सुधीर विद्यार्थी
Shaheed Bhagat Singh: गत अनेक वर्षों से शहीद भगत सिंह को याद करने का सिलसिला तेजी से चल पड़ा है. यहां तक कि कुछ समय पूर्व हिंदी सिनेमा ने भी इस क्रांतिकारी शहीद की छवि को बेचने के लिए एक साथ पांच-पांच फिल्में बना डालीं. भगत सिंह सही अर्थों में लोक नायक थे. उन पर सर्वाधिक लोकगीत इस देश की कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ जनता ने तब रचे, जब बौद्धिकों के विमर्श में भगत सिंह दूर तक नहीं थे. मुझे याद आता है कि एक समय गांव के बाजार-हाट, मेलों में पान की दुकानों और ट्रकों के दरवाजों पर दोनों ओर भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की तस्वीरें हुआ करती थीं. यह उस जनता की चेतना थी, जिसने लंबे समय तक इन क्रांति नायकों को अपने दिलों के भीतर जगह दी. अकादमिक चिंतन या बौद्धिक बहसों में वह बहुत बाद में आये, जबकि लोक के बीच वह बहुत पहले नायकत्व हासिल कर चुके थे. भगत सिंह भारतीय क्रांतिकारी संग्राम को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने वाले पहले व्यक्ति ही थे, पर वह स्वयं विकास की प्रक्रिया में थे. उनकी जो भी विचार संपदा अब तक सामने है, उसके साथ यदि उनकी जेल में लिखी वे चार खो गयी पुस्तकें भी सम्मुख होतीं, तब भी उनके चिंतन और बौद्धिक क्षमताओं का नया झरोखा हमारे लिए खुलता.
भारतीय क्रांति मार्ग पर अपने सेनापति चंद्रशेखर आजाद और संगी-साथियों को लेकर उन्होंने अपने संघर्ष को जिस वैचारिक ऊंचाई पर पहुंचाया, वह हमारे लिए गर्व करने लायक होने के साथ ही भविष्य के क्रांतिकारी संघर्ष की अनोखी रूपरेखा है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. आवश्यक तौर पर यह भी देखा जाना चाहिए कि भगत सिंह के साथ पूरी क्रांतिकारी पार्टी थी. हम पार्टी और संपूर्ण आंदोलन को क्यों विस्मृत कर जाते हैं? हम यह क्यों नहीं याद रखते कि उनके साथ आजाद का सर्वाधिक क्षमतावान नेतृत्व होने के साथ ही क्रांतिकारी संग्राम का मस्तिष्क कहा जाना वाला भगवतीचरण वोहरा जैसा व्यक्तित्व भी था, जिन्होंने गांधी के ’कल्ट ऑफ द बम’ का तर्कपूर्ण व बौद्धिक प्रत्युत्तर ’बम का दर्शन’ जैसा ऐतिहासिक पर्चा लिख कर दिया, जो आज भी मुक्ति-युद्ध का सर्वाधिक प्रखर दस्तावेज है. दल में अंतरराष्ट्रीय संपर्कों और प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संभालने वाले विजय कुमार सिन्हा थे, तो क्रांति मार्ग के अनोखे जांबाज सिपाही बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव, राजगुरु, महावीर सिंह, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, डॉ गयाप्रसाद, कुंदन लाल गुप्त, पं किशोरी लाल, अजय घोष, दुर्गा भाभी, सुशीला दीदी, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, सुरेंद्र पांडेय, सुखदेव राज, जितेंद्र नाथ सान्याल, भगवान दास माहौर, धन्वंतरि आदि भी थे. इन सबको विस्मृत करके कहीं हम भगत सिंह को उस तरह का तो नहीं बना दे रहे हैं, इतना ऊंचा और विशाल, जिसकी तस्वीर को फिर अपने हाथों से छूना हमारे लिए मुश्किल हो जाए!
यह जान लिया जाना चाहिए कि भगत सिंह को देवत्व सौंपा जाना अंततः खतरनाक भी है. पीड़ादायक है कि ऐसा जाने-अनजाने भगत सिंह का झंडा उठाने वाले भी कर रहे हैं. भूला नहीं जाना चाहिए कि सत्तर साल लंबे क्रांतिकारी संग्राम ने ही आगे चलकर भगत सिंह को पैदा किया और वह हमारे लक्ष्यपूर्ण संघर्ष के सबसे बड़े प्रतीक और प्रवक्ता बने. यह भी कम तकलीफदेह नहीं है कि कुछ दशकों पहले तक भगत सिंह के कितने ही साथी आजाद हिंदुस्तान में सांस लेने के लिए जीवित बचे हुए थे. वे सब अज्ञात, बिना किसी शोकगीत के हमसे विदा ले गये. भगत सिंह को हिंसा के मार्ग का अनुयायी मानना भी सर्वथा गलत निष्कर्षों पर आधारित इतिहास और इस क्रांतिकारी नायक की आधी-अधूरी नाप-जोख है. भगत सिंह और राजगुरु द्वारा सांडर्स पर गोली चलाने के बाद क्रांतिकारी दल की ओर से जारी उस घोषणा पर भी गौर किया जाना चाहिए, ‘हमें एक आदमी की हत्या करने का खेद है, परंतु यह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का अंग था, जिसे समाप्त कर देना आवश्यक है. इस आदमी की हत्या हिंदुस्तान में ब्रिटिश शासन के कारिंदे के रूप में की गयी है. यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है. मनुष्य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है, परंतु क्रांति की वेदी पर कभी-कभी रक्त बहाना अनिवार्य हो जाता है. हमारा उद्देश्य एक ऐसी क्रांति से है, जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत कर देगी’.
आगे चलकर दल के निर्णयानुसार केंद्रीय असेंबली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम गिराये, वे उन्होंने कम शक्ति के और जानबूझकर ऐसी जगहों पर फेंके, जिनसे कोई हताहत न हो. भगत सिंह सचमुच एक विचारवान क्रांतिकारी थे, जिनकी आंखों में सिर्फ शोषणविहीन समाजवादी समाज के निर्माण का खूबसूरत सपना तैरता था और जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. अपने समय में क्रांतिकारी संग्राम को आतंकवादी कार्रवाइयों से निकालकर पूर्णतः विचार का जामा पहनाने वाले वही थे. वह एक ऐसे समाज निर्माण के लिए समर्पित थे, जिसमें जाति, संप्रदाय, धर्म, शोषण, हिंसा, गैरबराबरी और साम्राज्यवादी लूट-खसोट के लिए कोई जगह न हो. इस इतिहास के पुनर्पाठ का मकसद भी यही है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)