India us relationship : अमेरिका, नाटो और यूरोपीय संघ में क्या समानताएं हैं? हाल-हाल तक डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका इन दोनों से अलग अपनी चाल चल रहा था. पूर्व राष्ट्रपति बाइडेन के विपरीत ट्रंप ने यूक्रेन को दी जा रही मदद रोक दी थी और वह रूसी राष्ट्रपति पुतिन का समर्थन करते दिख रहे थे, जबकि दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद ट्रंप से उम्मीद की जा रही थी कि वह रूस और यूक्रेन का युद्ध खत्म कराने में सक्रिय भूमिका निभायेंगे. यह उम्मीद उनसे इसलिए भी थी कि उन्होंने ऐसा वादा किया था, पर सत्ता में लौटते ही वह रूस के साथ खड़े दिखने लगे.
यूक्रेन के राष्ट्रपति को व्हाइट हाउस में बुलाकर उन्होंने अपमानित किया. ट्रंप के ये तेवर देखकर यूरोप को अपनी रणनीति बदलनी पड़ रही थी. ट्रंप का यूरोप विरोध इतना गहरा था कि अमेरिकी उपराष्ट्रपति ने एक बैठक में यूरोपीय नेताओं को खरी-खोटी सुनायी थी.
लेकिन पिछले दिनों ट्रंप ने यूक्रेन को सैन्य मदद देने की घोषणा की, तो जैसे वैश्विक परिदृश्य ही बदल गया. यूक्रेन को दी जाने वाली इस सहायता में हवाई सुरक्षा प्रणाली, मिसाइलें और गोला-बारूद शामिल हैं, जिसका ज्यादातर खर्च यूरोपीय सहयोगियों को उठाना है.
ट्रंप ने यह भी धमकी दी कि जो देश रूस से कच्चा तेल खरीदेंगे, उन पर 100 फीसदी सेंकेडरी टैरिफ लगाया जायेगा. ट्रंप का रवैया क्यों बदला? उन्हें दरअसल बहुत देर से पता चला कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन युद्ध खत्म करने के पक्ष में नहीं हैं. ऐसे में, ट्रंप को अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा. यूरोप मानो ट्रंप के बदले रुख का इंतजार ही कर रहा था. नाटो प्रमुख ने आनन-फानन में भारत, चीन और ब्राजील जैसे ब्रिक्स देशों को चेतावनी जारी करते हुए कहा कि यदि वे रूस के साथ व्यापारिक संबंध बनाये रखते हैं, तो उन पर द्वितीयक प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि इन देशों को पुतिन से शांति वार्ता के लिए आग्रह करना चाहिए.
गौरतलब है कि नाटो प्रमुख की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमेरिका के सीनेटर भी शामिल थे. भारत ने इस पर सख्त प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस मामले में दोहरा मापदंड नहीं चलेगा. नयी दिल्ली ने यह भी कहा कि हमारे लोगों के लिए ऊर्जा की जरूरतें पूरी करना हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है और हम बाजार में उपलब्ध चीजों और वैश्विक परिस्थितियों के अनुरूप ही फैसले लेते हैं. नाटो की चेतावनी के बाद यूरोपीय संघ ने रूस पर दो प्रतिबंध लगाये. एक तो उसने रूसी तेल के प्राइस कैप को 60 डॉलर प्रति बैरल से घटाकर 47.6 डॉलर प्रति बैरल कर दिया. दूसरे, उसने भारत के गुजरात में स्थित रूसी रिफाइनरी पर प्रतिबंध लगा दिया.
अभी तक इस रिफाइनरी से यूरोप को भारी मात्रा में तेल की आपूर्ति होती रही है. अनुमान यह लगाया जा रहा है कि यूरोपीय संघ के इस फैसले से भारत को सालाना पांच अरब डॉलर का नुकसान होगा. भारत ने यूरोपीय संघ द्वारा लगाये गये प्रतिबंध का विरोध किया है. उसने साफ कहा है कि भारत किसी भी एकतरफा प्रतिबंध का समर्थन नहीं करता. विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने कहा कि ऊर्जा सुरक्षा हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है और हम वही करेंगे, जो हमारे 140 करोड़ नागरिकों के लिए सही होगा.
इन सब घटनाक्रमों से फौरी तौर पर ऐसा लगता है कि यूक्रेन-रूस के बीच चल रहा युद्ध खत्म करने के लिए अमेरिका-यूरोप सक्रिय हो चुके हैं, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? नहीं. दरअसल अमेरिका और यूरोप युद्ध खत्म करने के लिए रूस पर दबाव बनाने के वास्ते उसके सहयोगियों की बांह मरोड़ने में लगे हैं, जैसा कि भारत और ब्रिक्स पर उनकी आक्रामक रणनीति से स्पष्ट है. हालांकि ट्रंप के बदले हुए रवैये में भी अमेरिका का हित ही सर्वोपरि है. अमेरिका आज की तारीख में सबसे बड़ा तेल उत्पादक बन गया है. वह तेल के वैश्विक बाजार पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है. उसे पता है कि भारत जैसे देश रूस से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीदते हैं. वह इस सिलसिले को बदलना चाहता है.
अमेरिका रूस पर सीधे टैरिफ नहीं लगा सकता, क्योंकि उस पर प्रतिबंध पहले से ही लागू है. अमेरिका को रूस से रेयर अर्थ खनिज भी चाहिए. इसलिए रूस से उसकी सीधी भिड़ंत नहीं है. देखने वाली बात यह है कि रूसी कच्चे तेल पर यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध नहीं लगाया है. उसने सिर्फ रूसी तेल पर कैप लगाया है, यानी उसकी कीमत घटा दी है. इससे स्पष्ट है कि यूरोपीय संघ को रूस के तेल से दिक्कत है. यह उसका दोहरापन है. भारत के लिए चिंतित करने वाली बात यह है कि रूस को सबक सिखाने की प्रक्रिया में अमेरिका-यूरोप रूस के दोस्तों को भी निशाना बनाना चाहते हैं. अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो की चेतावनियों के दायरे में भारत भी है.
अमेरिका और यूरोप दरअसल ब्रिक्स देशों पर हमला कर रहे हैं, लेकिन अमेरिका-यूरोप के तीखे तेवर से भारत को बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है. परेशान होने की जरूरत इसलिए भी नहीं है कि रूस को सबक सिखाने के लिए पश्चिमी दुनिया भारत को निशाना बनाने की हद तक नहीं जा सकती. एेसा इसलिए है कि भारत एक उभरती हुई शक्ति है, और अमेरिका-यूरोप को भी भारत की उतनी ही जरूरत है, जितनी भारत को इन देशों और समूहों की जरूरत है. यह संयोग नहीं है कि भारत के साथ जो तीन बड़े व्यापार समझौते हो रहे हैं, वे अमेरिका और यूरोप के साथ ही हैं. ब्रिटेन के साथ भारत का ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौता हो चुका है. जल्दी ही अमेरिका के साथ भारत का व्यापार समझौता होने वाला है, जबकि इस साल के अंत तक भारत के यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत होने की उम्मीद है.
लेकिन अमेरिका-यूरोप युद्ध खत्म करने के लिए जरूरी गंभीरता का परिचय भी नहीं दे रहे. अगर युद्ध खत्म करना ही उनका मकसद होता, तो अमेरिकी राष्ट्रपति यूक्रेन को हथियार मुहैया कराने की घोषणा न करते. जाहिर है, यहां भी अमेरिका अपने हितों को तवज्जो दे रहा है. रूस-यूक्रेन युद्ध चलता रहेगा, तो अमेरिकी हथियार निर्माता कंपनियों को भी मुनाफा होता रहेगा. इसलिए अमेरिका और यूरोप चाहे जैसी और जितनी सख्ती का परिचय दे लें, रूस-यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध फिलहाल खत्म होता नहीं दिखता. यह हमारे समय की बड़ी त्रासदी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)