कई कारणों से अलग भी है. पहला कारण यह है कि इस बार की जनगणना में जाति जनगणना का काम भी होना है. देश में जाति जनगणना आखिरी बार 1931 में हुई थी. हालांकि 2011 की जनगणना में सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित आंकड़े एकत्र किये गये थे, लेकिन उन आंकड़ों में त्रुटियां होने के कारण उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया था.


केंद्र सरकार ने इस बार जाति जनगणना का फैसला क्यों लिया? सच तो यह है कि भाजपा पहले जाति जनगणना के पक्ष में नहीं थी, जबकि विपक्ष जाति जनगणना की बात कर रहा था. कर्नाटक में जाति सर्वेक्षण को मंजूरी कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने 2015 में दी थी. हालांकि दबावों के चलते उसकी रिपोर्ट ही सार्वजनिक नहीं की गयी. अब कर्नाटक सरकार ने दोबारा जाति सर्वेक्षण कराने का निर्णय लिया है. बिहार में जब जातिगत सर्वेक्षण कराया गया था, तब नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन का हिस्सा थे. बिहार के जाति सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि राज्य की आबादी में ओबीसी और इबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) की हिस्सेदारी 63.13 प्रतिशत है. ऐसे ही, तेलंगाना के जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछड़े वर्ग का आबादी कुल जनसंख्या का 56.33 प्रतिशत है. हालांकि बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) और भाजपा का आरोप है कि राज्य के जाति सर्वेक्षण में पिछड़ों की आबादी जानबूझकर कम बतायी गयी है. यानी तीन में से दो राज्यों में जाति सर्वेक्षण विवाद का भी कारण बना है.

जाति भाजपा अगर जाति जनगणना के पक्ष में राजी हुई है, तो उसका एक उद्देश्य चुनावी लाभ भी है. सामान्य धारणा है कि देश में ओबीसी की आबादी बढ़ी है. जनगणना के जरिये ओबीसी की आबादी में वृद्धि के आंकड़े सामने आयेंगे, तो मोदी सरकार ओबीसी के हितों में कदम उठायेगी. भाजपा ब्राह्मण और बनियों की पार्टी वाली अपनी छवि को बहुत पहले ही पीछे छोड़ आयी है और प्रधानमंत्री खुद को ओबीसी पहचान से जोड़ते हैं. जाति जनगणना के लिए राजी होने का यह भी एक कारण है.


इस बार की जनगणना में परिसीमन का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है. इसके 2026 में होने की बात है. परिसीमन निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने की प्रक्रिया है. संविधान के अनुसार, प्रत्येक जनगणना के बाद संसद और विधानसभाओं की सीटों की संख्या को पुन: समायोजित किया जाना चाहिए. देश में परिसीमन चार बार-1952, 1963, 1973 और 2002 में हुआ. वर्ष 1971 की जनगणना के बाद 1976 में परिसीमन होना था, पर इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में संशोधन कर उसे पच्चीस साल के लिए इसलिए टाल दिया कि परिवार नियोजन की नीतियों को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले राज्यों को प्रतिनिधित्व के मोर्चे पर नुकसान न हो.

वर्ष 2001 में जनगणना के साथ निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं नये सिरे से तय की गयीं, लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध की वजह से सीटों की संख्या में बदलाव नहीं किया गया. तब परिसीमन को फिर 25 साल के लिए टाल दिया गया था. इस हिसाब से परिसीमन 2026 में होने वाला है और केंद्र की मोदी सरकार इसे लागू करने के पक्ष में है. चूंकि परिसीमन के तहत अधिक आबादी वाले राज्यों में लोकसभा की सीटें बढ़ाये जाने का प्रावधान है, ऐसे में, अधिक जनसंख्या वाले राज्यों, जैसे-उत्तर प्रदेश, बिहार आदि को इसका लाभ मिलेगा. इससे उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों की संख्या 80 से बढ़ कर 128 और बिहार में 40 से बढ़ कर 70 हो सकती है.

लोकसभा की कुल सीटें बढ़ कर 800 के आसपास जा सकती हैं, लेकिन दक्षिण के जिन राज्यों ने दशकों से आबादी नियंत्रण पर काम किया है, उन्हें परिसीमन से बहुत लाभ होने वाला नहीं है. चूंकि दक्षिण भारत में भाजपा राजनीतिक रूप से उतनी मजबूत नहीं है, ऐसे में, परिसीमन के बाद भाजपा को चुनावी जीत के लिए शायद दक्षिण भारत पर निर्भर भी न रहना पड़े. परिसीमन के प्रति मोदी सरकार की अनुकूलता का यह एक कारण माना जा रहा है. हालांकि दक्षिण के राज्यों में इसे लेकर भारी असंतोष है और वे इसे टालने का अनुरोध कर चुके हैं. यही नहीं, जनसंख्या नियंत्रण के नुकसान को देखते हुए दक्षिण के कई राजनेता अब आबादी बढ़ाने की भी अपील कर रहे हैं. जाहिर है कि परिसीमन पहले से ही व्याप्त उत्तर और दक्षिण भारत के द्वंद्व को और गहरा करेगा. संविधान निर्माताओं ने शायद ही इस बात की कल्पना की होगी कि भविष्य में परिसीमन को लेकर भी विवाद होगा और यह देश में विभाजन का कारण बन सकता है.


परिसीमन के साथ महिला आरक्षण बिल का लागू होना भी जुड़ा हुआ है. वर्ष 2023 में यह विधेयक (नारी शक्ति वंदन अधिनियम) संसद के दोनों सदनों से पारित तो हो गया, लेकिन सरकार के मुताबिक, परिसीमन के बाद ही इसे लागू किया जायेगा. यानी महिला आरक्षण भविष्य में बढ़ायी जाने वाली सीटों पर तय होगा, जबकि विपक्ष महिला आरक्षण का लाभ भविष्य में देने की आलोचना कर रहा है. दरअसल, जनगणना से संबंधित अंतिम आंकड़े आने के बाद परिसीमन का काम शुरू होगा.

परिसीमन आयोग को भी अपनी फाइनल रिपोर्ट देने में कम-से-कम तीन से चार साल का समय लगता ही है. पिछले परिसीमन आयोग ने पांच साल में अपनी रिपोर्ट दी थी. इसके अलावा जनसंख्या की दर में बदलाव को देखते हुए अगला परिसीमन बहुत विवादित हो, तो भी आश्चर्य नहीं. ऐसे में, परिसीमन और महिला आरक्षण अगले लोकसभा चुनाव-यानी 2029 तक शायद ही संभव दिखता है. इसमें अधिक समय लगेगा. महिला आरक्षण बेशक रोटेशनल होगा, पर वह भी भविष्य में लैंगिक विवाद का मुद्दा बने, तो हैरत नहीं, बल्कि जाति जनगणना, परिसीमन तथा महिला आरक्षण, तीनों भविष्य में राजनीतिक विवाद की वजह बन सकते हैं और भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदल देने वाले साबित हो सकते हैं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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