Sports and career : हाल ही में बैडमिंटन खिलाड़ी व प्रशिक्षक पुलेला गोपीचंद ने युवाओं को सलाह दी है कि वे अपना करियर खेल में तभी बनाने की सोचें, जब वे आर्थिक रूप से संपन्न हों. पुलेला गोपीचंद खेल की दुनिया का एक बहुत बड़ा नाम हैं. चूंकि वे खुद खेल एकेडमी चलाते हैं, सो उनके हाथों में बहुत से बच्चों का भविष्य रहता है. यदि उन्होंने इतनी बड़ी बात बोली है, तो कुछ सोचकर ही बोला होगा. यह केवल उनकी कहानी नहीं है, यह उन सबकी कहानी है, जो खेलों को प्रोत्साहन देते हैं, खेल को बढ़ावा देने से जुड़े हैं. उन सभी के मन में यह विचार रहता ही है कि यदि उनके बच्चे इंडिया नहीं खेले या उस स्तर पर नहीं पहुंचे, तो उनका भविष्य क्या होगा. बेशक, यह चिंता का विषय तो है ही.
एक स्पोर्ट्स प्रमोटर के तौर पर मैं ऐसा मानता हूं कि आपके पास खेलों के अलावा दूसरी एक और स्किल होनी चाहिए- चाहे वह पढ़ाई ही क्यों न हो. यदि आपके पास केवल खेल है और दूसरी कोई स्किल नहीं है, तो यह आपके भविष्य के लिए ठीक नहीं है. ऐसे में यदि आपको नौकरी भी मिलेगी, तो बहुत मामूली-सी. यदि आपने अच्छी शिक्षा प्राप्त की है, तो आपको अच्छी नौकरी तो मिल ही जायेगी. लिहाजा, इन दोनों के बीच संतुलन बनाना जरूरी है.
पुलेला गोपीचंद ने भी यही बात कहने की कोशिश की है. हालांकि खेलों के जरिये भी बहुत से लोगों को सरकारी नौकरी मिली है. ऐसी एकेडमी भी हैं, जहां से बहुत से खिलाड़ी निकले हैं. यदि वे राष्ट्रीय स्तर पर नहीं खेले, तब भी उनको अच्छी प्रतिष्ठित नौकरी मिली है. दूसरी बात, आजकल खेलों में भी खूब पैसे आ रहे हैं. कबड्डी खिलाड़ियों को ही लें, तो जो ग्लैमर उनके खेल में आया है, वह पहले नहीं था. अभी हॉकी इंडिया लीग हुई है, उसमें भी खिलाड़ियों को अच्छी-खासी धनराशि मिली है. अगर ये युवा खेलों में नहीं होते, तो उन्हें इतना पैसा नहीं मिलता. ऐसा नहीं है कि यहां बिल्कुल भी पैसा नहीं है. हॉकी, कबड्डी समेत कई ऐसे खेल हैं, जिनमें पैसे आ रहे हैं. यदि आप क्रिकेट से तुलना करना बंद कर दें, तो बाकी खेलों में भी काफी पैसे हैं. मेरे हिसाब से तो खेलों के माध्यम से अपने भविष्य बनाने का सपना देखना, अच्छा खिलाड़ी बनने का सपना देखना बुरी बात नहीं है. यदि आपके भीतर कुछ कर दिखाने का जज्बा है, तो खेलों से अच्छी और कोई बात हो नहीं सकती. हां, इसके लिए मेहनत करनी होगी, अपनी प्रतिभा को निखारना होगा और अपने भीतर जज्बा पैदा करना होगा.
खेलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार भी काफी प्रयास कर रही है. हालांकि यह भी जरूरी है कि आप खिलाड़ियों की आपस में तुलना मत करें. जहां तक नौकरी का प्रश्न है, तो एक रेलवे में टीसी है, या गार्ड है, तो वह बैंक क्लर्क से कम नहीं है. उसे भी अच्छा-खासा पैसा मिलता है. दोनों का जीवन अच्छी तरह चलता है. हां, थोड़ा ऊपर-नीचे हो सकता है, पर दोनों के पास जीवन में सब कुछ है. यह भी सच है कि हर कोई सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली या सायना नेहवाल नहीं बन सकता. हजारों-लाखों लोग खेलते हैं, और उनमें से गिने-चुने खिलाड़ी ही इस स्तर पर पहुंचते हैं. दूसरी ओर, यदि आपके पास क्षमता है, तैयारी अच्छी है, तब भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आप राष्ट्रीय स्तर पर खेलेंगे. ऐसे में, आपके पास प्लान बी तैयार रहना चाहिए. आपको यह बात पहले से ही निर्धारित करके रखनी होगी कि यदि आपको राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का अवसर नहीं मिलता है, तो आपका दूसरा करियर तैयार रहना चाहिए. यानी आप इसके बाद कहां जायेंगे, किस दिशा में आगे बढ़ेंगे, इसकी तैयारी पहले से करके आपको रखनी होगी. ऐसी स्थिति में आपका भविष्य सुरक्षित रहेगा.
आजकल हर प्रदेश, हर शहर, हर जिले में, ढेर सारी खेल अकादमियां फल-फूल रही हैं. वे बड़े-बड़े दावे करती हैं. बड़ी फीस भी लेती हैं. टेनिस की यदि बात करें, तो जो बच्चे मध्यम स्तर पर खेल रहे हैं, उनको रैकेट, जूते, कोचिंग की फीस आदि के रूप में महीने का कम से कम पचास-साठ हजार रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं. उसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि आप खेल में ऊंचा मुकाम हासिल कर पायेंगे. यहां माता-पिता को अपने बच्चों की प्रतिभा को पहचानना जरूरी है. हर एक माता-पिता को अपना बच्चा बिल्कुल हीरो दिखता है. उन्हें पूरा विश्वास होता है कि उनका बच्चा एक बड़ा खिलाड़ी बनेगा. ऐसा नहीं होता है.
मेरे ख्याल से पुलेला गोपीचंद की बातों को ठीक संदर्भ में लिया जाना चाहिए. उन्होंने बहुत गंभीर बात बोली है. यह विषय इतना आसान है नहीं जितना हमें दिखता है. बहुत गूढ़ व संवेदनशील है और इसके ऊपर चिंतन करने की जरूरत है. आप अपने बच्चे का भविष्य एक कोच के हाथ में दे रहे हैं और उसको अपनी सारी पूंजी भी दे रहे हैं. अपना समय भी खर्च कर रहे हैं. इतने के बाद भी परिणाम शून्य आ रहा है, तो यह चिंता वाली बात तो है ही. खेलों में बहुत राजनीति है, भाई-भतीजावाद है. ऐसे में, बच्चे के अवसादग्रस्त होने की आशंका भी बहुत अधिक रहती है. लिहाजा, बहुत ज्यादा उम्मीदें करना मेरे दृष्टिकोण से बहुत खतरनाक है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(फिल्म ‘चक दे इंडिया’ लेखक के जीवन पर आधारित.)