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चिनाब पर बांध से पाकिस्तान को संदेश, पढ़ें आनंद कुमार का लेख

.Dam on Chenab : सावलकोट परियोजना 1960 के दशक में प्रस्तावित की गयी थी, पर कई दशकों तक यह नौकरशाही की जटिलताओं, पर्यावरणीय चिंताओं और सबसे अधिक, सिंधु जल संधि द्वारा लगाये गये कानूनी प्रतिबंधों के कारण ठप पड़ी रही.

Dam on Chenab भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर वर्षों से रुकी पड़ी सावलकोट जलविद्युत परियोजना को पुनर्जीवित कर दिया है. यह 1,856 मेगावाट की परियोजना केंद्र शासित प्रदेश की सबसे बड़ी जलविद्युत योजना होगी. यह केवल एक बुनियादी ढांचे की पहल नहीं, बल्कि भारत की विदेश नीति, सुरक्षा रणनीति और जल कूटनीति में एक सुनियोजित बदलाव का संकेत है, विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि को निलंबित किये जाने के बाद. इस फैसले का समय भी बहुत महत्वपूर्ण है. पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया. इसका मुख्य कारण पाकिस्तान द्वारा सीमापार आतंकवाद को समर्थन देना है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संसद में कहा था, ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते’. यह वाक्य भारत की नयी रणनीतिक सोच को स्पष्ट करता है.


सावलकोट परियोजना 1960 के दशक में प्रस्तावित की गयी थी, पर कई दशकों तक यह नौकरशाही की जटिलताओं, पर्यावरणीय चिंताओं और सबसे अधिक, सिंधु जल संधि द्वारा लगाये गये कानूनी प्रतिबंधों के कारण ठप पड़ी रही. वर्ष 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुई इस संधि के तहत पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों-सिंधु, चिनाब और झेलम-का अधिकार दिया गया, जबकि भारत को पूर्वी नदियों पर अधिकार मिला. भारत को पश्चिमी नदियों का उपयोग केवल ‘गैर-उपभोगीय’ जैसे कि जलविद्युत उत्पादन के लिए करने की अनुमति थी, वह भी सीमित दायरे में. सावलकोट जैसे बड़े पैमाने की परियोजना को कार्यान्वित करने के लिए जटिल अनुमतियां और पूर्व सूचनाएं जरूरी थीं, पर अब स्थिति बदल चुकी है.

एनएचपीसी (नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन) ने 29 जुलाई को इस परियोजना के लिए 200 करोड़ रुपये की अंतरराष्ट्रीय निविदा जारी की, जिसकी समय सीमा 10 सितंबर है. इसे ‘राष्ट्रीय महत्व’ की परियोजना घोषित किया गया है, जिससे अनुमोदन की प्रक्रिया तेज हो जायेगी और नौकरशाही अड़चनें दूर हो सकेंगी. इसके पूर्ण होने पर यह सालाना करीब 8,000 मिलियन यूनिट बिजली उत्पन्न करेगी और क्षेत्रीय ऊर्जा सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देगी. यह परियोजना भारत के उस दावे की पुष्टि भी करती है कि वह अब पश्चिमी नदियों पर अपने अधिकार को मजबूती से लागू करेगा. भारत अब एक ऐसी संधि के अधीन नहीं रहेगा, जिसे वह असंतुलित और पुरानी मानता है तथा जो उसकी विकास गति और रणनीतिक विकल्पों को सीमित करती है.


सिंधु जल संधि का निलंबन एक ऐतिहासिक मोड़ है. पैंसठ वर्षों तक यह संधि दोनों देशों के बीच सहयोग का प्रतीक मानी जाती रही, पर नयी दिल्ली अब इसे कमजोरी का प्रतीक मानती है. गृह मंत्री अमित शाह ने इसे ‘एकतरफा’ संधि करार देते हुए संसद में कहा कि ‘भारतीय किसानों का भी नदी के पानी पर अधिकार है.’ संधि के निलंबन से भारत को अब जल संग्रहण, सिंचाई और बड़े पैमाने पर जलविद्युत परियोजनाओं जैसी गतिविधियों की छूट मिलती है, जो पहले प्रतिबंधित थीं. यह भारत को राष्ट्रीय हितों के अनुरूप एक नयी जल नीति अपनाने की आजादी देता है. इसका असर पाकिस्तान पर सीधा पड़ रहा है. उसकी कृषि, पेयजल और ऊर्जा जरूरतें पूरी तरह सिंधु प्रणाली पर निर्भर हैं. सिंधु जल संधि को निलंबित किये जाने से पाकिस्तान के माराला हेडवर्क्स पर जल प्रवाह में 90 फीसदी तक की गिरावट देखी जा चुकी है, जिससे खरीफ की धान और कपास जैसी जल-आधारित फसलों को गंभीर खतरा उत्पन्न हुआ है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इस कदम को ‘युद्ध की घोषणा’ बताया, हालांकि बाद में उन्होंने बातचीत की अपील की.

भारत का संदेश स्पष्ट है : आतंकवाद का समर्थन करोगे, तो इसकी कीमत सिर्फ कूटनीति में नहीं, खेतों और शहरों में भी चुकानी होगी. भारत सरकार की यह नीति जल, ऊर्जा और विदेश नीति को एकीकृत रूप में देखती है, न कि अलग-अलग क्षेत्रों के रूप में. जल संसाधनों को अब केवल तकनीकी या विकास के मुद्दे के रूप में नहीं, बल्कि रणनीतिक साधन के रूप में देखा जा रहा है. सावलकोट के अलावा पाकल डुल (1,000 मेगावाट), किरु, रतले, किर्थाई-I और II, तथा झेलम की सुरन सहायक नदी पर बनने वाली परनाई परियोजनाओं को पुनर्जीवित किया जा रहा है. ये परियोजनाएं जम्मू-कश्मीर में करीब 10,000 मेगावाट स्वच्छ ऊर्जा उत्पन्न कर सकती हैं. साथ ही, ये पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व दिल्ली के लिए जल सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करेंगी.

हालांकि इन कदमों की आलोचना भी हो रही है. पर्यावरणविदों का कहना है कि सावलकोट बांध के कारण पारिस्थितिकी पर बुरा असर पड़ सकता है और स्थानीय समुदायों का विस्थापन होगा. एक दर्जन से अधिक गांवों को हटाया जायेगा और एक सैन्य ट्रांजिट कैंप को स्थानांतरित करना होगा. इससे पाकिस्तान से तनाव बढ़ने की आशंका भी है. पर इन जोखिमों को वर्षों से भारत द्वारा दिखायी गयी सहनशीलता और आत्मनियंत्रण के साथ संतुलित करना होगा. इस परियोजना का डिजाइन रन-ऑफ-द-रिवर है. यानी इसमें जल संग्रहण या बड़े पैमाने पर मोड़ की आशंका कम है. इसलिए डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों में बाढ़ या सूखे की आशंका न्यूनतम है. इसका उद्देश्य जल को हथियार बनाना नहीं, विकास में बाधा डालने वाले कृत्रिम बंधनों को हटाना है. आज भारत अपनी ‘रेड लाइन्स’ को पुनर्परिभाषित कर रहा है. दशकों तक भारत ने सिंधु जल संधि को अक्षुण्ण बनाये रखा, चाहे युद्ध हुए हों, संघर्ष विराम उल्लंघन हुए हों या आतंकी हमले. अब वह सहनशीलता समाप्त हो गयी है.


सावलकोट सिर्फ एक बांध नहीं है- यह एक संदेश है. यह इस बात की घोषणा है कि भारत अब अपनी सुरक्षा चिंताओं को पुराने समझौतों या कूटनीतिक शिष्टाचार के अधीन नहीं रखेगा. अब आतंकवाद का जवाब सिर्फ सैन्य या सीमा पर कार्रवाई से नहीं, दीर्घकालिक रणनीतिक बदलावों से दिया जायेगा, जो दुश्मन की मूलभूत कमजोरियों को निशाना बनायेंगे. जल और ऊर्जा को अब तकनीकी या विकास के मुद्दे नहीं, बल्कि विदेश नीति के महत्वपूर्ण उपकरणों के रूप में देखा जा रहा है. यह भारत की रणनीतिक सोच में एक परिष्कृत बदलाव को दर्शाता है. सावलकोट परियोजना का पुनरुद्धार व्यावहारिक और प्रतीकात्मक कदम है. यह भूगोल, तकनीकी क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति को एक साथ लाकर पाकिस्तान के साथ संबंधों में नये सिरे से ‘रूल्स ऑफ एंगेजमेंट’ निर्धारित करता है. हाइब्रिड युद्ध के युग में नदियां केवल पानी नहीं, बल्कि मंशा भी बहा सकती हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

आनंद कुमार
आनंद कुमार
डॉ. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (MP-IDSA) में एसोसिएट फेलो हैं। डॉ. कुमार अब तक चार पुस्तकें लिख चुके हैं और दो संपादित ग्रंथों का संपादन कर चुके हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक Strategic Rebalancing: China and US Engagement with South Asia है।

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