Youth And Beauty: प्रसिद्ध अभिनेत्री शेफाली जरीवाला की अचानक मौत ने भारत में एंटी-एजिंग उद्योग को सुर्खियों में ला दिया है. जांच में सामने आया है कि शेफाली बीते सात-आठ वर्षों से एंटी-एजिंग दवा का इंजेक्शन ले रही थीं और मौत वाले दिन भी उन्होंने यह इंजेक्शन लिया था. ऐसे में आशंका जतायी जा रही है कि कहीं इस इंजेक्शन के दुष्प्रभाव के चलते तो शेफाली की मौत नहीं हुई. चिरंतर यौवन और सौंदर्य के प्रति दीवानगी तथा उसके लिए बेशुमार दवाइयां लेना खतरे की घंटी बनकर उभरा है, परंतु उसकी आवाज हम अब भी अनसुनी कर रहे हैं. शाश्वत यौवन आधुनिक सौंदर्य का पर्याय बन गया है.
सुंदर बनने और दिखने का महिलाओं पर बहुत दबाव
हमारी संस्कृति में यौवन की ओर झुकाव ने सौंदर्य उद्योग, एंटी-एजिंग उत्पादों के बाजार को एक नयी मजबूती दी है. मार्केट एनालिसिस रिपोर्ट के अनुसार, ग्लोबल एंटी-एजिंग प्रोडक्ट के बाजार का आकार 2024 में लगभग 4,373 अरब रुपये होने का अनुमान लगाया गया था और इसके 2030 तक लगभग 6,722 अरब रुपये तक पहुंचने की संभावना है. इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि सुंदर बनने और दिखने का महिलाओं पर बहुत दबाव है. अनेक साक्ष्य सिद्ध करते हैं कि स्त्री को देह से ऊपर देखने की परंपरा शायद कभी भी नहीं रही. स्त्री समानता की अनेक क्रांतियां और संघर्ष सौंदर्य मानकों के आगे घुटने टेकते नजर आये. दुखद है कि सफलता के वास्तविक आयामों को दरकिनार करते हुए बोटॉक्स और ग्लूटाथियोन- जिसे अक्सर त्वचा में निखार लाने वाले और विषहरण एजेंट के रूप में बेचा जाता है- के इर्द-गिर्द सफलता के मानक रचे गये. बिना यह जाने-समझे कि यह जीवन के लिए घातक भी हो सकते हैं. बोटॉक्स के जोखिमों पर अप्रैल 2024 में तब चर्चा तेज हुई जब यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने एक चेतावनी जारी करते हुए कहा कि 25 से 59 वर्ष की 22 महिलाओं में बोटॉक्स के हानिकारक रिएक्शन देखे गये हैं. डाना बर्कोविट्ज की ‘बोटोक्स नेशन : चेंजिंग द फेस ऑफ अमेरिका’ पुस्तक, विशेष रूप से श्वेत महिलाओं के बीच, बोटॉक्स के बढ़ते उपयोग की पड़ताल करती है और बताती है कि कैसे सांस्कृतिक मानदंड महिलाओं को सदा सुंदर और जवान बने रहने के लिए प्रेरित करते हैं, बिना इस तथ्य पर विचार किये कि इसके भविष्य में क्या परिणाम होंगे.
नस्लीय सौंदर्य मानक भी कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनते हैं
स्त्री हो या पुरुष, सुंदर दिखने की यह कामना एकाएक इतनी प्रबल क्यों हो चुकी है? सुंदरता आज प्राकृतिक नहीं, बल्कि एक अनिवार्य गुण बन चुका है. सुंदरता के मापदंडों पर खरा उतरने का दबाव कई बार व्यक्ति के वास्तविक पहचान को नकारने की सहमति में बदलने लगता है. हम मनुष्य को उसके वास्तविक गुणों, व्यवहार की जगह केवल बाहरी गुणों के आधार पर पसंद या नापसंद करते हैं. गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श, भरे हुए होंठ, सुडौल, गठा बदन. सुंदरता के इन्हीं पितृसत्तात्मक पैमाने के खांचे में ढलने का दबाव डाला जाता है. इसका सबसे अधिक प्रभाव युवा लड़कियों पर है. इन पैमानों पर खरी उतरने वाली स्त्री ही पितृसत्तामक समाज के लिए एक सुंदर स्त्री है. दार्शनिक मेरी वोल्स्टोनक्राफ्ट लिखती हैं, ‘महिलाओं को बचपन से सिखाया जाता है कि सुंदरता ही स्त्री का सब कुछ है, जबकि असलियत में मन ही शरीर का निर्माण करता है. पर असलियत न जानने और सुंदर दिखने की बेताब चाहत ने बहुत-सी लड़कियों को अपने रूप-रंग पर भरोसा करने से रोक दिया है, जिससे दीर्घकालिक असुरक्षाएं पैदा हो रही हैं.’ सौंदर्य मानक भी नस्लवादी और श्वेत वर्चस्ववादी मानकों पर आधारित होते हैं, जो विविध पृष्ठभूमि की महिलाओं और लड़कियों को असमान रूप से प्रभावित करते हैं. त्वचा को हल्का करने वाले उपचार, आंखों के आकार व पलकों की सर्जरी, बाल सीधा करने वाले रासायनिक उत्पाद विविध पृष्ठभूमि की महिलाओं को यूरोसेंट्रिक सौंदर्य आदर्शों जैसा दिखने के लिए प्रेरित करते हैं. नस्लीय सौंदर्य मानक भी कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनते हैं, क्योंकि ऐसे उत्पादों में अक्सर एंडोक्राइन डिसरप्टर जैसे रसायन होते हैं, जो गर्भाशय और स्तन कैंसर का कारण बन सकते हैं.
हमें गर्व के साथ उम्र बढ़ने को आत्मसात करना सीखना होगा
‘ब्यूटी सिक: हाउ द कल्चरल ऑब्सेशन विद अपीयरेंस हर्ट्स गर्ल्स एंड वुमन’, नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर रेनी एंगेलन द्वारा लिखी गयी पुस्तक है. यह पुस्तक बताती है कि कैसे मीडिया, फोटोशॉप, आलोचना और किसी के रूप-रंग और वजन की दूसरों से तुलना, अंधाधुंध सौंदर्य प्रसाधन, कॉस्मेटिक सर्जरी और बोटोक्स जैसी प्रक्रियाओं को अपनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं, जिससे युवतियों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर विचलित करने वाला और स्थायी प्रभाव पड़ रहा है. ‘द ब्यूटी मिथ: हाउ इमेजेज ऑफ ब्यूटी आर यूज्ड अगेंस्ट वुमन’, में नाओमी वुल्फ अपनी लेखनी के जरिये उन ऊंचाइयों का अनुमान लगाती हैं, जिन्हें हम ‘सुंदरता’ की बेड़ियों में जकड़े न होते, तो छू सकते थे. इस चक्र को बदलने की जरूरत है. यह तभी हो सकता है जब हम सुंदरता की परत चढ़ी जेल से खुद को मुक्त करेंगे. हमें खुद को वैसे ही स्वीकार करना होगा, जैसे हम हैं. हमें गर्व के साथ उम्र बढ़ने को आत्मसात करना सीखना होगा, अपने चेहरे की रेखाओं को अपने समृद्ध जीवन द्वारा तय किये गये रास्ते का नक्शा बनाने देना होगा. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)