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थरूर के नाम पर कांग्रेस का अपरिपक्व रवैया

Shashi Tharoor : बड़ा विवाद शशि थरूर के नाम पर हुआ, जिन्हें सरकार ने अमेरिका जाने वाले प्रतिनिधिमंडल की कमान सौंपी है. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस ने शशि थरूर का नाम आगे नहीं बढ़ाया था. लेकिन सरकार ने न सिर्फ उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया, बल्कि उन्हें महत्व भी दिया.

Shashi Tharoor : आतंकवाद के मसले पर पूरी दुनिया के सामने पाकिस्तान को बेनकाब करने के मकसद से केंद्र सरकार अलग-अलग देशों में सात ऑल पार्टी डेलीगेशन भेजने जा रही है. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यह रही कि जहां हम एक तरफ यह बताने जा रहे हैं कि इस पूरे मसले पर भारत हर तरह से एकजुट है, वहीं घरेलू मोर्चे पर इसको लेकर सियासत भी शुरू हो गयी. यह सारा विवाद दरअसल तब पैदा हुआ, जब सरकार ने इन प्रतिनिधिमंडलों में शामिल करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों से उनकी पसंद के नाम मांगे. कांग्रेस ने अपनी ओर से जो चार नाम दिये, उनमें से केवल एक आनंद शर्मा को इनमें शामिल किया गया है. अन्य तीन नाम- गौरव गोगोई, डॉ सैयद नसीर हुसैन और राजा बरार की अनदेखी कर दी गयी. आमतौर पर जब विदेश में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजे जाते हैं, तब सत्तारूढ़ दल विपक्षी पार्टियों से जो नाम मांगता है, उनमें से 50 से 75 फीसदी तक नाम शामिल भी कर लिये जाते हैं या पारस्परिक चर्चा कर अन्य नामों पर सहमति बना ली जाती है. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.

बड़ा विवाद शशि थरूर के नाम पर हुआ, जिन्हें सरकार ने अमेरिका जाने वाले प्रतिनिधिमंडल की कमान सौंपी है. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस ने शशि थरूर का नाम आगे नहीं बढ़ाया था. लेकिन सरकार ने न सिर्फ उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया, बल्कि उन्हें महत्व भी दिया. दरअसल शशि थरूर को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच पहले से ही एक तरह से रस्साकशी का खेल चल रहा है. थरूर ने कई मुद्दों पर सरकार का समर्थन किया, जो कांग्रेस को अखरा है. हालांकि कई लोगों का मानना है कि इस मामले में सियासत को बीच में नहीं लाना चाहिए था.


पहली नजर में देखें, तो यहां कांग्रेस की ही अपरिपक्वता नजर आती है. इतने महत्वपूर्ण अवसर पर भी वह अपनी अंदरूनी राजनीति और उठापटक से बच नहीं पायी. बेशक, पिछले कुछ अरसे से कांग्रेस आलाकमान के साथ शशि थरूर के रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं चल रहे हैं. इसके बावजूद थरूर हर मायने में कांग्रेस की सूची में शामिल किये जाने के योग्य थे. अपेक्षा भी यही की जा रही थी कि कांग्रेस की सूची में उनका नाम तो होगा ही. वह विदेश नीति मामलों के बड़े जानकार हैं. विदेशी मामलों में संसद की स्थायी समिति के वह अध्यक्ष भी हैं. संयुक्त राष्ट्र में काम करने का उन्हें अच्छा-खासा तजुर्बा रहा है. दुनिया को देखने-समझने की उनकी अपनी पैनी नजर रही है. सरकार को सौंपी गयी सूची में उन्हें शामिल करने से कांग्रेस का ही मान-सम्मान बढ़ता.


इनके अलावा एक और बड़ा नाम हैं, जिन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया है. वह कांग्रेस के दिग्गज नेता सलमान खुर्शीद हैं. वह विदेश मंत्री रह चुके हैं और एक बड़ा मुस्लिम चेहरा भी हैं. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से यह नाम भी कांग्रेस की सूची से नदारद था. गौरतलब है कि फरवरी, 1994 में पाकिस्तान ने इस्लामी देशों के समूह ‘ओआइसी’ के जरिये संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में कश्मीर को लेकर एक प्रस्ताव रखा था. उसका जवाब देने के लिए नरसिंह राव सरकार ने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जो प्रतिनिधिमंडल भेजा था, उसमें सरकार की ओर से सलमान खुर्शीद भी शामिल थे. खुर्शीद उस समय विदेश राज्य मंत्री थे. वाजपेयी और खुर्शीद ने मिलकर पाकिस्तान के नापाक इरादों की धज्जियां उड़ा दी थीं. उस सफल अभियान के बाद वाजपेयी और खुर्शीद की खुशी से गले मिलती तस्वीर आज भी पुराने लोगों को रोमांचित कर देती है. लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस स्वयं खुर्शीद का नाम प्रस्तावित करने से भूल गयी या चूक गयी.

हालांकि सरकार ने उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल करके ठीक ही किया. क्या यह बेहतर नहीं होता कि कांग्रेस स्वयं अपनी ओर से यह कहती कि उनकी पूरी पार्टी खुली है, सरकार जिसे चाहे, उसे देश का पक्ष रखने के लिए प्रतिनिधिमंडलों में शामिल कर सकती है. कांग्रेस ने आखिर यह दुराग्रह क्यों पाला कि उसकी पार्टी के किसी नेता को शामिल करने से पहले सरकार को उससे पूछना चाहिए? जब नरसिंह राव सरकार ने वाजपेयी को प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई करने का जिम्मा सौंपा था, तब वाजपेयी ने अपनी पार्टी की ओर नहीं देखा था. उन्होंने उसे राष्ट्र के प्रति अपना पुनीत दायित्व समझते हुए सहर्ष सहमति दी थी. पार्टी ने भी उसे कोई मुद्दा नहीं बनाया था. वैसे ही व्यवहार की अपेक्षा इस बार कांग्रेस से थी. लेकिन यहीं मौजूदा सरकार ने भी एक गलती यह की कि उसने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को शामिल करने की पहल नहीं की.

शायद गांधी परिवार को लेकर उसके पूर्वाग्रह आड़े आ गये. अगर सरकार उनका नाम प्रस्तावित करती, तो न केवल उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती, बल्कि एक सटीक संदेश जाता कि राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रहित के मसलों पर सरकार तुच्छ सियासी गुणा-भाग की परवाह नहीं करती है. शायद यह और भी बेहतर होता कि स्वयं राहुल गांधी ही आगे बढ़कर कहते कि अगर सरकार चाहे, तो वह देश का पक्ष रखने के लिए तैयार हैं. किसी प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई नेता प्रतिपक्ष द्वारा किये जाने से भारत का प्रभाव ही बढ़ता.


कुल मिलाकर, दोनों ही पक्षों की ओर से कहीं न कहीं खुलेपन का अभाव नजर आया है. दोनों ही इस मामले में अपना बड़ा दिल नहीं दिखा पाये. यह इस बात का संकेत है कि राजनीतिक दलों के बीच मतभेद अब मनभेद में बदल चुके हैं, जो हमारी राजनीति और देश के लिए शुभ नहीं है. जहां तक इस तरह के प्रतिनिधिमंडलों की बात है, तो बेशक ये प्रतीकात्मक ही होते हैं, लेकिन फिर भी इनका अपना महत्व होता है. इस तरह के प्रतिनिधिमंडल पूरी दुनिया के सामने यह शोकेस करते हैं कि घरेलू मोर्चे पर भले ही हममें कितनी भी कटुता हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम एक हैं और आतंकवाद जैसे मसलों पर एकजुट होकर अपनी बात कहने आये हैं. हमारे सात प्रतिनिधिमंडल दुनिया के 30 से भी ज्यादा देशों में जायेंगे, जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली जैसे विकसित यूरोपीय देश, सऊदी अरब, यूएई, इंडोनेशिया, मिस्र, कतर, मलयेशिया जैसे महत्वपूर्ण मुस्लिम बहुल देश और जापान व दक्षिण कोरिया जैसे मजबूत एशियाई देश शामिल हैं. इन दौरों के दौरान यह बताना हमारा मकसद रहेगा कि आतंकवाद से केवल हम ही पीड़ित नहीं हैं, बल्कि यह पूरी दुनिया की साझा समस्या है और इसलिए इस मुद्दे पर पूरी दुनिया को एकसाथ आना चाहिए. उम्मीद है कि यह अभियान आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या के खिलाफ माहौल बनाने में मददगार साबित होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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