Shibu Soren : समाज सुधारक, जननेता और दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जाना भारतीय राजनीति के एक गौरवशाली और संघर्षशील युग का अंत है. उन्होंने आदिवासियों के हक के लिए जितनी लंबी और कठिन लड़ाई लड़ी, आधुनिक दौर में उसकी मिसाल कम ही मिलती है. दशकों लंबी उस लड़ाई में पहाड़ों, घाटियों और जंगलों में बार-बार मृत्यु को मात देने वाले शिबू सोरेन पिछले करीब दो महीने से अस्पताल में अपने जीवन की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे थे.
उनके निधन ने समकालीन राजनीति में वंचितों के हितों के बड़े पैरोकार को हमसे छीन लिया है. सूदखोर महाजनों द्वारा पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ कर आदिवासियों को एकजुट करने का अभियान शुरू किया था, जिसके तहत वह उन्हें शिक्षा के प्रति जागरूक करने और नशे से दूर रहने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते थे. महाजनों के खिलाफ उन्होंने जिस धनकटनी आंदोलन की शुरुआत की थी, उसकी स्मृति आज भी रोमांचित कर देती है.
उस दौरान मांदर की थाप पर मुनादी की जाती, महिलाएं हंसिया लेकर आतीं और जमींदारों के खेतों से फसल काट लेतीं. जबकि तीर-कमान से लैस दूसरे आदिवासी युवा उनकी सुरक्षा करते. बाद के दिनों में यह तीर-कमान शिबू सोरेन की राजनीतिक पहचान ही बन गयी. बिरसा मुंडा की क्रांति अंग्रेजों की निरंकुश सत्ता से थी, तो शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज के शोषण, महाजनी प्रथा और सूदखोरी के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने स्वतंत्र झारखंड राज्य के लिए आंदोलन शुरू किया था.
झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन एक ऐतिहसिक कदम था, जिसका उद्देश्य बिहार के जंगल और आदिवासी इलाकों को मिलाकर अलग झारखंड राज्य बनाना था. एक सामाजिक कार्यकर्ता से वह राजनीति के शीर्ष पर पहुंचे. झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, विधायक, मुख्यमंत्री, सांसद और केंद्रीय मंत्री तक उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का जिस कुशलतापूर्वक निर्वहन किया, वह अतुलनीय था. लगभग चार दशक तक फैले अपने राजनीतिक जीवन में वह लोकसभा के भी सदस्य रहे और राज्यसभा के भी. वह तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे. आदिवासियों और गरीबों के सशक्तिकरण के लिए पूरी तरह समर्पित शिबू सोरेन आदिवासियों के प्रिय और सम्मानित नेता थे. यह विडंबना ही है कि झारखंड के गठन के गौरवशाली पच्चीस साल पूरे होने के कुछ महीने पहले ही दिवंगत हो गये, लेकिन उनके आदर्श और विचार आने वाले समय में भी लोगों को प्रेरित करते रहेंगे.