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निष्क्रिय डब्ल्यूटीओ से भारत को क्षति

World Trade Organization : सच्चाई यह है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही डब्ल्यूटीओ के पतन की गति तेज हो गयी है और पूरी दुनिया में इसके भविष्य पर चिंता व्यक्त की जा रही है. जो लोग डब्ल्यूटीओ को मानव कल्याण, विकास और सुचारु विश्व व्यापार का प्रतीक मानते थे, वे अब इस पर बहस कर रहे हैं कि डबल्यूटीओ कितनी जल्दी खत्म हो जायेगा.

World Trade Organization : वैश्वीकरण के प्रतीक के रूप में डब्ल्यूटीओ, यानी विश्व व्यापार संगठन का जन्म हुआ. कहा गया कि दुनिया एक गांव की तरह है, इसलिए न केवल वस्तुओं और सेवाओं, बल्कि पूंजी का भी निर्बाध मुक्त प्रवाह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, ताकि सभी देशों के लोगों को सबसे सस्ती वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध करायी जा सके. यह भी कहा गया कि पूंजी का मुक्त प्रवाह और पर्याप्त उपलब्धता विकासशील देशों में भी विकास की संभावनाओं को बेहतर बनायेगी. डब्ल्यूटीओ की खासियत यह थी कि इसके जरिये अंतरराष्ट्रीय व्यापार के संचालन को नियम आधारित बनाया गया. यानी अगर कोई देश डबल्यूटीओ के नियमों के खिलाफ विदेशों से आने वाले सामान पर ज्यादा शुल्क या अवरोध लगा रहा है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है.


हालांकि, भारत जैसे विकासशील देश शुरू से ही डब्ल्यूटीओ के कथित लाभों को लेकर आशंकित थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि वे शुल्क और अन्य प्रकार की बाधाओं के माध्यम से अपने उद्योगों और कृषि को विदेशी देशों से अत्यधिक सब्सिडी वाले कृषि उत्पादों से होने वाली प्रतिस्पर्धा से ठीक से बचा नहीं पायेंगे. डब्ल्यूटीओ के गठन से होने वाले लाभों और उसके कारण वस्तुओं व सेवाओं की निर्बाध आवाजाही को देखते हुए अधिकांश अर्थशास्त्री भले ही नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यापार को वरदान के रूप में बताते रहे. पर वैश्वीकरण के उस दौर में ‘गैट’ के तहत किये गये नये समझौतों से होने वाले नुकसानों का या तो ठीक से अध्ययन नहीं किया गया या उनकी अनदेखी की गयी.

सच्चाई यह है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत से ही डब्ल्यूटीओ के पतन की गति तेज हो गयी है और पूरी दुनिया में इसके भविष्य पर चिंता व्यक्त की जा रही है. जो लोग डब्ल्यूटीओ को मानव कल्याण, विकास और सुचारु विश्व व्यापार का प्रतीक मानते थे, वे अब इस पर बहस कर रहे हैं कि डबल्यूटीओ कितनी जल्दी खत्म हो जायेगा. डब्ल्यूटीओ के पंगु होने की प्रक्रिया तो इसके दोहा मंत्रिस्तरीय सम्मेलन से ही शुरू हो गयी थी. दोहा सम्मेलन में विकासशील देशों ने यह मुद्दा उठाया था कि चूंकि विकसित देश आर्थिक रूप से मजबूत हैं, इसलिए असमान व्यापार के कारण विकासशील देशों में विकास प्रक्रिया बाधित होती है, ऐसे में, अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों में संशोधन किये जाने की आवश्यकता है. चूंकि विकसित देशों की इसमें कोई रुचि नहीं थी, लिहाजा उनकी उदासीनता के कारण दोहा विकास दौर बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हो गया.

डब्ल्यूटीओ में जो कुछ हो रहा था, भारत समेत विकासशील देश उससे स्पष्ट रूप से निराश थे. सिर्फ यही नहीं कि विकसित देश विकासशील देशों की समस्याओं के प्रति उदासीन थे, बल्कि अमेरिका को यह लगने लगा था कि उसे डब्ल्यूटीओ से वह सब मिल गया है, जो वह चाहता था. अमेरिकी कॉरपोरेट अब पहले से कहीं अधिक रॉयल्टी और तकनीकी शुल्क प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद बौद्धिक संपदा व्यवस्था ने ज्यादातर अमेरिकी कंपनियों को तरजीह दी, जिनके पास अधिकांश पेटेंट और अन्य बौद्धिक संपदा अधिकार थे. अमेरिकी कंपनियों को विकासशील देशों में निवेश के भरपूर अवसर मिले. लेकिन 2001 में चीन के डब्ल्यूटीओ में प्रवेश और उसके आर्थिक उत्थान के बाद चीनी माल ने अमेरिकी बाजारों पर कब्जा करना शुरू कर दिया और अमेरिका को चीन के साथ विदेशी व्यापार में भारी व्यापार घाटे का सामना करना पड़ा. अमेरिका ने अब शिकायत करना शुरू कर दिया कि डबल्यूटीओ की विवाद निपटान प्रणाली के कारण वह अन्य सदस्य देशों के साथ कई विवादों में हार रहा है.


अपनी रणनीति के तहत अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बाधा डाली, जिससे इसकी विवाद निपटान प्रणाली ही लगभग पंगु हो गयी, जो डब्ल्यूटीओ की नियम आधारित प्रणाली का अभिन्न अंग है. ऐसे में, अब सदस्य देशों द्वारा नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना आसान नहीं रह गया है. विश्व व्यापार संगठन के मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में लगातार यह बात स्पष्ट होती रही है कि अमेरिका की इसमें कोई रुचि नहीं रह गयी है. लेकिन जब चीन को छोड़कर शेष विश्व समेत विकासशील देश अपने बाजारों में चीनी उत्पादों की भरमार के कारण औद्योगिक विकास के मामले में नुकसान उठा रहे हैं और मुक्त व्यापार व वैश्वीकरण के नाम पर जन स्वास्थ्य व विश्व व्यापार के लिए कानून बनाने की अपनी स्वतंत्रता या संप्रभुता भी खो चुके हैं, तब विश्व व्यापार संगठन उनके लिए विश्व बाजारों तक पहुंच का एकमात्र साधन बचा है. ऐसे में वे विश्व व्यापार संगठन को प्रभावी बनाने के लिए लगातार काम करते रहे हैं. लेकिन ट्रंप के सत्ता में वापस आने के बाद अब डब्ल्यूटीओ का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है. जो अमेरिका विश्व व्यापार संगठन की बातचीत और गठन में सबसे आगे था, और दुनियाभर में मुक्त व्यापार का सबसे बड़ा पैरोकार था, वह अब संरक्षणवाद की वकालत कर रहा है. वह तर्क दे रहा है कि चूंकि दुनिया के अन्य देश उच्च टैरिफ लगाते हैं, इसलिए अमेरिका भी उच्च आयात शुल्क लगायेगा, जिसे वह ‘पारस्परिक टैरिफ’ कहता है. इससे डब्ल्यूटीओ की प्रासंगिकता ही खत्म होती जा रही है.


डब्ल्यूटीओ के गठन के समय भारत और अन्य विकासशील देशों को यह छूट दी गयी थी कि भले ही विकसित देश टैरिफ कम कर दें, फिर भी वे उच्च आयात शुल्क रख सकते हैं. भारत के लिए औसत बाध्य टैरिफ (डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत लगाये जाने की अनुमति वाला टैरिफ) 50.8 प्रतिशत है. इसके बावजूद 2006 से भारत केवल छह प्रतिशत का भारित औसत आयात शुल्क लगा रहा है, जो बाध्य टैरिफ से बहुत कम है. हालांकि अमेरिका के लिए जवाबी शुल्क, जिसे वह पारस्परिक आयात शुल्क कहता है, लगाने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन अमेरिका को डब्ल्यूटीओ में यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह देश विशेष पर आयात शुल्क लगा सकता है. यह विशेषाधिकार दूसरे देशों को प्राप्त नहीं है. इस अधिकार का दुरुपयोग कर अमेरिका ने अब डब्ल्यूटीओ की मुक्त व्यापार प्रणाली को चुनौती देना शुरू किया है. अब दुनिया को सोचना होगा कि क्या एकतरफा मुक्त व्यापार जारी रह सकता है? कई विशेषज्ञ यह कहने लगे हैं कि अमेरिका को छोड़कर बाकी दुनिया डब्ल्यूटीओ को मजबूत कर सकती है. पर शायद यह व्यावहारिक नहीं होगा. आज पूरी मुक्त व्यापार व्यवस्था बड़े संकट से गुजर रही है. ऐसे में बाकी दुनिया के देशों को अपने-अपने हितों को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार करना होगा, जो जरूरी नहीं कि मुक्त व्यापार पर आधारित हो. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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