Voter List Revision in Bihar : अगर आपको देश के लोकतंत्र की चिंता है, तो बिहार में वोटर लिस्ट के ‘गहन पुनरीक्षण’ (अंग्रेजी में Special Intensive Revision, SIR) मुहिम पर गहन नजर रखनी चाहिए. यह मामला सिर्फ बिहार का नहीं है. वोटर लिस्ट का ‘गहन पुनरीक्षण’ अगले साल भर में पूरे देश में होने जा रहा है. पुनरीक्षण तो सिर्फ नाम है. असल में यह कोरे कागज पर नये सिरे से वोटर लिस्ट बनाने की प्रक्रिया है. आपने भले ही पिछले बीस साल में दसियों चुनाव में वोट दिया हो, अब आपको नये सिरे से साबित करना होगा कि आप भारत के नागरिक हैं और वोटर लिस्ट में होने के हकदार हैं. आपकी नागरिकता का फैसला अब कोई गुमनाम सरकारी कर्मचारी एक ऐसी जांच प्रक्रिया से करेगा, जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है.
इसलिए जरा ध्यान से समझिए कि इस ‘SIR’ की चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित प्रक्रिया क्या थी. चुनाव आयोग द्वारा अचानक 24 जून को दिये गये आदेश के अनुसार बिहार की वर्तमान वोटर लिस्ट में शामिल करीब 7.9 करोड़ व्यक्तियों को बीएलओ उनके घर जाकर आयोग द्वारा बनाये गये एक विशेष फॉर्म की दो प्रति देंगे. इस फॉर्म में पहले से उस व्यक्ति का नाम और वर्तमान वोटर लिस्ट में उसकी फोटो छपी हुई होगी. फॉर्म मिलने के बाद हर व्यक्ति को यह फॉर्म भरकर, इसमें अपनी नयी फोटो चिपकाकर अपने हस्ताक्षर सहित जमा करना होगा. और साथ में कुछ दस्तावेज नत्थी करने होंगे. जिनका नाम 2003 की मतदाता सूची में था, उन्हें सिर्फ 2003 की वोटर लिस्ट की कॉपी लगाने से काम चल जायेगा.
चुनाव आयोग का आदेश कहता था कि जिनका नाम 2003 की लिस्ट में नहीं था, उन्हें अपने जन्म की तिथि और स्थान के साथ-साथ अपने मां या पिता या फिर (अगर जन्म 2004 के बाद हुआ हो तो) अपने मां और पिता, दोनों के जन्म और स्थान का प्रमाण देना होगा. यह सब 25 जुलाई से पहले करना था. जिसका फॉर्म 25 तारीख तक नहीं आया, उसका नाम तो ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में भी नहीं आयेगा और बाद में कोई विचार नहीं होगा. जो दस्तावेज लगाने हैं, वे सब 25 जुलाई से पहले लगाने होंगे, उसके बाद अगस्त के महीने में सिर्फ जांच होगी.
इस फरमान को जारी करने के हफ्ते भर के भीतर चुनाव आयोग को जमीनी हकीकत का अहसास हो गया. फिर शुरू हुआ नित नयी छूट का सिलसिला. पहले चुनाव आयोग ने यह कहा कि जिनके माता-पिता का नाम 2003 की लिस्ट में हैं, उन्हें सिर्फ अपना दस्तावेज देना होगा, माता-पिता का नहीं. फिर अचानक अखबारों में विज्ञापन दिया गया कि बिना दस्तावेजों के भी फॉर्म जमा किया जा सकता है. उसी शाम चुनाव आयोग ने दावा किया कि मूल आदेश की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं हुआ है. फिर यह कहा कि फॉर्म की दो प्रतियां देना संभव नहीं है, बीएलओ पहले एक प्रति देगा, बाद में दूसरी भी दी जायेगी. इसके बाद कहा कि अब फोटो लगाने की भी कोई जरूरत नहीं है. लेकिन शहरों में इससे भी बात नहीं बन रही थी. तो अब म्युनिसिपल कर्मचारियों के मार्फत नये किस्म के फॉर्म भिजवाये गये, जिसमें न तो वोटर का नाम छपा था, न फोटो. इतने सब बदलाव हो गये, पर चुनाव आयोग के 24 जून के आदेश में एक भी संशोधन नहीं हुआ.
पर्दे के पीछे की जमीनी हकीकत और भी विचित्र थी. पिछले कुछ दिनों में कुछ यूट्यूबर पत्रकारों और एक-दो अखबारों ने इसका भंडाफोड़ किया है.
हुआ यह कि चुनाव आयोग के इशारे के बाद बीएलओ ने अपने रजिस्टर से घर बैठकर लोगों के फॉर्म भरने शुरू कर दिये. चुनाव आयोग को बस हर शाम प्रेस रिलीज के लिए संख्या चाहिए थी, तो पूरा तंत्र इसमें लग गया. अधिकांश लोगों को न कोई फॉर्म मिला, न उन्होंने कोई फॉर्म भरा. लेकिन उनका फॉर्म भरा गया, आंकड़े में चढ़ गया. हकीकत यह है कि जिन फॉर्मों के भरे जाने का चुनाव आयोग दावा कर रहा है, उनमें से अधिकांश में न तो दस्तावेज हैं, न फोटो हैं, न ही पूरे डिटेल्स हैं और शायद हस्ताक्षर भी फर्जी हैं. उधर जनता में अफरा-तफरी मची है. बदहवास गरीब लोग दस्तावेज की लाइन में खड़े हैं, तो कुछ प्रमाणपत्र जुगाड़ने के लिए पैसे दे रहे हैं.
हकीकत यह है कि बिहार के लगभग 40 प्रतिशत लोगों के पास चुनाव आयोग द्वारा मांगे गये दस्तावेजों में से कोई भी कागज है ही नहीं. तो अब क्या होगा? एक बात तो तय है कि 25 जुलाई तक चुनाव आयोग अपने आंकड़े को 95 प्रतिशत से पार दिखाकर विजय घोषित कर देगा. पर असली सवाल यह है कि क्या उसके बाद दस्तावेज मांगे जायेंगे? जो दस्तावेज न दे सके, उन्हें वोटर लिस्ट से निकाल दिया जायेगा? ऐसा हुआ तो करोड़ से अधिक लोगों का नाम कटेगा. या सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को अपने फरमान बदलने के लिए मजबूर करेगा? फैसला अब सुप्रीम कोर्ट के हाथ में है. लेकिन बिहार में कोई राहत मिल जाती है, तब भी आपको वोटबंदी से निजात नहीं मिलेगी. यह तलवार पूरे देश पर लटकी रहेगी. इस आदेश को खारिज करा कर ही सार्वभौम वयस्क मताधिकार को बचाया जा सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)