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खिलाड़ियों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो

Pullela Gopichand : देश में पिछले कुछ दशकों में क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस, कबड्डी, वॉलीबाल, कुश्ती जैसे खेलों में लीगों के आयोजन से ज्यादा खिलाड़ियों में संपन्नता तो आयी है, पर समस्या से निजात दिलाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है.

Pullela Gopichand : चैंपियंस ट्रॉफी की गर्माहट के बीच भारतीय राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद ने एक साक्षात्कार के दौरान कुछ ऐसे सवाल उठाये हैं, जिसने खेल जगत को झकझोर दिया है. इन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. इसमें सबसे अहम यह है कि जो खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने में विफल रहते हैं, उनके जीवन को आर्थिक तौर पर सुरक्षित बनाया जाए. यह सही है कि आमतौर पर खिलाड़ी अपना करियर बनाने के लिए पढ़ाई पर फोकस नहीं रख पाते. ऐसे में, जब वे विश्व स्तर पर पहुंचने में असफल रहते हैं, तो खुद को ठगा महसूस करते हैं.


देश में पिछले कुछ दशकों में क्रिकेट, हॉकी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस, कबड्डी, वॉलीबाल, कुश्ती जैसे खेलों में लीगों के आयोजन से ज्यादा खिलाड़ियों में संपन्नता तो आयी है, पर समस्या से निजात दिलाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है. खेलों में सफल करियर न बना पाने वाले युवाओं के लिए देश में कोई योजना न होने की निराशा में ही गोपीचंद ने मध्यम वर्ग के बच्चों को खेल में करियर न बनाने की सलाह दी है. सही बात यह है कि सरकारों ने कभी इस समस्या पर ध्यान ही नहीं दिया. हालांकि ऐसा लगता है कि इस समस्या से निजात पाना भी आसान नहीं. इसकी वजह यह है कि खेलों पर फोकस करने वाले ज्यादातर खिलाड़ी बहुत पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, लिहाजा उन्हें ऊंचे पदों पर नौकरी नहीं दी जा सकती. ऐसे में, खेल को करियर बनाने वाले खिलाड़ियों को पढ़ाई पर भी ध्यान देने के लिए जागरूक करने की जरूरत है.


खिलाड़ियों में शिक्षा की कमी का एक किस्सा याद आता है. यह 1990 के दशक की बात है. एशियाई खेलों के एक स्वर्ण पदक विजेता पहलवान अपनी खबर छपवाने के लिए अखबार के दफ्तर में आये थे. अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अच्छे प्रदर्शन के कारण वह पुलिस अधीक्षक के पद पर पहुंच गये थे. उस दिन दूसरे साथी के छुट्टी पर होने की वजह से मुझ पर काम का दबाव था, तो मैंने उनसे कहा कि खबर दे जाइए, मैं छाप दूंगा, पर वह खबर लिख कर नहीं लाये थे. मैंने पैड और पैन उनकी तरफ बढ़ा दिया और अपने काम में लग गया. कुछ समय बाद देखा, तो वह चुपचाप बैठे थे. मैंने जब उनसे खबर लिख कर देने को कहा, तो वह बोले, जैसे-तैसे तो मैंने दस्तखत करना सीखा है. इससे ज्यादा मुझे लिखना नहीं आता. ऐसे खिलाड़ी आज भी देखने को मिल सकते हैं. हां, अब खिलाड़ियों की समझ में भी आ रहा है कि खिलाड़ी के साथ शिक्षित होना भी जरूरी है. इसलिए मध्यवर्ग से निकले खिलाड़ी पढ़ाई पर भी ध्यान दे रहे हैं.


जहां तक आर्थिक तौर पर मजबूत युवाओं द्वारा खेलों को अपनाने की बात है, तो देश में इस तरह का खेल ढांचा तैयार करना बिल्कुल भी संभव नहीं लगता. टेनिस, स्क्वैश और बैडमिंटन जैसे खेलों को छोड़ दें, तो ज्यादातर खेलों में आर्थिक तौर पर कमजोर और दूर-दराज के इलाके वाले युवा ही सुर्खियां बटोर रहे हैं. देश में ऐसे हजारों खिलाड़ी होंगे, जिनके घरों में न तो दो वक्त के खाने का इंतजाम था और न ही रहने के लिए पक्का मकान. उनके आसपास खेलों की भी कोई सुविधा नहीं थी, पर अथक परिश्रम और जज्बे की वजह से वे शिखर पर पहुंचने में सफल रहे. राज्य सरकारों, रेलवे या सेना में ऐसे खिलाड़ियों की छोटी-मोटी नौकरी मिल जाने पर घर ढंग से चलने लगता है, तो वे इसे ऊपर वाले का वरदान मान लेते हैं.


हमारे यहां कोई खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमक बिखेरता है, तभी उस पर पैसों की बारिश की जाती है. बेहतर हो कि खेल प्रतिभाओं को तैयार करने पर पैसे खर्च किये जाएं. इसके लिए खिलाड़ी बनने की चाह रखने वालों तक सुविधाएं पहुंचायी जाएं. पिछले कुछ दशकों में अपने यहां खेलों की स्थिति में बहुत सुधार आया है,पर देश की आबादी को देखते हुए यह नाकाफी है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि ज्यादातर खेल सुविधाएं बड़े शहरों में हैं, जहां तक हर किसी का पहुंचना संभव नहीं. इसलिए सुविधाओं को छोटे कस्बों तक ले जाने की जरूरत है. साथ ही, खेलों को शिक्षा के साथ जोड़ना भी बेहद जरूरी है. अगर खेलों में पढ़े-लिखे युवा आयेंगे, तो उनको नौकरी भी बेहतर मिलेगी और वे सम्मान के साथ जी सकेंगे.


पुलेला गोपीचंद ने एक बात यह भी कही है कि उन्होंने एशियाई खेलों के एक पदक विजेता को रेलवे के एक आइआरएस अधिकारी को ‘यस सर’ कहते देखा है. यह आदमी के संस्कारों और सिस्टम की देन है. मैंने अनेक ओलंपियन पहलवानों को खेल पत्रकारों के पैर छूते देखा है, जो असल में सम्मान प्रदर्शित करने का उनका तरीका है. हमारा सिस्टम ही ऐसा है कि आदमी की अहमियत पद से होती है. खेल भी इस सिस्टम से अलग नहीं हैं, पर यह जरूरी है कि एशियाई खेलों, कॉमनवेल्थ खेलों, विश्व चैंपियनशिपों और ओलंपिक जैसे खेलों में देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों के सम्मान की रक्षा की जाए. ऐसा करके हम और भी युवाओं को खेलों की तरफ आकर्षित कर सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

मनोज चतुर्वेदी
मनोज चतुर्वेदी
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