Hindi Row : इसे राजनीतिक विद्रूप ही कहेंगे कि हिंदी को राजभाषा बनाने का विचार देने वाली मराठी माटी पर ही हिंदी भाषियों को अपमानित किया जा रहा है. हिंदी भाषियों को अपमानित करने वाली राजनीति का मकसद हिंदी विरोध पर मराठी मानुष की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए अपना वोट बैंक मजबूत करना है, तो दूसरी तरफ सत्ता और विपक्ष के एक हिस्से की राजनीति है, जो अपमानित करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई इस डर से नहीं कर रही कि कहीं इससे मराठी मानुष की धारणा कमजोर न हो जाये और उसके जरिये उसका अपना समर्थक आधार न खिसक जाये. राजनीति की इस चक्करघिन्नी में निम्न मध्यवर्गीय या हाशिये वाला हिंदी भाषी समुदाय ही पिस रहा है. उसका अपराध यह है कि वह महाराष्ट्र में रहते हुए हिंदी बोल रहा है.
हिंदी बोलने के लिए हिंदी भाषियों को प्रताड़ित करने वाली राजनीति का अतीत भी ऐसा ही रहा है. शिवसेना का उभार पिछली सदी के साठ के आखिरी वर्षों में मुंबई में मलयालम बोलने वालों के खिलाफ आंदोलन के बाद हुआ. मनसे के कार्यकर्ता तो केंद्रीय नौकरियों के लिए मुंबई में परीक्षाएं देने आये उत्तर भारतीय विशेषकर उत्तर प्रदेश-बिहार के छात्रों को खुलेआम पीटते रहे थे. मराठी मानुष का बोध महाराष्ट्र में इतना गहरा है कि सरकारें चाहें जिस भी दल की हों, इस मसले पर तकरीबन एक जैसा रुख अपनाने से परहेज नहीं करतीं. भारत की संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने का विचार देने में महाराष्ट्र की हस्तियों का बड़ा योगदान रहा है. लोकमान्य तिलक ने बंग-भंग के वक्त 1905 में वाराणसी की यात्रा की थी. वहां उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जो कहा था, उसे महाराष्ट्र की हिंदी विरोधी राजनीति को जानना चाहिए. तिलक ने कहा था, ‘निसंदेह हिंदी ही देश की संपर्क और राजभाषा हो सकती है.’
लोकमान्य अकेले मराठी मानुष नहीं थे, जिन्होंने हिंदी को लेकर यह विचार दिया. वर्ष 1960 से पहले आज का गुजरात भी महाराष्ट्र का ही हिस्सा था. गुजराती कवि नर्मदाशंकर दवे उर्फ नर्मद कवि ने लोकमान्य से करीब चौथाई सदी पहले 1880 में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में आगे लाने का सुझाव दिया था. हिंदी को स्थापित करने की महात्मा गांधी की कोशिशों से भला कौन इनकार कर सकता है? बहुत कम लोगों को पता है कि गांधी जी ने 1917 में भरूच में आयोजित गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में पहली बार सार्वजनिक तौर पर हिंदी की ताकत को स्वीकार किया था. उन्होंने कहा था, ‘भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है.’ हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम मानने वाले काका कालेलकर भी मराठी भाषी ही थे. सतारा में जन्मे कालेलकर ने 1938 में कहा था, ‘राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कर्म है.’ गांधी जी के शिष्य आचार्य विनोबा भावे भी ताजिंदगी हिंदी के लिए संघर्षरत रहे.
पत्रकारिता जगत की मराठी भाषी हस्तियों ने भी हिंदी को स्थापित करने में रचनात्मक भूमिका निभायी. माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, रामकृष्ण खाडिलकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे जैसे पत्रकारों ने हिंदी को नयी शैली में गढ़ा, उसके शब्द गढ़े, और उसे ऊंचाई दी. हिंदी इन मराठी भाषी महात्मनों की शुक्रगुजार है. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से निकले ‘धर्मयुग’ ने दशकों तक हिंदी भाषी पाठकों के दिलों पर राज किया. ऐसे महाराष्ट्र की धरती पर हिंदी बोलने वालों का अपमान होना दुखद ही कहा जायेगा. जहां तक तमिलनाडु की बात है, तो वहां हिंदी विरोध की ग्रंथि आजादी के पहले से ही रही है, जिसका संक्रमण कर्नाटक तक पहुंचा है. कर्नाटक रक्षण वेदिके ने हिंदी विरोधी अभियान चलाया, तो 2019 में हिंदी दिवस न मनाने के लिए भी राज्य में अभियान चला. एक राष्ट्रीयकृत बैंक की स्थानीय शाखा के प्रबंधक से जबरदस्ती हिंदी बोलने के लिए हुज्जत करने का दृश्य हो या किसी ऑटोवाले का किसी हिंदी भाषी लड़की को थप्पड़ मारना, इन्हें कर्नाटक में हिंदी विरोधी आंदोलन की जमीनी परिणति ही कहा जायेगा.
महाराष्ट्र में हिंदी विरोध को लेकर सवाल यह भी है कि राज ठाकरे की ताकत हजारों करोड़ का कारोबार करने वाली हिंदी फिल्मों के गढ़ में जाने से क्यों हिचकती है? ऐसे ही, कर्नाटक हो या तमिलनाडु, वहां के फिल्म निर्माताओं को जब सौ, दो सौ या पांच सौ करोड़ क्लब में शामिल होना होता है, तो हिंदी के बाजार पर ही उनका ध्यान जाता है. हिंदी के बाजार से प्यार और हिंदी भाषियों से दुर्व्यवहार, दोनों एक साथ नहीं चल सकते. जिस तरह का व्यवहार हिंदी भाषियों के साथ हिंदी विरोध के नाम पर हो रहा है, अगर वैसा ही व्यवहार इन राज्यों के निवासियों के साथ हिंदी भाषी इलाकों में होने लगे, तो क्या होगा. राजनीति को इस बात पर भी विचार करना होगा. हिंदी को संपर्क भाषा इसलिए स्वीकार किया गया, क्योंकि वह देश को जोड़ने की क्षमता रखती है. जबकि आज की राजनीति अपनी स्थानीय भाषाओं के नाम पर जिस भावना को फैला रही है, उससे देश का मानस बंटेगा, जिससे देश में विघटन की प्रक्रिया को बढ़ावा मिल सकता है. राजनीति चाहे जिस पक्ष की हो, उसे हिंदी के विरोध को इस नजरिये से देखना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)