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काबुल से रिश्ते में सावधानी जरूरी, पढ़ें आनंद कुमार का लेख

Afghanistan Policy : भारत की अफगान नीति में बदलाव के पीछे कई ठोस कारण हैं. तालिबान और इस्लामाबाद के बीच संबंधों में आयी दरार को देखते हुए भारत पाकिस्तान की पारंपरिक 'रणनीतिक गहराई' को चुनौती देने के अवसर के रूप में देख रहा है.

Afghanistan Policy : पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण और प्रतीकात्मक घटनाक्रम में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से फोन पर बातचीत की. नयी दिल्ली और तालिबान शासन के बीच यह पहली सार्वजनिक वार्ता भारत की अफगानिस्तान नीति में एक उल्लेखनीय बदलाव का संकेत देती है. अगस्त, 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद भारत ने सावधानीपूर्वक और काफी हद तक दूरी बरतने की नीति अपनायी थी. नयी दिल्ली को तालिबान के पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक संबंधों और कठोर वैचारिक रुख, खास कर मानवाधिकार मामले को लेकर चिंता थी, लेकिन जयशंकर और मुत्ताकी के बीच वह बातचीत आपसी संपर्क में बदलाव का संकेत देती है.


यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है. विगत अप्रैल में पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने इस प्रक्रिया को गति दी. इस हमले के लिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया गया था. चौंकाने वाली बात यह रही कि तालिबान ने इस हमले की तत्काल और कड़ी निंदा की. भारत की अफगान नीति में बदलाव के पीछे कई ठोस कारण हैं. तालिबान और इस्लामाबाद के बीच संबंधों में आयी दरार को देखते हुए भारत पाकिस्तान की पारंपरिक ‘रणनीतिक गहराई’ को चुनौती देने के अवसर के रूप में देख रहा है. तालिबान ने पाकिस्तान द्वारा अफगान शरणार्थियों के साथ किये जा रहे व्यवहार और सीमाई नीतियों की बार-बार आलोचना की है.

अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी के बाद वहां अपनी उपस्थिति फिर से स्थापित करने के उद्देश्य से भारत अब पीछे नहीं रहना चाहता, खास कर तब, जब चीन निवेश और रणनीतिक आउटरीच के माध्यम से सक्रिय हो चुका है. भारत ने अफगानिस्तान के लोकतांत्रिक युग के दौरान बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में भारी निवेश किया था. इसने भारत को अफगान जनता के बीच अच्छी-खासी सद्भावना दिलायी, जिसका लाभ अब भारत उठा सकता है. भारत मानवीय सहायता को प्राथमिकता देता रहा है, जिसमें गेहूं, दवाइयां, उर्वरक और भूकंप राहत सामग्री शामिल हैं.

साथ ही, पाकिस्तान द्वारा निष्कासित अफगान शरणार्थियों के लिए सहायता देने पर भी विचार किया जा रहा है. हालांकि भारत ने तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है. खासकर महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी पर रोक जैसे मानवाधिकार मुद्दे अब भी एक बड़ी बाधा बने हुए हैं. भारतीय अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि क्षेत्रीय स्थिरता और रणनीतिक हितों के लिए बातचीत आवश्यक है, लेकिन मान्यता फिलहाल विचाराधीन नहीं है.


फिर भी, पर्दे के पीछे घटनाक्रम भरोसे की बढ़ती भावना की ओर इशारा करते हैं. कुछ अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार, तालिबान के वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी मुल्ला मोहम्मद इब्राहीम सादर, जो पाकिस्तान विरोधी माने जाते हैं, ने चुपचाप नयी दिल्ली की यात्रा की थी. यदि यह सच है, तो यह एक गहरे रणनीतिक संवाद का संकेत हो सकता है. वर्ष 2021 के बाद से भारत ने अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति को धीरे-धीरे पुनर्निर्मित किया है. वर्ष 2022 में भारत ने काबुल में एक तकनीकी टीम के साथ अपना दूतावास फिर से खोला और तालिबान अधिकारियों से विभिन्न माध्यमों से संपर्क बनाये रखा, जिनमें दुबई में बैठकें और कूटनीतिक कॉल शामिल हैं.

इसके अलावा, भारत ने तालिबान-नियुक्त राजनयिकों को दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद जैसे शहरों में अफगान मिशनों का संचालन करने की मौन अनुमति दी है. ये घटनाक्रम एक धीमी, लेकिन सतर्क सामान्यीकरण प्रक्रिया की ओर संकेत करते हैं. हालांकि, कंधार और मजार-ए-शरीफ में भारत के वाणिज्य दूतावास अब भी बंद हैं, जिससे क्षेत्रीय पहुंच सीमित है. आर्थिक हित भी इस बदलाव में शामिल हैं. भारत और अफगानिस्तान ने ईरान के चाबहार बंदरगाह के माध्यम से व्यापार को लेकर बातचीत की है, क्योंकि पाकिस्तान के माध्यम से सीधी स्थल मार्ग पहुंच अब भी अवरुद्ध है. यह सहयोग भारत की पश्चिम की ओर संपर्क क्षमताओं को मजबूत कर सकता है और पाकिस्तान पर निर्भर किये बिना मानवीय सहायता पहुंचाने में मदद कर सकता है.

हाल ही में, पाकिस्तान ने भारत के लिए सूखे मेवे और अन्य सामान ले जा रहे 160 से अधिक अफगान ट्रकों को सुरक्षा और प्रशासनिक कारणों से रोक दिया. यह घटना वैकल्पिक व्यापार मार्गों की जरूरत को रेखांकित करती है. तालिबान द्वारा भारत की ओर बढ़ाया गया हाथ उसके व्यापक कूटनीतिक प्रयास का हिस्सा है. एक जर्जर अर्थव्यवस्था और सीमित अंतरराष्ट्रीय मान्यता के बीच, काबुल का शासन पारंपरिक सहयोगियों से परे जाकर साझेदारियों की तलाश कर रहा है.

ईरान और चीन की आगामी यात्राओं के साथ-साथ भारत से जुड़ाव इस दिशा में उसके प्रयासों को दर्शाते हैं. भारत इस संदर्भ में क्षेत्रीय संपर्क, मानवीय सहायता और कूटनीतिक वैधता का संभावित स्रोत बन सकता है. अफगानिस्तान में अनुकूल सरकारों को बढ़ावा देने की पाकिस्तान की दीर्घकालिक नीति लड़खड़ा रही है. सीमाई झड़पों और शरणार्थी नीतियों को लेकर तालिबान से बिगड़ते संबंधों ने एक शून्य उत्पन्न किया है, जिसे भारत भरने के लिए तैयार दिखता है. तालिबान की ओर भारत की बदलती नीति उसकी व्यावहारिक रणनीति को दर्शाती है. नयी दिल्ली अब काबुल में सत्ता में बैठे किसी भी समूह से बातचीत कर रही है- वैचारिक समर्थन के कारण नहीं, बल्कि अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए.


हालांकि इसी बीच चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठक और अफगानिस्तान का चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीइसी) में शामिल होने का फैसला चिंताजनक है. चीन और पाकिस्तान द्वारा सीपीइसी को अफगानिस्तान तक ले जाना भारत की सुरक्षा और क्षेत्रीय हितों के लिए खतरा है. अफगानिस्तान के सीपीइसी का हिस्सा बनने से पाकिस्तान को क्षेत्र में रणनीतिक बढ़त मिल जायेगी. अफगानिस्तान की विकास परियोजनाओं में भारत ने सबसे ज्यादा निवेश किया है. लेकिन अफगानिस्तान का सीपीइसी का हिस्सा बनने से चीन वहां भारत के असर को कम कर सकता है. इस कारण काबुल के साथ रिश्ते में नयी दिल्ली को फूंक-फूंक कर कदम उठाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

आनंद कुमार
आनंद कुमार
डॉ. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (MP-IDSA) में एसोसिएट फेलो हैं। डॉ. कुमार अब तक चार पुस्तकें लिख चुके हैं और दो संपादित ग्रंथों का संपादन कर चुके हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक Strategic Rebalancing: China and US Engagement with South Asia है।

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