स्वदेशी कोई नारा नहीं है, यह जीवन जीने का संपूर्ण तरीका है. आधुनिक भारत में इस चिंतन को सबसे पहले प्रचारित करने का श्रेय महात्मा गांधी को जाता है, पर इस चिंतन के असली प्रणेता सरना आदिवासियों के धर्मगुरु जतरा टाना भगत हैं. उन्होंने इस चिंतन को न केवल उद्घाटित और परिभाषित किया, अपितु अपने आंदोलन का हथियार भी बनाया. महात्मा गांधी को इसे प्रचारित करने का श्रेय जाता है. जतरा टाना भगत के जीवन मूल्यों व संघर्षों को इतिहास में सीमित स्थान मिला. इस कारण उनके अनमोल विचारों से दुनिया अपरिचित रही. जतरा टाना भगत ने महात्मा गांधी के असहयोग व स्वदेशी आंदोलन से कई वर्षों पूर्व स्वदेशी, सहकार, स्वावलंबन तथा अहिंसा पर आधारित जीवन जीने की कला विकसित की और अपने समाज के लोगों को प्रबोधित किया. यही प्रबोधन आगे चलकर आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया. फिरंगियों को लगने लगा कि यह आंदोलन यदि राष्ट्रीय फलक पर पहुंच गया, तो उन्हें देश छोड़ना पड़ सकता है.
हालांकि जतरा टाना भगत के उस आंदोलन को फिरंगियों ने कुचल दिया, पर उसका असर आज भी देखने को मिल जाता है. गांधी जी जतरा द्वारा किये गये सफल प्रयोग से बेहद प्रभावित थे. उन्हें ऐसा लगा कि स्वतंत्रता समर में यदि इन हथियारों का उपयोग किया जाए, तो बहुत कम शक्ति खर्च कर अंग्रेजों को भारत से भागने के लिए मजबूर किया जा सकता है. महात्मा गांधी ने इसका प्रयोग किया और उन्हें सफलता भी मिली. उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अहिंसक आंदोलन प्रारंभ किया. बाद में स्वदेशी, सहकार और स्वावलंबन को हथियार के रूप में प्रयुक्त करने की भरपूर कोशिश की. गांधी के प्रयोग सफल होते गये और अंततोगत्वा फिरंगियों को न केवल भारत छोड़कर जाना पड़ा, अपितु वह अपनी मूलभूमि के कुछ खास द्वीपों तक सिमट कर रह गये. कभी जो ग्रेट ब्रिटेन कहलाता था, आज वह महज यूनाइटेड किंगडम बन कर रह गया है.
आधुनिक भारत में गांधी के बाद स्वदेशी धारा को सबसे मजबूत संबल प्रदान करने की जिम्मेदारी विनोबा भावे, डॉ राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि ने निभायी. फिर इस आंदोलन को और ज्यादा मजबूती प्रदान करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतकों ने उठायी. संघ के द्वितीय सरसंघचालक, माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने अपने भाषणों और व्याख्यानों में कई बार स्वदेशी की चर्चा की. साथ ही, स्वयंसेवकों से आह्वान किया कि यथाशक्ति वे स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करें और समाज में इस बात की चर्चा करें कि स्वदेशी वस्तु के उपयोग और प्रयोग से ही हमारा देश समृद्ध बनेगा. गोलवलकर के बाद इस चिंतन को आगे बढ़ाने में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की बड़ी भूमिका मानी जाती है. पंडित उपाध्याय ने इस चिंतन में अंत्योदय की धारणा को भी जोड़ दिया और कहा कि स्वदेशी, स्वावलंबन तभी सफल हो सकता है, जब समाज की अंतिम पंक्ति पर खड़े व्यक्ति को विकास का लाभ पहुंचाया जा सके.
इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन क्रमवार तरीके से विभिन्न स्वदेशी विचारधाराओं के चिंतकों के माध्यम से आगे बढ़ता रहा और आज कई मायने में यह हमारे देश को समृद्ध और सशक्त बना रहा है. विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत ने ऐसी कई स्वदेशी मशीनें विकसित की है, जिनके माध्यम से हम अंतरिक्ष में अपनी पकड़ बेहद मजबूत बना सके हैं. हमारे वैज्ञानिकों ने स्वदेशी पद्धति के आधार पर ऐसे कई हथियारों के आविष्कार किये हैं, जो सस्ते हैं और उनकी मारक क्षमता के सामने दुनिया नतमस्तक हो रही है. हाल में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर से ‘स्वदेशी अपनाओ’ का आह्वान किया. यह केवल एक नारा नहीं है, अपितु हमारी ताकत बढ़ाने का एक प्रभावशाली तरीका भी है. यदि हम स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग प्रारंभ करते हैं, तो हमारी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी.
स्वदेशी को हम केवल वस्तुओं के उपयोग तक ही सीमित न रखें, हमें संपूर्ण जीवन पद्धति के रूप में उसका उपयोग करना चाहिए. जिस प्रकार महात्मा गांधी ने हमें स्वदेशी जीवन का चिंतन दिया है, हमें उसी प्रकार स्वदेशी चिंतन पद्धति के आधार पर अपना जीवन जीना चाहिए. यह देश को सशक्त बनाने का एक महत्वपूर्ण हथियार है. जिस प्रकार महात्मा गांधी ने स्वदेशी, स्वावलंबन, सहकार और अहिंसा के माध्यम से फिरंगी ताकत को भारत से खदेड़ने में सफलता हासिल की, उसी प्रकार आधुनिक सामाज्यवादी शक्तियों को धूल चटाने के लिए हमें स्वदेशी चिंतन को अपनाना पड़ेगा.
हमें स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग के लिए संकल्प लेना चाहिए. जिस किसी वस्तु के उत्पादन में स्वदेशी स्वामित्व ज्यादा होगा, हम उसके प्रयोग का प्रण करें. स्वदेशी से स्वावलंबन आयेगा, स्वावलंबन सहकारी मनोवृत्ति को मजबूत करेगा और इससे देश में एक मजबूत आर्थिक ढांचे का निर्माण होगा, जिससे हम चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो पायेंगे. प्रधानमंत्री द्वारा किया गया स्वदेशी का आह्वान समय की मांग है. हम स्वदेशी वस्तु का उपयोग समयानुकूल ढाल कर करें. साथ ही, यदि कभी मजबूरी में विदेशी वस्तुओं का उपयोग करना भी पड़े, तो उसे स्वदेशानुकूल बनाकर करें. आज का हमारा युगधर्म भी यही होना चाहिए.(ये लेखक के निजी विचार हैं.)