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Rose Kerketta Death : झारखंड की प्रसिद्ध लेखिका, कवयित्री, विचारक और आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली जुझारू महिला रोज केरकेट्टा का गुरुवार सुबह 11 बजे के करीब निधन हो गया. वे काफी समय से बीमार चल रही थीं. उनके निधन की सूचना उनके परिवार की ओर से दी गई है. उनकी उम्र 84 वर्ष थी. उनके निधन से झारखंड में शोक की लहर दौड़ गई है. पारिवारिक सूत्रों से जो जानकारी मिली है, उसके अनुसार संभवत: उनका अंतिम संस्कार कल रांची में ही किया जाएगा. उन्हें प्रभावती सम्मान, रानी दुर्गावती सम्मान और अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान से भी नवाजा गया था. उनका कहानी संग्रह पगहा जोरी-जोरी रे घाटो काफी चर्चित रहा था, जिसमें नारी मन की अभिव्यक्ति है.
रोज केरकेट्टा एक विदुषी महिला
रोज केरकेट्टा झारखंड की एक विदुषी महिला थी. उन्होंने हिंदी और खड़िया भाषा को समृद्ध करने में योगदान दिया. उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया में अनुवाद किया था. उनका जन्म झारखंड के सिमडेगा जिले में हुआ था. रांची आने से पहले वे सिमडेगा में हिंदी की शिक्षिका रही थीं. बाद में उन्हें रामदयाल मुंडा ने रांची के क्षेत्रीय भाषा विभाग में खड़िया भाषा में योगदान देने के लिए आमंत्रित किया. वे यहां खड़िया भाषा पढ़ाया करती थीं. उन्होंने महिला अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद की और महिलाओं के जीवन को सुगम बनाने का प्रयास किया. वे आदिवासी समाज में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की भी बात करती थीं और उनके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती थीं.
झारखंड में महिला अधिकारों के आंदोलन को दी आवाज
झारखंड में जिस वक्त महिला अधिकारों पर कोई बात नहीं होती थी, उस वक्त रोज दी ने महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए जागरूक किया और उनकी आवाज बनीं. झारखंड के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता मेघनाथ ने बताया कि मेरी दो दीदी हैं, जिनमें से एक को मैंने आज खो दिया. रोज दी का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है. वे एक ऐसे परिवार से आती थीं, जिन्होंने झारखंड के निर्माण में अहम भूमिका निभाई. उनके पिता प्यारा केरकेट्टा ने शिक्षा पर काफी काम किया, कई स्कूल खोले, एक तरह से झारखंड के नवनिर्माण की शुरुआत की. रोज दी काफी सजग और मृदुभाषी थीं, वो हमेशा सबकी मदद के लिए तत्पर रहती थीं.
झारखंडी महिलाओं की शिक्षक और अभिभावक थी रोज दी
झारखंड की महिलाओं ने आज अपनी अभिभावक रोज दी को खो दिया है. उन्होंने हमेशा झारखंड की महिलाओं की शिक्षक के रूप में काम किया. सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने कहा कि वो हमारे संघर्ष की साथी थीं. उन्होंने महिलाओं को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से संघर्ष करना सिखाया. उन्होंने महिलाओं को बताया कि किस रास्ते पर चलकर उन्हें उनका अधिकार मिल सकता है. रोज दी नहीं रहीं, ये हमारे लिए बहुत बड़ी क्षति है. उन्होंने संघर्ष का जो रास्ता हमें बताया है, उसपर चलना ही उनको सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी.
खड़िया और हिंदी के बीच पुल थीं रोज केरकेट्टा
रोज केरकेट्टा को याद करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार रणेंद्र कहते हैं कि रांची आने के बाद जिन विद्वानों से मैंने बहुत कुछ सीखा, उनमें रामदयाल बाबा के बाद रोज दी का ही नाम आता है. झारखंड में रोज केरकेट्टा को प्यार से रोज दी ही कहा जाता था. वे बहुत ही विनम्र और विदुषी महिला थीं. उन्होंने हिंदी और खड़िया भाषा के बीच पुल का काम किया. उन्होंने हिंदी भाषा को काफी समृद्ध किया, उनके जो दो कहानी संग्रह हैं वे हिंदी भाषा को समृद्ध करते हैं. झारखंड आंदोलन को उन्होंने बौद्धिक स्तर पर अपना समर्थन दिया.
एक संवदेनशील महिला रोज केरकेट्टा
रोज केरकेट्टा को याद करते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास बताते हैं कि वे सिर्फ एक विदुषी ही नहीं एक संवेदनशील महिला भी थीं. उन्होंने ना सिर्फ आदिवासी महिलाओं बल्कि संपूर्ण महिला समाज के अधिकारों के लिए अपनी आवाज उठाई. वे आदिवासी समाज में महिलाओं के संपत्ति पर अधिकार को लेकर जो भेदभाव पूर्ण स्थिति है, उसपर बात की. वे रांची के महिलावादी समूह में हमेशा सक्रिय रहीं और उनके बीच अपना योगदान भी दिया.
सांस्कृतिक एकता के लिए आवाज बुलंद की
सामाजिक कार्यकर्ता रतन तिर्की कहते हैं कि रोज दी ने झारखंडी भाषा साहित्य को स्थापित करने के लिए काफी मेहनत की. खड़िया को झारखंड की प्रमुख भाषाओं की श्रेणी में स्थापित करने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया और मैं उनके साथ इस संघर्ष में शामिल था. उनके साथ मेरे वैचारिक मतभेद भी थे, बावजूद इसके उन्होंने हमेशा उदारता दिखाई. वे आदिवासियों के सांस्कृतिक एकजुट की बात करती थीं, वे कहती थीं कि इसके लिए हमें बहुत प्रयास करना होगा. जल-जंगल-जमीन की वकालत उन्होंने की. उनका यह मानना था कि गैर आदिवासी भी जल-जंगल-जमीन की लड़ाई में हमारे साथ हैं, इसलिए उनके साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए. हमने यह प्रयास किया था कि उन्हें उनके योगदान के लिए पद्मश्री मिल जाए, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया.
झारखंड में डायन प्रथा का किया पुरजोर विरोध
रोज केरकेट्टा के सामाजिक योगदानों को याद करते हुए उनकी सहयोगी रहीं प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता मालंच घोष बताती हैं कि अब रोज दी नहीं हैं, लेकिन हम उन्हें हर पल याद करेंगे. वो हमारी आदर्श थीं. हमने काफी समय तक साथ में काम किया. एक बेहतरीन लेखिका और महिला अधिकारों के लिए सजग महिला थीं. उन्होंने डायन प्रथा उन्मूलन के लिए काम किया. वे कहती थीं कि महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार नहीं देने के लिए डायन बताकर उनका शोषण किया जाता है. उन्होंने झारखंड में महिला सामाख्या के कार्यों की शुरुआत की. वे यह चाहती थीं कि समाज में महिलाओं को सम्मानित स्थान मिले.
झारखंडी समाज-भाषा और संस्कृति की समस्याओं को रोज दी ने उजागर किया
रोज दी ने झारखंडी समाज, यहां की भाषा और संस्कृति को संजोकर रखने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए. प्रसिद्ध रंगकर्मी महादेव टोप्पो बताते हैं कि उनके प्रमुख कार्यों में प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया भाषा में अनुवाद है. प्रेमचंद की कहानियों का उनसे पहले किसी ने भी झारखंडी भाषा में अनुवाद नहीं किया था. उनके कहानी संग्रह पगहा जोरी-जोरी रे घाटो में आदिवासी जीवन का ठेठ वर्णन है. उन्होंने जमीनी हकीकत को सच्चाई के साथ उकेरा. झारखंड आंदोलन के बौद्धिक मोर्चे की वह मुखर महिला सदस्य थीं. उनके जाने से झारखंडी भाषा-साहित्य को अपूरणीय क्षति हुई है.
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