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टीवी स्क्रीन पर स्मृति ईरानी की वापसी, पढ़ें प्रभु चावला का लेख

Smriti Irani: 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' नये रूप में आगामी 29 जुलाई से छोटे पर्दे पर आ रहा है. क्या ईरानी का सांस्कृतिक पुनरुत्थान उनका राजनीतिक पुनरुत्थान भी साबित होगा? जब 2029 तक कई वरिष्ठ भाजपा नेता ढलान पर चले जायेंगे, तब भाजपा की विचारधारा का प्रतिनिधित्व ईरानी से बेहतर कौन कर पायेगा, जो महिला नेतृत्व को परिभाषित करती हैं, जो राहुल गांधी से मुकाबला कर सकती हैं, और जो प्रतीकात्मकता से लैस अपनी वापसी की पटकथा लिख सकती हैं? ईरानी सुषमा स्वराज की प्रभावी उत्तराधिकारी साबित हो सकती हैं.

Smriti Irani: इस देश के सार्वजनिक जीवन में स्मृति ईरानी की तरह कठिन लड़ाई लड़ने, चमक भरी लपट के साथ जल उठने या तेजी से गिरने के दूसरे उदाहरण कम ही होंगे. ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ की आगामी 29 जुलाई से दोबारा शुरुआत दरअसल ईरानी का पुनर्जागरण है. यह वापसी नहीं, पुन: प्रवेश है. यह ईरानी की सुचिंतित सांस्कृतिक विजय है. राजनीति में वापसी अक्सर प्रतीकात्मकता, निहितार्थ और प्रतिध्वनि में दिखाई पड़ती है. इस कारण तुलसी- ईरानी को छोटे पर्दे पर फिर से लाये जाने को नॉस्टैल्जिया नहीं कह सकते, यह विमर्श का द्वंद्व है. कभी तुलसी भारतीय टेलीविजन पर संस्कारी संप्रभु थीं. अब दोबारा तुलसी की भूमिका में ईरानी शक्ति, उपस्थिति और व्यक्तित्व के समायोजन को चतुराई के साथ पेश करेंगी.

‘ईरानी हार नहीं मानतीं, नया रास्ता बनाती हैं’

वर्ष 1976 में दिल्ली के एक सामान्य परिवार में पैदा हुईं ईरानी का राजनीतिक उत्थान किसी की कृपा का नतीजा नहीं था. उन्होंने शून्य से शुरुआत की. मैक्डोनाल्ड्स में नौकरी करने से लेकर तुलसी वीरानी की भूमिका के जरिये प्राइम टाइम में राज करने तक उन्होंने मध्यवर्गीय जीवन बोध को उसकी संपूर्ण प्रामाणिकता के साथ पेश किया. पर महत्वाकांक्षा भूखे पशु की तरह होती है. शुरू में भाजपा पर नजर रखने वालों ने ईरानी को दूसरी टेलीविजन शख्सियतों की तरह खत्म हुआ मान लिया था. पर ईरानी ने अपनी वक्तृत्व कला को अपनी ताकत बना लिया. पहला चुनाव हार जाने के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 2019 के लोकसभा चुनाव में वह कर दिखाया, जिसे बहुतेरे लोग असंभव समझते थे- उन्होंने कांग्रेस के वंशवादी किले अमेठी में राहुल गांधी को हरा दिया. मतपेटी के एक निर्मम प्रहार से उन्हें ‘जायंट किलर’ का तमगा मिल गया और इस उपलब्धि पर तालियों की गूंज भारतीय राजनीति में दूर तक सुनी गयी. वर्ष 2014 से 2024 तक उन्होंने केंद्र में शिक्षा, वस्त्र, अल्पसंख्यक मामले और बाल विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का मसौदा तैयार करने में उन्होंने मदद की, हथकरघे के गौरव को पुनर्प्रतिष्ठित किया, वक्फ बोर्ड में सुधार किया और बाल विकास से जुड़े विमर्श को नया रूप दिया. उनकी भूमिका महज आलंकारिक नहीं, कार्यकारी थी. पर राजनीति जिस उदारता से पुरस्कृत करती है, उससे अधिक कठोरता से दंड देती है. वर्ष 2024 में गांधी परिवार के एक निष्ठावान कार्यकर्ता किशोरीलाल शर्मा ने अमेठी में स्मृति ईरानी को 1.67 लाख वोटों से हरा दिया. नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में हालांकि कुछ पराजितों को समायोजित किया गया, पर ईरानी को किनारे कर दिया गया. पर ईरानी हार नहीं मानतीं, नया रास्ता बनाती हैं.

क्या ईरानी को थोड़े समय के लिए छुट्टी दी गयी है?

ईरानी यह भी जानती हैं कि भारत जैसे देश में, जहां राजनीति रंगमंच और टेलीविजन धर्मशास्त्र है, छोटा पर्दा ही असली जगह है. तुलसी के किरदार की वापसी की उनकी घोषणा रिरियाहट नहीं, सिंहनाद थी. ईरानी ने इसे ‘साइड प्रोजेक्ट’ कहा, लेकिन यह 2029 के लोकसभा चुनाव के पहले आ रही है. क्या यह महज संयोग है? या सुनियोजित सांस्कृतिक पहल? डिजाइनर गौरांग शाह के साथ मिलकर, खुद को फिर से भारतीय वेशभूषा में पेश कर और तुलसी के किरदार को दोबारा रचते हुए उसे जलवायु, लैंगिक न्याय और सामाजिक हिस्सेदारी की योद्धा के रूप में पेश कर पूर्व केंद्रीय मंत्री फैशन को फंक्शन, नाटक को कूटनीति और टेलीविजन को रूपांतरण से जोड़ रही हैं. इसका असर होता है. ईरानी पांच भाषाएं जानती हैं. पांच तरह के पेशों- संस्कृतियों से उनका जुड़ाव है- बॉलीवुड, नौकरशाही, भारतीयता, कारोबार और बड़ी तकनीकी कंपनियां. बिल गेट्स से जुड़ाव ने ईरानी को एक मंत्री से कहीं ज्यादा कद्दावर बनाया. जब भाजपा के कई कद्दावर नेता रिटायर या अप्रासंगिक होने के कगार पर हैं, तब ईरानी रोमांचक, भाषणपटु और अप्रत्याशित बनी हुई हैं. हालांकि ईरानी सर्वत्र प्रशंसनीय नहीं हैं. उनकी आक्रामक शैली, अदम्य महत्वाकांक्षा और गांधी परिवार से सार्वजनिक तकरार से राजनीति ध्रुवीकृत हुई है. आखिर भाजपा ने, जिसे करिश्माई महिला नेत्रियों की अत्यंत आवश्यकता है, अपनी चमकदार नेत्री को बैठाकर क्यों रखा है? क्या ईरानी को थोड़े समय के लिए छुट्टी दी गयी है? या तुलसी 2.0 ईरानी को वापस लोगों के लिविंग रूम में ले आयेगी? क्या ईरानी का सांस्कृतिक पुनरुत्थान उनका राजनीतिक पुनरुत्थान भी साबित होगा? जब 2029 तक अनेक वरिष्ठ भाजपा नेता ढलान पर चले जायेंगे, तब भाजपा की विचारधारा का प्रतिनिधित्व ईरानी से बेहतर भला कौन कर पायेगा, जो महिला नेतृत्व को परिभाषित करती हैं, जो राहुल गांधी से मुकाबला कर सकती हैं, और जो प्रतीकात्मकता से लैस अपनी वापसी की पटकथा लिख सकती हैं? जिस पार्टी में गंभीर महिला नेत्रियों का अभाव है, वहां ईरानी सुषमा स्वराज की प्रभावशाली उत्तराधिकारी साबित हो सकती हैं.

ईरानी ने लोकसभा की सीट भले खो दी, पर उनकी पटकथा उनके पास है

नहीं, ईरानी टेलीविजन पर सिर्फ अपने पसंदीदा किरदार को दोबारा निभाने नहीं जा रहीं, यह उनकी लंबी योजना का हिस्सा है. यह हाशिये पर धकेल दिये गये एक सितारे की कहानी भर नहीं है, जो चर्चा में बने रहना चाहती है. यह एक सांस्कृतिक पूंजीवादी का गणित है, जिसे नौटंकी और स्मृति चालित लोकतंत्र में छोटे पर्दे के महत्व की बखूबी समझ है. ईरानी ने लोकसभा की सीट भले खो दी, पर उनकी पटकथा उनके पास है- वह जानती हैं कि राजनीतिक रंगमंच पर अपनी भूमिका निभा चुकने के बाद अब वह टेलीविजन पर भावुक किरदार निभाने जा रही हैं. उनका टेलीविजन धारवाहिक सिर्फ नाटक नहीं, रूपक है. तुलसी अब सिर्फ बहू नहीं रहीं, सामाजिक संवादों का वाहक बन गयी हैं, जिसमें लैंगिक समानता, पर्यावरणीय मूल्य और सांस्कृतिक निरंतरता की बात है. टेलीविजन पर वापसी की घोषणा के साथ ईरानी ने जता दिया है कि उन्हें भुलाया नहीं जा सकता. ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के 150 एपिसोड दिखाये जाने हैं, लिहाजा 2029 के चुनाव से पहले ईरानी की सार्वजनिक जीवन में वापसी इससे शानदार नहीं हो सकती थी. जब भारतीय लोकतंत्र 2029 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार हो रहा है, तब ईरानी अपनी सबसे यादगार भूमिका निभाने को तैयार हैं. यह भूमिका तुलसी की नहीं, एक असाधारण व्यक्तित्व की है. दरअसल ईरानी बेहतर समझती हैं कि इस देश में छवि ही विचारधारा है. और कई बार ढंग से पहनी गयी साड़ी भाषण से ज्यादा प्रभावी साबित होती है. जाहिर है, तुलसी कभी सिर्फ एक भूमिका नहीं थीं- वह माध्यम और संदेश, दोनों थीं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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