Student suicide : बीते शनिवार आइआइटी बॉम्बे में पढ़ रहे 22 वर्षीय छात्र रोहित सिन्हा ने अपने हॉस्टल की इमारत से कूद कर जान दे दी. इसके पूर्व आइआइटी खड़गपुर और शारदा यूनिवर्सिटी में भी दो छात्रों ने अपनी जान दे दी. वर्ष 2005 से 2024 तक आइआइटी में कुल 110 आत्महत्याएं दर्ज की गयी हैं. इनमें से 37 मामले 2019 से 2024 के बीच हुए.
गौरतलब है कि बीते माह सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस विक्रमनाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने 17 वर्षीय नीट अभ्यर्थी की दुखद मृत्यु, जो आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम स्थित एक निजी कोचिंग संस्थान में मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रही थी, के संबंध में निर्णय देते हुए कहा कि ‘यह स्थिति एक प्रणालीगत विफलता है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और छात्रों को मनोवैज्ञानिक संकट, शैक्षणिक बोझ तथा संस्थागत असंवेदनशीलता से बचाने के लिए तत्काल संस्थागत सुरक्षा उपायों को अनिवार्य किया जाये.’
वहीं 24 मार्च, 2025 को न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने 2023 में आइआइटी दिल्ली में पढ़ाई के दौरान आत्महत्या करने वाले दो छात्रों के मामले में फैसला देते हुए कहा कि ‘निजी शिक्षण संस्थानों सहित उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों की आत्महत्या की बार-बार होने वाली घटनाएं दर्शाती हैं कि परिसरों में छात्रों की मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को दूर करने और उन्हें आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाने से रोकने के लिए मौजूदा कानूनी और संस्थागत ढांचे अपर्याप्त और अप्रभावी हैं.’
न्यायालय की चिंताएं स्पष्ट रूप से उल्लेखित करती हैं कि छात्रों का जीवन अब खतरे में है, परंतु इसके लिए क्या किसी एक व्यक्ति को दोषी ठहराया जा सकता है या संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था इतनी विषाक्त हो चुकी है कि वह युवा पीढ़ी को स्वयं को खत्म करने के लिए विवश कर रही है. अधिकांशत यह तर्क दिया जाता है कि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले विद्यार्थी परीक्षा में असफल होने के डर से आत्महत्या करते हैं. यदि ऐसा है तो उच्च शिक्षण संस्थानों में उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त आइआइटी में अध्ययनरत विद्यार्थी अपने जीवन को क्यों समाप्त कर रहे हैं, स्पष्ट है कि उन पर असफल होने का दबाव नहीं है.
यह मुद्दा यकीनन ‘असफलता’ का है, पर यह असफलता सिर्फ परीक्षा से संबंधित नहीं है. हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया कुछ ऐसी हो गयी है जहां अभिभावक अपने बच्चों को असंवेदनशील होना सीखाते हैं. रिश्ते, मित्रता और सामान्य जीवन जीने की प्रक्रिया को बाधित कर बच्चों को मशीन बनाने का प्रयास किया जाता है, जहां सफलता के मायने सामाजिक मानकों के अनुरूप सुनिश्चित किये गये शिक्षण संस्थाओं और कुछ विशिष्ट विषयों का चुनाव करते हुए डॉक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक पदों को प्राप्त करने में है. इससे इतर, अगर बच्चे किसी और क्षेत्र में जाने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें असफल और नाकारा कहा जाता है तथा उनकी बौद्धिक क्षमता को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है.
अपने माता-पिता के सपनों का बोझ अपने कंधों पर लादे ये बच्चे टूटते चले जाते हैं, परंतु उनकी खामोशी को अभिभावकों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है. माता-पिता का अपनी संतान को लेकर यूं स्वार्थी होना सहज तो नहीं, परंतु सत्य है. इसका कारण वह सामाजिक दबाव है जो उन माता-पिता को असफल मानता है जिनके बच्चे समाज द्वारा सुनिश्चित संस्थाओं और पदों तक नहीं पहुंच पाते. जीवन में सफलता के मायने इतने संकुचित हो चुके हैं कि ये बच्चे केवल किताबों तक अपनी दुनिया जीते हैं. इसके अतिरिक्त उनकी कोई भी खुशी किसी के लिए भी मायने नहीं रखती.
माता-पिता को सामाजिक रूप से लज्जित न करवाने का दबाव बच्चों को विवश करता है कि वे अपना जीवन समाप्त कर लें. एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जो बच्चे सामाजिक मापदंडों के अनुरूप निर्धारित शिक्षण संस्थानों में स्थान पा चुके हैं, वे क्यों आत्महत्या कर रहे हैं? इसका उत्तर समाजीकरण की वह प्रक्रिया है, जहां बच्चों को बचपन से ही किताबें और सफलता-असफलता के गणित में उलझा दिया जाता है. मित्रता, मित्र के साथ दुख और सुख को साझा करना और उनकी जरूरत पर सहायता करना ‘परवरिश’ के शब्दकोश से गायब हो चुके हैं, जिसके चलते ये बच्चे बहुत अकेले हो चुके हैं. हॉस्टल, कॉलेज और कोचिंग संस्थानों में उनके पास कोई ऐसा अपना नहीं होता जिससे वे अपना दुख-दर्द, सपने, परेशानियां बांट सकें.
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने ऐसी सामाजिक व्यवस्था खड़ी की है जहां या तो आप असफल होते हैं या फिर प्रतिभाशाली. इस व्यवस्था में कोई लचीलापन नहीं है. लाचारी और निराशा की भावना दुखद क्षति का कारण बन रही है. अभी समय है कि हम चेत जायें और अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर न डालें. यह मानें कि हर बच्चा अपने आप में विशिष्ट है. यह समाज को सोचना है कि उन्हें बच्चों का जीवन चाहिए या तथाकथित झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा. हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं, हमें मानव बने रहने के लिए अपनी भावनाओं को जीवित रखना जरूरी है. यह भावनाएं तभी जीवित रह सकती हैं जब उनको साझा करने के लिए हमारे पास मित्र, परिवार और संवेदनशील समाज हो.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)