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भारत-चीन संबंधों में नयी संभावना

रूस के शहर कजान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद दोनों देशों ने इस बात पर सहमति जतायी कि एक-दूसरे के विकास को खतरे की बजाय अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. इसके बाद भारत में चीन के नये राजदूत शू फेइहोंग ने भी दोनों देशों के बीच व्यापारिक सहयोग बढ़ाने की इच्छा जतायी है. उन्होंने चीन के बाजार में भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के लिए और अधिक स्थान खोलने की बात तो कही ही है, साथ ही साथ भारत से चीनी कंपनियों के लिए निष्पक्ष कारोबारी माहौल की मांग भी की है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की दूसरी बार सत्ता में वापसी ने वैश्विक भू-राजनीति को एक बार फिर से अस्थिरता की स्थिति में ला दिया है. अपनी अनोखी विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार दृष्टिकोण के लिए मशहूर ट्रंप दूसरी बार भी एक आक्रामक व्यापार नीति के साथ लौटे हैं. उनके इस आक्रामक रुख से न केवल अमेरिका और चीन के संबंध प्रभावित हो सकते हैं, बल्कि भारत और चीन के संबंधों पर भी इसका असर पड़ने की बात कही जा रही है. अपने पहले राष्ट्रपति काल में भी ट्रंप ने चीन के खिलाफ आक्रामक व्यापार रणनीति अपनायी थी. ट्रंप दरअसल लंबे समय से अमेरिका की घरेलू अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की बात करते आये हैं. उनका यह मानना है कि अगर अमेरिका में विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) लौटता है, तो उससे वहां के नागरिकों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, जिसके फलस्वरूप अमेरिका की आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी. इसी सोच के तहत उन्होंने कई देशों पर भारी टैरिफ (शुल्क) लगाये हैं, जिसे पारस्परिक शुल्क बताया जा रहा है. हालांकि पारस्परिक शुल्क थोपे गये ज्यादातर देशों को अमेरिकी राष्ट्रपति ने 90 दिनों की छूट दी है, पर चीन को ऐसी कोई छूट नहीं दी. इसके बजाय उस पर उन्होंने सीधे 245 प्रतिशत का भारी-भरकम टैरिफ लगा दिया है.

ट्रंप की इस आक्रामक टैरिफ नीति का प्रतिकूल असर, जाहिर है, केवल अमेरिका और चीन तक सीमित नहीं है. यह वैश्विक आपूर्ति शृंखला और व्यापार समीकरण को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रतिकूल स्थिति के कारण भारत और चीन के बीच नये आर्थिक समीकरण बन सकते हैं? भारत और चीन के संबंध लंबे समय से जटिल और असहज रहे हैं. वास्तविकता यह है कि सीमा विवाद, सामरिक प्रतिस्पर्धा और ऐतिहासिक अविश्वास ने दोनों देशों के रिश्तों को हमेशा ही संदिग्ध और तनावपूर्ण बनाये रखा है. वर्ष 2020 की गलवान घाटी में हुई झड़प इसका स्पष्ट उदाहरण थी, जब दोनों पक्षों के सैनिक मारे गये थे. लेकिन इन तमाम तनावों के बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध लगातार बढ़ते रहे हैं. यह अलग बात है कि यह संबंध चीन के पक्ष में झुका हुआ है. यानी दोतरफा व्यापार में चीन लाभ की स्थिति में है, जबकि भारत व्यापार घाटे का सामना करता है. लेकिन बीते एक दशक में भारत ने अपनी आर्थिक नीति में अहम बदलाव किया है. उदाहरण के लिए, सेवा क्षेत्र पर केंद्रित भारतीय अर्थव्यवस्था अब विनिर्माण क्षेत्र में भी अपना स्थान बनाना चाहती है. ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अभियानों से मोबाइल निर्माण क्षेत्र में भारत को कुछ सफलता जरूर मिली है, लेकिन उन्नत तकनीकी क्षेत्रों में देश अब भी पिछड़ा हुआ ही है.

विडंबना यह है कि इन क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए भारत को चीन की ही मदद की आवश्यकता है- चाहे वह मशीनरी का क्षेत्र हो या फिर कुशल श्रमिक का. लेकिन वैश्विक विनिर्माण का केंद्र बना हुआ चीन कतई नहीं चाहता कि यह स्थिति बदले. इसलिए वह भारत के खिलाफ निर्यात नियंत्रण जैसे उपाय अपना रहा है, जिससे उन्नत मशीनें और तकनीकी विशेषज्ञ आसानी से भारत में नहीं पहुंच पा रहे हैं. इन चुनौतियों के बावजूद, हाल के घटनाक्रम यह संकेत दे रहे हैं कि भारत और चीन के बीच आर्थिक सहयोग के कुछ नये रास्ते खुल सकते हैं. यह स्पष्ट है कि ट्रंप की टैरिफ नीति के चलते उत्पन्न वैश्विक अनिश्चितता ने दोनों देशों को एक-दूसरे के साथ फिर से बातचीत करने के लिए प्रेरित किया है. दरअसल रूस के शहर कजान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद दोनों देशों ने इस बात पर सहमति जतायी कि एक-दूसरे के विकास को खतरे की बजाय अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. इसके बाद भारत में चीन के नये राजदूत शू फेइहोंग ने भी दोनों देशों के बीच व्यापारिक सहयोग बढ़ाने की इच्छा जतायी है. उन्होंने चीन के बाजार में भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के लिए और अधिक स्थान खोलने की बात तो कही ही है, साथ ही साथ भारत से चीनी कंपनियों के लिए निष्पक्ष कारोबारी माहौल की मांग भी की है. हालांकि चीन की नीतियां कई बार बेहद अप्रत्याशित रही हैं. इसके बावजूद यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि दोनों देशों का शीर्ष नेतृत्व इस विषय पर संवाद कर रहा है. ट्रंप का टैरिफ युद्ध एक तरह से बड़ा जोखिम है. अमेरिकी राष्ट्रपति एक ओर तो यह दावा करते हैं कि वह चीन के साथ ‘एक शानदार समझौता’ कर सकते हैं, लेकिन अगर कहीं समझौता नहीं हुआ, तो फिर वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में बदलाव आना तय है. वैसी स्थिति में भारत जैसे देशों को फायदा हो सकता है, क्योंकि ये देश चीन से हटे हुए विनिर्माण निवेश को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं.

यह अलग बात है कि भारत को इस अवसर का लाभ उठाने के लिए अपनी आंतरिक चुनौतियों को दूर करना होगा. इस संदर्भ में बुनियादी ढांचे के अभाव, जटिल नियामक प्रक्रियाओं और प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी जैसे मुद्दों को सुलझाना बहुत आवश्यक है. इसके अतिरिक्त, भारत को अमेरिका और चीन, दोनों के ही साथ संतुलन बनाकर रखना होगा, ताकि वह किसी एक धड़े की तरफ झुकता हुआ न दिखाई पड़े. आज की वैश्विक आर्थिक स्थिति अत्यंत अनिश्चित है. अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, बढ़ते शुल्क, बदलते सामरिक समीकरण और आंतरिक राजनीतिक बदलावों के चलते पूरी दुनिया में अस्थिरता का माहौल है. ऐसे में भारत के लिए सबसे जरूरी यह है कि वह सावधानीपूर्वक, संतुलित और दूरदर्शी नीति अपनाये. डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ वार से भारत और चीन के संबंधों में कोई बड़ा परिवर्तन अभी तो नहीं दिखाई देता, लेकिन इससे आपसी बातचीत और सहयोग के लिए एक नया अवसर निश्चय ही बना है. हालांकि यह देखना अभी बाकी है कि यह अवसर दोनों देशों के बीच स्थायी मेलजोल में बदलेगा या फिर केवल रणनीतिक मजबूरी के तहत एक अस्थायी ठहराव ही साबित होगा. फिलहाल भारत के लिए सबसे उपयुक्त नीति यह होगी कि वह अमेरिका और चीन, दोनों के साथ सकारात्मक रूप से जुड़ा रहे, वैश्विक स्थिति के स्थिर होने की प्रतीक्षा करे, और इस बीच अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में पूरी ताकत लगाये. अगर भारत ऐसा करता है, तो वह न केवल मौजूदा अनिश्चितता से सुरक्षित रह पायेगा, बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी भूमिका और प्रभाव को भी अधिक मजबूत कर सकेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

आनंद कुमार
आनंद कुमार
डॉ. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (MP-IDSA) में एसोसिएट फेलो हैं। डॉ. कुमार अब तक चार पुस्तकें लिख चुके हैं और दो संपादित ग्रंथों का संपादन कर चुके हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक Strategic Rebalancing: China and US Engagement with South Asia है।

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