-गौरव कुमार-
Kailash Mansarovar Yatra : मोदी सरकार ने पांच वर्षों के लंबे अंतराल के बाद कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः आरंभ कर एक सांस्कृतिक व आध्यात्मिक परंपरा को ही नहीं, बल्कि एक परिपक्व रणनीतिक संदेश को भी पुनर्जीवित किया है. यह यात्रा सिर्फ धार्मिक आस्था का मामला नहीं रही, बल्कि यह आज भारत की सामरिक, कूटनीतिक और सांस्कृतिक सोच का संवाहक बन चुकी है. 2020 की कोरोना महामारी, गलवान संघर्ष और उसके बाद चीन की ओर से मानसरोवर समझौते का नवीनीकरण न करने की हठधर्मिता के कारण यह यात्रा ठप पड़ी रही थी.अब 2025 में इसका पुनः आयोजन कई स्पष्ट संदेशों के साथ हो रहा है.एक ओर जहां भारत ने अपनी कूटनीतिक संतुलन की क्षमता को प्रदर्शित किया है, वहीं दूसरी ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से अपने भू-राजनीतिक प्रभाव को भी सामने रखा है.
इतिहास की पृष्ठभूमि: तीर्थ नहीं, आत्मबल का प्रतीक
कैलाश मानसरोवर यात्रा का इतिहास प्राचीन भारत से जुड़ा है,लेकिन स्वतंत्र भारत में इसकी औपचारिक शुरुआत 1981 में हुई. यह यात्रा दो प्रमुख मार्गों से होती है उत्तराखंड का लिपुलेख दर्रा और सिक्किम का नाथू ला दर्रा. यह मार्ग केवल तीर्थयात्रा के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और तिब्बत (अब चीन के अधीन एक स्वायत्त क्षेत्र) के सांस्कृतिक संपर्कों का जीवित प्रतीक भी है.लिपुलेख मार्ग कठिन और पुरातन है, जो सदियों से योगियों, तपस्वियों और साधकों द्वारा उपयोग किया जाता रहा है.वहीं नाथू ला मार्ग अपेक्षाकृत सरल है और उसमें मोटरेबल सुविधा भी उपलब्ध है. इस वर्ष विदेश मंत्रालय द्वारा घोषित कार्यक्रम के अनुसार 750 यात्रियों का चयन डिजिटल लॉटरी के माध्यम से किया गया है.
भारत की विदेश नीति में सांस्कृतिक तत्वों का समावेश कोई नया प्रयोग नहीं है,लेकिन 2025 में यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब भारत-पाकिस्तान के बीच हालिया तनाव देखने को मिला है,चीन के साथ सीमा प्रबंधन के मुद्दे अनसुलझे हैं,भारत 2026 में BRICS शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने जा रहा है,अमेरिका में ट्रंप की वापसी की संभावना व्यापारिक दबावों को फिर से जन्म दे सकती है.
इन तमाम परिस्थितियों में यह यात्रा भारत की ‘सांस्कृतिक-सामरिक रणनीति’ का हिस्सा बन गई है.चीन की ओर से यात्रा का स्वागत एक सतही शांति संदेश हो सकता है, लेकिन भारत की प्रतिक्रिया पारस्परिक सहमति से काफी गहन अर्थ रखती है.यह एक संतुलित कूटनीतिक संकेत है कि भारत बातचीत के लिए तैयार है.
चीन की धर्म नीति और भारत की सांस्कृतिक चुनौती
चीन में धार्मिक स्वतंत्रता को नियंत्रित किया जाता है, विशेषकर तिब्बत में. बौद्ध भिक्षु, तिब्बती लामा और सामान्य जनता पर निगरानी रहती है.भारत जब कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः शुरू करता है, तो वह केवल भारतवासियों को ही नहीं, बल्कि पूरी तिब्बती पहचान को यह संदेश देता है कि भारत आपके धार्मिक अधिकारों के साथ हैं. यहां भारत की स्थिति दोहरा प्रभाव उत्पन्न करती है.तिब्बतियों के लिए नैतिक समर्थन चीन के लिए रणनीतिक प्रतीकवाद है.भारत इस माध्यम से यह भी दर्शाता है कि वह चीन के सांस्कृतिक वर्चस्व को एक शांति-आधारित, आस्था-प्रेरित प्रतिक्रिया से संतुलित कर सकता है.
यात्रा: श्रद्धा और संप्रभुता का संगम
कैलाश और मानसरोवर हिंदू, बौद्ध, जैन और बोन धर्मों में पवित्र माने जाते हैं. यह स्थान भारत, नेपाल, तिब्बत और भूटान की सामूहिक सांस्कृतिक चेतना से जुड़ा है. ऐसे में यात्रा का स्थगित रहना भारत की सांस्कृतिक पहुंच को सीमित करता था.अब जब यह यात्रा पुनः शुरू हुई है, तो यह एक रणनीतिक ‘जन-से-जन संपर्क’ का हिस्सा बन गई है.यह दर्शाता है कि भारत ने सीमा विवादों को सांस्कृतिक सेतु पर हावी नहीं होने दिया. यह वह ‘कठिन संतुलन’ है जो एक परिपक्व राष्ट्र ही साध सकता है.भारत ने 2025 में कई रणनीतिक मंचों पर अपना प्रभाव दिखाया है.
BRICS–SCO–RIC: बहुध्रुवीय मंचों की बढ़ती भूमिका
2026 में ब्रिक्स की अध्यक्षता भारत के पास होगी. यह न केवल आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अवसर है, बल्कि सांस्कृतिक कूटनीति को पुनर्जीवित करने का भी एक उपयुक्त क्षण है. ऐसे में कैलाश-मानसरोवर यात्रा को पुनः आरंभ करने की पहल भारत की ‘सांस्कृतिक बहुपक्षीयता’ को नया आयाम दे सकती है. कैलाश मानसरोवर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि हिमालय पार की सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक भी है. ब्रिक्स जैसे मंच पर भारत यदि इस यात्रा को पुनर्जीवित करने की बात उठाता है, चीन के साथ समन्वय कर तो यह क्षेत्रीय स्थिरता, विश्वास-निर्माण और एशियाई सभ्यताओं के संवाद को मजबूत कर सकता है.
ब्रिक्स अध्यक्षता का उपयोग भारत अपने ‘सॉफ्ट पावर’ को प्रकट करने के लिए कर सकता है जहां भूटान, नेपाल, मंगोलिया जैसे देशों के प्रतिनिधियों को मानसरोवर-संवाद जैसे सांस्कृतिक विमर्श के लिए आमंत्रित किया जा सकता है.यह न केवल भारत-चीन संबंधों में एक रचनात्मक पुल का कार्य करेगा, बल्कि ब्रिक्स को भी ‘मात्र आर्थिक समूह’ से ऊपर ले जाकर उसे सभ्यतागत सहयोग का मंच बना सकता है.इससे पहले भारत RIC (रूस-भारत-चीन) संवाद को पुनर्जीवित करने की ओर अग्रसर है. यह सभी मंच चीन के साथ ‘टकराव के बिना संवाद’ की रणनीति के तहत प्रयोग किए जा रहे हैं.
RIC मंच 2020 के बाद लगभग निष्क्रिय हो गया था.लेकिन अब रूस ने इसे फिर से सक्रिय करने के संकेत दिए हैं.नई दिल्ली ने इस पर ‘पारस्परिक सुविधा’ की भाषा में सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. यह संकेत करता है कि भारत चीन के साथ एक सीमित, परंतु आवश्यक संवाद चाहता है बिना अपनी पश्चिमी साझेदारियों को कमजोर किए. यह वही रणनीति है जिसे ‘बहु-संरेखण’ कहा जाता है. भारत अमेरिका, जापान, फ्रांस जैसे देशों के साथ भी साझेदारी बनाए रखता है और समानांतर रूप से चीन व रूस के साथ भी संवाद की खिड़कियां खोलता है. पिछले वर्षों में भारत ने बौद्ध कूटनीति को बल दिया चाहे वो बोधगया में अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन हो, थाईलैंड व श्रीलंका के साथ धार्मिक संपर्क और दक्षिण-पूर्व एशिया में सांस्कृतिक डिप्लोमेसी.परंतु कैलाश मानसरोवर यात्रा का महत्व अधिक व्यापक है क्योंकि यह चीन के भू-राजनीतिक हृदय तिब्बत से जुड़ा है.जहां बौद्ध कूटनीति भारत को आसियान और पूर्वी एशिया से जोड़ती है, वहीं मानसरोवर यात्रा उसे हिमालयी बेल्ट में सामरिक-सांस्कृतिक उपस्थिति देती है.
यात्रा नहीं, रणनीति का प्रतीक
कैलाश मानसरोवर यात्रा आज केवल धार्मिक श्रद्धा का विषय नहीं रह गई है, बल्कि यह भारत की व्यापक और बहुस्तरीय रणनीतिक सोच का प्रतीक बन चुकी है. यह यात्रा एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा को पुनर्जीवित करती है जो न केवल आध्यात्मिक भावनाओं से जुड़ी है, बल्कि भारत की कूटनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और भू-राजनीतिक उपस्थिति से भी गहराई से संबद्ध है. वास्तव में, यह यात्रा भारत की उस नीति का जीवंत उदाहरण है जिसमें परंपरा और आधुनिक रणनीतिक आवश्यकताएं समानांतर चलती हैं.इस यात्रा के पुनरारंभ के माध्यम से भारत यह संदेश दे रहा है कि वह न केवल अपने नागरिकों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने प्रभाव और अधिकारों की पुनर्स्थापना के लिए भी प्रतिबद्ध है.विशेषकर ऐसे समय में जब भारत और चीन के बीच सीमाई तनाव बने हुए हैं, यह यात्रा भारत के आत्मविश्वास और संतुलित कूटनीतिक दृष्टिकोण को दर्शाती है.यह यात्रा अब भारत के सॉफ्ट पावर का एक प्रभावशाली उपकरण बन चुकी है.बिना आक्रामकता के, यह सांस्कृतिक माध्यम भारत के राजनीतिक और रणनीतिक संदेशों को मजबूती से संप्रेषित करता है. भारत इससे न केवल अपनी कूटनीतिक स्थिति को मजबूत करता है, बल्कि तिब्बती अस्मिता और धर्म-संवेदनाओं को समर्थन देकर चीन को एक सांस्कृतिक चुनौती भी देता है. अंततः, कैलाश मानसरोवर यात्रा एशिया की भविष्य की राजनीति को परिभाषित करने वाली एक नई रूपरेखा को जन्म देती है जहां सैन्य शक्ति या आर्थिक दबाव से कहीं अधिक, सांस्कृतिक विरासत, ऐतिहासिक स्मृति और रणनीतिक संतुलन निर्णायक होंगे.
(लेखक वर्तमान में गौरव यूनाइटेड सर्विस इंस्टिट्यूशन ऑफ इंडिया (USI), नई दिल्ली में एक शोध सहायक (Research Assistant) के रूप में कार्यरत हैं. )