–डॉ रश्मि सिंह राणा, विभागाध्यक्ष, विधिक अध्ययन बनस्थली विद्यापीठ–
Supreme Court : सर्वोच्च न्यायालय भारतीयों के लिए न्याय का प्रथम तथा अंतिम सहारा है. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णयों से ना सिर्फ लोकतंत्र की सच्ची नींव रखी अपितु एक संस्था के रूप में अपनी साख को भी संजोये रखा. सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीयों के मूलभूत अधिकारों को और संविधान के आधारभूत ढांचे को सुरक्षित बनाये रखने में अपनी अहम भूमिका निभाई है. सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न अवसरों पर अपने निर्णयों की दक्षता के माध्यम से भारतीय नागरिकों की अपेक्षाओं और इच्छाओं को सिद्ध किया.
कई बार ऐसा भी हुआ कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों पर सवाल उठे, जैसे कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय अत्यधिक लंबे, भाषा की दृष्टि से जटिल और क्लिष्ट होते हैं तथा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णयों में विदेशी न्यायिक दृष्टांतों (नजीरों) पर अत्यधिक निर्भर रहते हैं, किंतु यह सत्य नहीं. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के संदर्भ में बनस्थली विद्यापीठ में किए गए एक शोध में इस मिथक के विरुद्ध निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए.
85% से भी अधिक निर्णय संक्षिप्त
इस शोध में दी गई तालिका से यह स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2016 से 2020 के बीच लगभग 5502 निर्णय दिये जिसमें मात्र 1245 विदेशी नजीरों जबकि 24160 भारतीय नजीरों को उद्धृत किया गया. न्यायालय के 85% से भी अधिक निर्णय 30 पृष्ठों से भी कम हैं जो इस मिथक के विपरीत है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय अत्यधिक लंबे, जटिल और क्लिष्ट होते हैं.
इस अध्ययन में यह भी पाया गया था कि भारतीय जनता कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, तीनों संस्थाओं में से सबसे अधिक आस्था न्यायपालिका में रखती है . इसका मुख्य कारण यह है कि सर्वोच्च न्यायपालिका के निर्णय निष्पक्ष होते हैं. भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भारतीय पारंपरिक ज्ञान परंपरा की झलक मिलती है. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पंकज मित्तल ने यह कहा है कि विधि विश्वविद्यालय और विश्वविद्यालय में विधि पाठ्यक्रम में वेदों, महाभारत, रामायण तथा पुराण में निहित विधि-दर्शन को औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम में लागू किया जाए है, जिससे भारतीय न्यायिक व्यवस्था का भारतीयकरण संभव हो सके.
सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय जैसे ‘बच्चन सिंह vs राज्य जिसे ’ जिसे विरले से विरलेतम (Rare of the rarest) मामला कहा जाता है में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि मृत्युदंड सिर्फ विरले से विरलेतम मामले में ही दी जा सकती है. इस निर्णय का प्रमुख आधार राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 1979 SC 916) की नजीर थी, जिसमें न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने कहा भारत, गौतम बुद्ध, महावीर और गांधी की भूमि है, भारतीय संस्कृति में जीवन सृष्टि द्वारा दत्त और प्रदत्त माना जाता है, इसका हरण विरलतम परिस्थितियों में ही संभव है.
इसी प्रकार मेनका गांधी बनाम भारत संघ का मामला है जिसे हम व्यक्ति की गरिमा का मामला भी कहते हैं. इस मामले यह भी स्थापित किया गया कि ‘विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के मूल अधिकार में विदेश भ्रमण का अधिकार भी शामिल है . सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में उद्धृत करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विचारों के आदान-प्रदान हेतु विदेश भ्रमण तथा विदेशियों के आगमन की एक लंबी परंपरा है. हितोपदेश और नीति शास्त्र को उद्धृत करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा भारतीय संस्कृति कूपमंडूक बने रहने की प्रथा का समर्थन नहीं करती है. यह मानव के प्रगतिशील होने की दिशा में बाधक है.
इसी प्रकार ‘निजता के अधिकार’ (Right to Privacy) को लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय केएस पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ में न्यायाधीशों ने निजता के अधिकार को परिभाषित करते हुए रामायण, महाभारत, गृहसूत्र तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र को उद्धृत करते हुए इसे मूलाधिकार के रूप में स्वीकृत किया.
कलिंदी दामोदर गार्डे बनाम मनोहर लक्ष्मण कुलकर्णी एवं अन्यके मामले मे जब एक दिलचस्प प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय आया कि क्या किसी व्यक्ति को गोद लिये जाने से पूर्व जन्मे उसके पुत्र को उसकी सम्पत्ति में उत्तराधिकारी होने का अधिकार है या नहीं? या दत्तक लिये जाने के पश्चात जन्मे बच्चे को ही सम्पत्ति उसकी सम्पत्ति में उत्तराधिकारी होने का अधिकार होगा? इस प्रश्न को सुलझाने के लिये भी सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दू शास्त्रों से इस तर्क को उद्धृत किया, किसी भी प्रकार से पिता को पिता होने से निरूद्ध नहीं किया जा सकता हैं.’ और स्थापित किया दत्तक से पूर्व तथा पश्चात जन्मे हर बच्चे समान रूप उत्तराधिकारी होने का अधिकार है .अतः यह कहना अनुचित न होगा कि सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णयों में दिये गये इन ही तर्कों एवं मूल्यों से ही जनमानस के हदय में अपना स्थान बनाया है. भारतीय पारंपरिक ज्ञान जो आदिकालीन है किंतु इसके सिद्धान्तों की उपादेयता आज भी प्रासंगिक है तथा शोधकर्ताओं के लिए शोध का विषय है. अतः भारतीय विधिक दर्शन का विधिक शिक्षा में शामिल किया जाना सुसंगत है.