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हिमालयी राज्यों में मानसून से तबाही, पढ़ें डॉ अनिल प्रकाश जोशी का खास लेख

Himachal Pradesh Flood : बादल फटने से सबसे अधिक तबाही मंडी जिले में हुई है. भारी बारिश के बाद ब्यास नदी का पानी उफान पर है. नदी का पानी मंडी शहर में घुस गया. बिजली व्यवस्था भी बुरी तरह चरमरा गयी. अनेक ट्रांसफार्मर बंद हो गये और बीस नदियों को खतरे की श्रेणी में माना गया.

Himachal Pradesh Flood : पिछले चार-पांच वर्षों से हिमाचल प्रदेश मानसून या बिना मानसून के फ्लैश फ्लड से बुरी तरह प्रभावित रहा है. वर्ष 2023 में हिमाचल प्रदेश ने भयंकर फ्लैश फ्लड के चलते बड़ा नुकसान उठाया था. पिछले वर्ष भी राज्य के कुछ हिस्सों में यही हालात बने, और इस वर्ष भी करीब 10 जिलों को खतरे की स्थिति में माना गया है. पहाड़ों ने पहले कभी येलो या रेड अलर्ट नहीं देखे थे, न ही समझे थे, लेकिन अब वहां रेड अलर्ट की स्थिति आम हो गयी है. यह हमारे भविष्य के लिए एक चेतावनी है, जिस पर अभी से विचार करना होगा. हिमाचल के कई हिस्सों में इस बार के फ्लैश फ्लड ने जो तबाही मचायी, वह बेहद चिंताजनक है. इसके अलावा, भूस्खलन की भी घटनाएं हुई हैं. जिससे अनेक लोगों की जान चली गयी, बहुतेरे लोग घायल हुए, जबकि कुछ लोग लापता हैं. राज्य की अनेक सड़कें पूरी तरह बंद हो गयीं, जिनमें सिरमौर, मंडी और कुल्लू जिला सबसे अधिक प्रभावित हुआ.


बादल फटने से सबसे अधिक तबाही मंडी जिले में हुई है. भारी बारिश के बाद ब्यास नदी का पानी उफान पर है. नदी का पानी मंडी शहर में घुस गया. बिजली व्यवस्था भी बुरी तरह चरमरा गयी. अनेक ट्रांसफार्मर बंद हो गये और बीस नदियों को खतरे की श्रेणी में माना गया. पशुधन का भी नुकसान हुआ है. घरों और बहुमंजिला इमारतों के अलावा कई जगह गौशालाओं को नुकसान पहुंचा है. पुल और पनबिजली परियोजना को नुकसान पहुंचने के अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग भी बाधित है. शासन-प्रशासन की हालत इतनी बिगड़ गयी कि सबकी नींद उड़ी हुई है. अधिकारियों ने बढ़ते जलस्तर पर भी चिंता जतायी है. एनडीआरएफ और एसडीआरएफ ने प्रभावित क्षेत्रों में टीमें तैनात की हैं. हिमाचल में बादल फटने की घटनाओं ने 2023 की त्रासदी की याद दिला दी है. उस साल मानसून की आपदा से राज्य में पांच सौ से ज्यादा लोग मारे गये थे, अनेक लोग लापता हो गये थे और नुकसान करीब 10,000 करोड़ का आंका गया था. हिमाचल के मुख्यमंत्री के मुताबिक, इस बार बादल फटने से शुरुआती तौर पर पांच सौ करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. यही स्थिति उत्तराखंड में भी देखी जा सकती है, हालांकि वहां हिमाचल की तुलना में नुकसान थोड़ा कम रहा है. फिर भी उत्तराखंड के नौ जिलों को येलो अलर्ट में रखा गया है. प्रशासन ने यात्रा और पर्यटकों पर खास निगरानी रखी हुई है और लगातार चेतावनी जारी की है.


हिमाचल प्रदेश ने 55 साल पहले राज्य के रूप में अपनी यात्रा शुरू की और इसे बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन मैदानी विकास मॉडल वहां भी लागू कर दिया गया. नतीजा यह हुआ कि आज एक ही मानसून के फ्लैश फ्लड से सड़कें ध्वस्त हो गयीं. कई बहुमंजिला इमारतें ढहनी शुरू हो चुकी हैं. राज्य के शिमला, कुल्लू, मनाली जैसे क्षेत्रों में बहुमंजिला इमारतों की भरमार है, लेकिन यह नहीं सोचा गया कि ये भविष्य में खतरनाक साबित हो सकती हैं. इस तरह के विकास पर दो बड़े खतरे हमेशा मंडराते हैं- एक फ्लैश फ्लड का, और दूसरा भूकंप का. उत्तराखंड में फिर भी अपेक्षाकृत सीमित विकास हुआ है, और पिछले अनुभवों से कुछ सीखने की कोशिश की गयी है. लेकिन बदलते हालात में इसे भी पर्याप्त नहीं माना जा सकता. पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में कई बार फ्लैश फ्लड, हल्के भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाएं देखी गयी हैं. अगर इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार हम अब भी सचेत नहीं हुए, तो आने वाला समय और भी खतरनाक हो सकता है.


अगर पूरे हिमालयी राज्यों पर नजर डालें, तो हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर जैसे पुराने राज्यों ने विकास के नाम पर ढांचागत बदलाव में कोई कमी नहीं छोड़ी. यह सब कुछ हिमाचल प्रदेश में ज्यादा रहा. लेकिन इस विकास में हिमालय की संवेदनशीलता की अनदेखी कर दी गयी. यह बात स्वीकारनी ही होगी कि जिस तरह का विकास मैदानी क्षेत्रों में किया जा सकता है, वह पहाड़ों के लिए उपयुक्त नहीं है. मकानों, होटलों और रोजगार से जुड़े ढांचागत निर्माण- इन सभी में अलग दृष्टिकोण होना चाहिए था, जिसे नहीं अपनाया गया. आइपीसीसी पिछले एक दशक से लगातार यही संकेत दे रहा है कि दुनिया में प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के व्यवहार अब हमारे नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं. यह एक सच्चाई भी है, क्योंकि जिस तरह दुनिया तेजी से बदल रही है, हम यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि किस मौसम में हैं. ये अप्रत्याशित परिवर्तन केवल इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि हमने स्वयं ही प्राकृतिक परिस्थितियों को बदल दिया है. इसका मुख्य कारण यह है कि अपनी आवश्यकताओं और विलासिता के चलते हमने यह नहीं सोचा कि प्रकृति इसे किस रूप में लेगी. आज हमारे चारों तरफ जो कुछ भी हो रहा है, वही उसका दुष्परिणाम है.

आइपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया था कि इस बदलती पारिस्थितिकी और पर्यावरण का सबसे गहरा असर हिमालय या फिर ध्रुवीय क्षेत्रों- अंटार्कटिका और आर्कटिक- पर पड़ेगा. और वास्तव में ऐसा हो भी रहा है. अगर हम अपने देश में हिमालय की स्थिति देखें, तो इस बदलते तापक्रम के परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा नुकसान हिमालय को ही उठाना पड़ रहा है. यह कैसी विडंबना है कि वही हिमालय, जो देश-दुनिया को हवा, मिट्टी, पानी और जंगल देता है, आज खुद संकट में है. यह समस्या केवल हिमालय के लोगों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि आने वाले समय में पूरे देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा.
यह बिल्कुल सच है कि ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज के लिए हिमालय दोषी नहीं है.

दरअसल, दुनिया में शहरीकरण और ऊर्जा की खपत ने जिस तरह वैश्विक तापमान को बढ़ाया है, उसका सबसे बड़ा असर हिमालय पर ही पड़ रहा है. मानसून अब हिमालय में खुशी नहीं, बल्कि भय लेकर आता है. बारिश का मतलब यहां जीवन का डर बन गया है. इसलिए सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि हिमालय के ढांचागत विकास पर तुरंत गंभीर बहस हो, ताकि नीतियों के दायरे में रहते हुए हिमालय और इससे जुड़े राज्यों का न्यायसंगत और टिकाऊ विकास सुनिश्चित किया जा सके. हिमालय को मात्र वहां के निवासियों के लिए सुरक्षित नहीं रखना है, बल्कि बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और देश की 60 प्रतिशत आबादी की जान इसी से जुड़ी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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