PM Modi visit to Cyprus : दिल्ली में केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कदमों को देखिए, हर बार वे चौंकाते रहे हैं. ऑपरेशन सिंदूर के बाद जब समूचा विपक्ष भारत सरकार की विदेश नीति की विफलता को लेकर मोदी सरकार को निशाना बना रहा था, प्रधानमंत्री ने साइप्रस की यात्रा कर देश को चौंका दिया है. भूमध्य सागर के द्वीपीय देश साइप्रस की यात्रा की अचानक से घोषणा होना और कनाडा जाते हुए रास्ते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साइप्रस उतरना और वहां के शीर्ष नेताओं से मिलना, भारतीय विदेश नीति का चौंकाने वाला निर्णय ही है. देश के शीर्ष नेताओं की विदेश यात्राएं अरसा पहले से तय होती हैं, जिसकी जानकारी राजनीति के साथ ही पत्रकारिता जगत को भी होती है, परंतु प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा अचानक से हुई है.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा का 14 मई को अचानक एलान किया. साइप्रस की राजधानी निकोसिया में प्रधानमंत्री मोदी ने वहां के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडौलाइड्स से बातचीत भी की.
ऐसे में प्रश्न उठ सकता है कि साइप्रस की अचानक यात्रा क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हुई घटनाओं की ओर लौटना होगा. उस दौरान पाकिस्तान ने भारत पर जिस ड्रोन के जरिये सैकड़ों हमले किये थे, उनमें ज्यादातर तुर्किये में बने सोनगार ड्रोन थे. कूटनीतिक हलकों को पता है कि तुर्किये के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन ने पाकिस्तान को वे ड्रोन उपलब्ध कराये थे. इतना ही नहीं, भारत ने जब इस बात को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने रखा, तो एर्दोगन ने ट्विटर पर ‘पाकिस्तान-तुर्किये दोस्ती जिंदाबाद’ लिखकर भारत के आरोप को सच साबित कर दिया.
यह उस तुर्किये का कदम था, जिसे भारत ने दो साल पहले दिल खोलकर मानवीय आधार पर सहयोग दिया था. छह फरवरी 2023 को तुर्किये में 7.8 तीव्रता का भूकंप आया था, उसके बाद भारत ने मानवीय सहायता के साथ ही विशेषज्ञों की टीम के साथ बचाव दल भेजा था. तुर्किये के इस कदम को भारत के लोगों ने भारत को मुंह चिढ़ाना माना. रही-सही कसर पूरी हुई मई के अंत में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की तुर्किये यात्रा से. ऐसा नहीं है कि तुर्किये ने पहली बार भारत के विरुद्ध पाकिस्तान का साथ दिया है. संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एर्दोगन पाकिस्तान की सहयोगी भूमिका में नजर आते रहे हैं. इस कारण तुर्किये को लेकर भारत में गुस्सा भी बहुत रहा है. कश्मीर के मसले पर भी तुर्किये हर बार पाकिस्तान के साथ ही खड़ा रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी का साइप्रस दौरा भारत के उसी गुस्से की अभिव्यक्ति और भारत को मुंह चिढ़ाने के एर्दोगन के प्रयासों का जवाब माना जा सकता है. इसकी वजह साइप्रस और तुर्किये के बीच जारी बरसों पुराना विवाद भी है. साइप्रस में यूनानी और तुर्किये मूल के लोग रहते हैं. दोनों समुदायों में नस्लीय आधार पर विवाद रहा है. साइप्रस में 1974 में तत्कालीन सरकार के विरुद्ध यूनानी मूल के आतंकी समूहों ने तख्तापलट की कोशिश की. इसे तुर्किये ने अपने लोगों के खिलाफ युद्ध माना. इसके बाद उसने साइप्रस पर हमला कर दिया. इस दौरान तुर्किये की सेनाओं ने साइप्रस के मशहूर शहर वरोशा पर कब्जा कर लिया. इसके बाद से एक तरह से यह द्वीपीय देश दो हिस्सों में बंट गया है. साइप्रस यूरोपीय संघ का भी सदस्य है और अगले वर्ष वह संघ का अध्यक्ष बनने जा रहा है. भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत चल रही है. भारत को उम्मीद है कि साइप्रस के अध्यक्ष रहते यूरोपीय संघ और भारत के बीच मुक्त व्यापार समझौता हो जायेगा. साइप्रस कई मौकों पर भारत की संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की दावेदारी का समर्थन कर चुका है.
मोदी ने साइप्रस जाकर दो संदेश दिये हैं. पहला संदेश तुर्किये के लिए है. भारत ने जता दिया है कि वह साइप्रस को सहयोग देगा और साइप्रस से सहयोग लेगा. साथ ही, जरूरत पड़ने पर भारत तुर्किये के खिलाफ कड़े कदम भी उठा सकता है. दूसरा संदेश भारतीयों के लिए है. पहले भारत से बहुत सारे सैलानी तुर्किये जाते थे, पर अब वे साइप्रस जायेंगे. मोदी की कोशिश साइप्रस को बढ़ा कर तुर्किये को आर्थिक चोट पहुंचाना है. प्रधानमंत्री ने अपनी इस यात्रा से तुर्किये को भी चौंकाया है. राष्ट्रपति एर्दोगन ने 2021 में कहा था कि साइप्रस की जिम्मेदारी तुर्किये की है. हालांकि एर्दोगन के कदम का इस्राइल कड़ा विरोध करता है. वह साइप्रस की मौजूदा सरकार के साथ मजबूती से खड़ा है. भारतीय प्रधानमंत्री की साइप्रस यात्रा के बाद इस्राइल, भारत और साइप्रस संबंधों को भी गति मिलने की संभावना है. दुनिया, विशेषकर यूरोप इन दिनों चीन के ‘वन बेल्ट-वन रोड’ के जवाब में मध्य पूर्व के देशों के साथ मिलकर ‘इंडिया-मिडिल इस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर’ यानी आइएमइसी पर काम कर रहा है. भारत की साइप्रस यात्रा इस कॉरिडोर में भारत की संभावनाओं की भी खोज करती है. यह यात्रा तुर्की को जवाब भी है और भारत की यूरोपीय संघ से सीधे कारोबारी संपर्क की कोशिश भी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)