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अमेरिकी दबाव के आगे कतई न झुके भारत, पढ़ें जगदीश रत्नानी का लेख

India vs America: फिलहाल जो दो बड़े मुद्दे अमेरिका के साथ व्यापार समझौते में बाधा के रूप में उभरे हैं, वे हैं अमेरिकी जीएम उत्पादों तथा गाय के दूध के लिए भारत के बाजार को खोलना. ये दोनों मांगें ऐसी हैं, जिन पर सहमत नहीं हुआ जा सकता. जब भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि इन पर कोई बात नहीं होगी, तब अमेरिका को इन्हें व्यापार समझौते की शर्तों के तौर पर पेश नहीं करना चाहिए. बेहतर यही होगा कि अमेरिका के साथ होने वाले व्यापार समझौते को मोदी सरकार की सफलता या उपलब्धि से न जोड़ा जाये.

India vs America: भारत एक अनिश्चय भरे माहौल में अमेरिका के साथ व्यापार समझौते से संबंधित बातचीत कर रहा है, और यह अनिश्चितता दरअसल मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दबाव भरी रणनीति के कारण बनी है. इस तरह की वार्ताओं की मुश्किलें समझ में आती हैं, खासकर तब, जब बहुत कुछ दांव पर लगा है, और अमेरिका भारत का सबसे महत्वपूर्ण व्यापार साझेदार है. दोनों देशों के व्यापारिक साझेदारी का महत्व दोतरफा व्यापार के आंकड़ों से भी चलता है और इससे भी कि अमेरिका में भारतीयों और भारतवंशियों की एक बड़ी आबादी न सिर्फ है, बल्कि अब भी अनेक भारतीय रोजगार, अध्ययन और पर्यटन के लिए अमेरिका का रुख करते हैं. अमेरिका ने व्यापार समझौते की समयसीमा नौ जुलाई से बढ़ाकर एक अगस्त कर दी है, और तब तक समझौता न हो पाने की स्थिति में वह भारत पर 26 फीसदी का दंडात्मक शुल्क लगायेगा. समयसीमा बढ़ाये जाने से यह उम्मीद बनी है कि अमेरिका के साथ व्यापार समझौता संभव है, लेकिन इसके साथ-साथ यह संकेत भी मिलता है कि अमेरिका अत्यधिक दबाव बना रहा है, जिससे कि भारत उसके सामने झुक जाये. व्यापार समझौते की समयसीमा बढ़ाने की एक और व्याख्या यह है कि ट्रंप को समझ में आ गया है कि दूसरे देशों पर अत्यधिक दबाव बनाने की उसकी रणनीति नहीं चल सकती. हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है, क्योंकि अमेरिका बहुत ही आक्रामकता का परिचय दे रहा है और भारत ऐसी स्थिति में नहीं है कि उस पर अपनी शर्तें थोप सके. फिर अमेरिका ने ब्रिटेन समेत कई देशों से चूंकि कारोबारी रियायतें हासिल की हैं, ऐसे में, उसकी अपेक्षा यही है कि भारत भी उसके दबाव के आगे झुक जाये.

भारत अमेरिका के बेजा दबावों के आगे नहीं झुकेगा

लेकिन इस देश के लोग यही उम्मीद करेंगे कि भारत अमेरिका के बेजा दबावों के आगे नहीं झुकेगा, चाहे ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका दबाव बनाने की कैसी भी कोशिश क्यों न करे. बेहतर तो यही होगा कि अमेरिका के साथ होने वाले व्यापार समझौते को नरेंद्र मोदी सरकार की सफलता या उपलब्धि से न जोड़ा जाये. दूसरे शब्दों में, हमारी सरकार अमेरिका के साथ प्रस्तावित व्यापार समझौते की अपनी मजबूत छवि के साथ न जोड़े और भारतीय हितों को वरीयता देते हुए सख्त कदम उठाये, अगर उससे अमेरिका के साथ व्यापार समझौता न हो पाता हो, तो कोई बात नहीं. किसी भी कीमत पर अमेरिका के साथ व्यापार समझौता करने का अर्थ होगा कि एक देश के रूप में हम अपने हितों से समझौता करेंगे, और अमेरिका को वे रियायतें देंगे, जो उसे नहीं दी जानी चाहिए. ऐसे ही, अमेरिका के साथ व्यापार समझौता न हुआ, तो भी स्थिति हमारे लिए प्रतिकूल होगी, क्योंकि ऊंचे शुल्क से हमारे व्यापार प्रभावित होंगे और निर्यात पर भी असर पड़ेगा. इससे तात्कालिक तौर पर हमारे लिए चुनौतियां बढ़ेंगी, लेकिन दीर्घावधि में अमेरिका अपने फैसले पर पुनर्विचार करेगा और ऊंचे शुल्क में कमी करेगा, क्योंकि वह स्थिति लंबे समय तक अमेरिका के लिए भी लाभकारी नहीं होगी. वैसे में, दुनिया में यह संदेश जायेगा कि भारत को दबाया नहीं जा सकता. इसकी तुलना में अमेरिका को गैरजरूरी रियायतें देना ज्यादा नुकसानदेह होगा, क्योंकि उससे हमारे बाजार को अमेरिका के लिए इस तरह खोल दिया जायेगा और उन अमेरिकी उत्पादों और सेवाओं को भी प्रवेश दे दिया जायेगा, जो हमारे हित के खिलाफ होंगे और लंबे समय तक हमें नुकसान पहुंचाते रहेंगे.

अमेरिकी गायों को अतिरिक्त प्रोटीन के लिए मांसाहार दिया जाता है

फिलहाल जो दो बड़े मुद्दे अमेरिका के साथ व्यापार समझौते में बाधा के रूप में उभरे हैं, वे हैं अमेरिकी जीएम उत्पादों तथा गाय के दूध के लिए भारत के बाजार को खोलना. यह अमेरिका की कोई नयी मांग नहीं है. लेकिन उसकी ये दोनों मांगें ऐसी हैं, जिन पर सहमत नहीं हुआ जा सकता. सहमत होना भी नहीं चाहिए. जब भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि इन पर कोई बात नहीं होगी, तब अमेरिका को इन्हें व्यापार समझौते की शर्तों के तौर पर पेश नहीं करना चाहिए. उदाहरण के लिए, भारत पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि अपने यहां उन्हीं डेयरी उत्पादों की अनुमति है, जिनके उत्पादक पशुओं को मांसाहारी भोजन न दिया जाता हो. अपने यहां के बाजारों में जिन गाय-भैंसों के डेयरी उत्पादों को अनुमति है, वे शाकाहारी होती हैं. जबकि अमेरिकी गायों को अतिरिक्त प्रोटीन के लिए मांसाहार दिया जाता है. इसके अलावा भारत में दूध को बेहद पवित्र माना जाता है. हमारे यहां हर धार्मिक अनुष्ठान में दूध का इस्तेमाल होता है, और दूध से बनी मिठाइयां भी पवित्र और महत्वपूर्ण आयोजनों में इस्तेमाल की जाती हैं. भला कौन भारतीय उस दूध को पसंद करेगा, जिसकी उत्पादक गायों को मांसाहार दिया जाता हो? जहां तक जीएम फसलों की बात है, तो एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर या एएसएचए- किसान स्वराज नेटवर्क ने, जो किसानों और कृषि विशेषज्ञों का साझा मंच है, इन मुद्दों पर अमेरिका को रियायत न देने के संबंध में सरकार को चिट्ठी लिखी है, जिसमें कहा गया है, ‘हम उन रिपोर्टों पर अतिशय चिंतित होकर यह लिख रहे हैं, जिनमें बताया गया है कि सरकार जीएम फसल और अमेरिकी दूध और डेयरी उत्पादों को देश में अनुमति देने के मामले में भारी दबाव में है. हमारा आपसे अनुरोध है कि इस मामले में सख्त रुख अपनायें और अमेरिका के वैसे प्रस्तावों को खारिज करें, जिनका हमारी कृषि, जैव सुरक्षा, जन स्वास्थ्य, ग्रामीण आजीविका, बीजों और खाद्य संप्रभुता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा’. जाहिर है, देशवासियों की यह चिंता वाजिब है और सरकार को यह आश्वासन देना चाहिए कि वह अमेरिकी दबावों के आगे नहीं झुकेगी.

भारत से अमेरिका और भी रियायतें चाहता है

भारत से अमेरिका और भी रियायतें चाहता है. जैसे, स्टेंट का ही उदाहरण ले लीजिए, सरकार ने जिसकी कीमत पर नियंत्रण लगाने के लिए एक सीमा तय की है. सरकार को यह कदम तब उठाना पड़ा, जब यह पाया गया कि देश में स्टेंट की कीमतों में मुद्रास्फीति दर 2,000 फीसदी तक है. सरकारी हस्तक्षेप से पहले देश में स्टेंट विक्रेता मालामाल हो रहे थे. लेकिन अमेरिका ने 2025 की अपनी एफटीबी रिपोर्ट में कहा, ‘स्टेंट और घुटना प्रत्यारोपण के उपकरणों की कीमतों को मुद्रास्फीति के अनुरूप नहीं बढ़ाया गया है, तय कीमतें इनकी लागत तथा इनमें इस्तेमाल तकनीकी नवाचारों के अनुरूप नहीं हैं, जिस कारण इन्हें बनाने वाली अमेरिकी कंपनियां हतोत्साहित हो रही हैं.’ अभिप्राय स्पष्ट है. अमेरिका की मंशा यदि उगाही की नहीं है, तो भी वह हमारा दोहन तो करना ही चाहता है. भारत को इसका प्रतिरोध करना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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