Balochistan :पाकिस्तान में बलूच लड़ाकों द्वारा रेल अपहरण की घटना ने संपूर्ण विश्व का ध्यान एक साथ बलूचिस्तान समस्या, पाकिस्तान सरकार और उसकी सेना की लाचारी की ओर खींचा है. जब बलूच लिबरेशन आर्मी या बीएलए द्वारा क्वेटा से पेशावर जा रही जफर एक्सप्रेस ट्रेन को बलूचिस्तान में बोलन दर्रे के पास अपहृत करने का समाचार आया, तब पहली प्रतिक्रिया यही थी कि यह लंबे समय नहीं चलेगा. आखिर कोई हथियारबंद संगठन संपूर्ण सत्ता और सुरक्षा व्यवस्था के विरुद्ध कैसे टिक सकता है?
जब पाकिस्तानी सेना ने कहा कि बंधक संकट खत्म हो गया है, सभी 33 बीएलए लड़कों को मार गिराया गया है एवं बंधक छुड़ा लिये गये, तब भी लगा कि सचमुच ऐसा ही हुआ होगा. लेकिन सेना ने बंधकों की रिहाई या बीएलए को पहुंचाई क्षति का न वीडियो जारी किया, न ही तस्वीर जारी की. ऐसा अमूमन होता नहीं है. उसके बाद बीएलए ने बयान जारी किया कि ‘पाकिस्तानी सेना झूठ बोल रही है. उसने अपने जवानों को हमारे हाथों मरने के लिए छोड़ दिया है. छुड़ाना होता, तो हमारी मांगों और बंधकों की रिहाई पर बातचीत करते.’ पाकिस्तान ने बातचीत की जगह पुरानी जिद और सैन्य अहंकार को चुना. इस जिद के परिणामस्वरुप सभी 214 बंधकों को मार दिया गया.
यह सच है कि बोलन दर्रे के पास कई घंटे तक लड़ाई चली, किंतु सेना अपने अभियान में सफल नहीं हुई. वह अपने जवानों की रिहाई नहीं कर सकी. उल्टे उसका यह झूठ उजागर हो गया कि जिन आम लोगों को बचाने का वह दावा कर रही है, उनमें से बड़ी संख्या को तो बलूचों ने खुद ही रिहा कर दिया था. ट्रेन का अपहरण करते समय लगभग 450 लोग उसमें थे, जिनमें सेना के 214 जवान थे. पाकिस्तानी मीडिया में यह समाचार आते ही, कि काफी संख्या में ताबूत ले जाये गये हैं, वस्तुस्थिति सामने आ गयी. पाकिस्तान में ताबूत का प्रयोग आम मृतकों के लिए नहीं, शहीद सैनिकों के लिए होता है. साफ है कि सेना और सरकार लोगों को गफलत में डाल रही थी तथा अपनी शर्मनाक पराजय छिपाने की कोशिश कर रही थी.
पाकिस्तान में सेना को सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावी संस्था माना जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाएं और सच्चाइयां सामने आयी हैं, जिनसे सेना बदनाम हो गयी है. एक समय पाकिस्तान में पढ़ाया जाता था कि 1965 और 1971 का युद्ध उसने जीता था. अब उसकी सच्चाई सामने है तथा लोग सवाल कर रहे हैं कि आपने झूठ क्यों फैलाया? कारगिल के बारे में आम पाकिस्तानी बोलते हैं कि हमारी सेना इतनी बेगैरत है कि अपने ही जवानों के शवों को विरोधी सेना के रहमो-करम पर छोड़ दिया था. इमरान खान की पार्टी के लोगों ने सेना के मुख्य केंद्र तक में तोड़फोड़ की थी, पर लोग उसके विरुद्ध खड़े नहीं हुए. आम पाकिस्तानी ने रेल अपहरण का विरोध किया, उसकी निंदा की, वहां के टीवी चैनलों ने भी आतंकवादी घटना बताते हुए विरोध किया. पर सेना के लिए सम्मानजनक भाषा नहीं सुनी गयी. बलूचिस्तान में पाक सेना बुरी तरह विफल है. जिस ट्रेन में सेना के 241 जवान थे, उसका अपहरण करके सैनिकों को मार दिया जाए, इससे शर्मनाक भला और क्या हो सकता है? बलूचों को कैसे पता चला कि उसमें सेना जा रही है? अपहरण की तैयारी भी कई दिनों में हुई होगी, क्योंकि एक-दो दिन में यह संभव नहीं.
साफ है कि बलूचिस्तान के ज्यादातर क्षेत्रों से पाक सरकार का नियंत्रण समाप्त हो चुका है. सेना जिस तरह वहां जुल्म करती रही है, उसके विरुद्ध आम जनता में भी गुस्सा है. विदेश में निर्वासित हुए या रह रहे बलोचों तथा हथियार और अहिंसक तरीके से लड़ रहे बलूच समूहों ने सेना की जुर्म के जो विवरण बार-बार दिए हैं, वे मानवता को शर्मसार करने वाले हैं. आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के सबूतों के लिए सेना बलूचों को मारती और अमेरिका के पास तस्वीर भेजती, यह सच भी सामने आ गया.
बलूचिस्तान का अपना अलग अस्तित्व रहा है. आजादी के बाद उसकी अपनी व्यवस्था थी. इस्लामाबाद में उसके दूतावास थे, जिसमें बलूच झंडा लगा था. बलूचों ने अपने को अलग देश साबित करने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को ही वकील रखा था. बाद में जिन्ना ने ही बलूचिस्तान को हड़प लिया. तभी से बलूच अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अपनी खनिज संपदा, प्राकृतिक संसाधनों व मनोरम दृश्यों के लिए विख्यात बलूचिस्तान पाक सेना व सत्ता के शोषण और दमन का शिकार रहा है. चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा का निर्माण आरंभ होने तथा ग्वादर बंदरगाह चीन को सौंपने के बाद विद्रोह ज्यादा प्रचंड हुआ है. बलूच इसे आर्थिक गुलामी का ढांचा बताते हैं. वे मानते हैं कि हमारी खनिज संपदा चीनी अपने देश ले जाएंगे और हमें कुछ नहीं मिलेगा. सेना और पुलिस-प्रशासन के लोगों को वहां कब्जा करने वाले विदेशियों के रूप में देखा जा रहा है. रेल अपहरण कांड बताता है कि संघर्ष दरअसल उस सीमा तक पहुंच गया है, जहां से पाकिस्तान के लिए वहां कब्जा बनाये रखना तथा बलूचों के लिए भी पाकिस्तान का हिस्सा बनने की मानसिकता में लौटना मुश्किल है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)