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Caste Of The Child : सुप्रीम कोर्ट के सामने अंतरजातीय विवाह से जन्म लेने वाले एक बच्चे का केस आया है, जिसमें उसकी मां ने यह मांग की है कि उसके बच्चे को उसकी जाति प्रदान की जाए. चूंकि वह अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी से आती है, इसलिए उसके बच्चे को भी ओबीसी का जाति प्रमाणपत्र जारी किया जाए. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 23 जून को सिंगल मदर्स के बच्चों को जाति प्रमाणपत्र जारी करने के दिशा-निर्देशों की कमी को चिन्हित किया है और इस केस की अगली सुनवाई 22 जुलाई को होगी.
किस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कमी बताई है
सुप्रीम कोर्ट के सामने एक केस आया है, जिसमें याचिकाकर्ता संतोष कुमारी ने यह कहा है कि चूंकि वह ओबीसी समुदाय से आती है और वो एक सिंगल मदर हैं, तो उनके बच्चे को ओबीसी का सर्टिफिकेट मिलना चाहिए, क्योंकि वो खुद इसी समुदाय से आती हैं. संतोष कुमारी ने यह कहा कि उनके बच्चे को ओबीसी का सर्टिफिकेट देने से मना करना जाति प्रमाण पत्र पर पितृवंशीय परंपरा को बढ़ावा देने का प्रतीक है और यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत लैंगिक समानता पर सवाल उठाता है. कोर्ट ने संतोष कुमारी की याचिका को जरूरी बताया है और इसपर सुनवाई के लिए 22 जुलाई की तारीख मुकर्रर की है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि देश में सिंगल मदर्स के बच्चों को जाति प्रमाण पत्र जारी करने के नियमों में काफी कमी है.
जाति प्रमाण पत्र को लेकर क्या हैं नियम
जब किसी बच्चे का जाति प्रमाण पत्र बनता है, तो उसके पिता या फिर पैतृक रक्त संबंधों के जाति प्रमाण पत्र को आधार बनाकर ही बच्चे का जाति प्रमाण पत्र जारी किया जाता है. परंपरा अनुसार यही माना जाता है कि पिता की जाति ही बच्चे की जाति होगी. अंतरजातीय शादियों में भी पत्नियों को पति की जाति नहीं मिलती है, लेकिन ऐसी शादियों से उत्पन्न संतान की जाति वही मानी जाती है, जो उसके पिता की होगी. यहां तक कि जो प्रमाणपत्र के लिए जो आवेदन किया जाता है, उसमें भी यही अंकित होता है कि बच्चे की जाति वही मानी जाएगी, जो उसके पिता की होगी.
बदलते दौर में अपवाद आए हैं सामने
रमेशभाई दाभाई नायका बनाम गुजरात राज्य के केस में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश भाई को उसकी माता की जाति स्वीकार करने का हक दिया और उन्हें आरक्षण की सुविधा भी मिली थी. यह मामला 2012 का है जब सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि जाति की पहचान जन्म से तय होती है, लेकिन सामाजिक परिवेश और पालन-पोषण भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं. इस केस में रमेशभाई दाभाई नायका ने अनुसूचित जनजाति के प्रमाण पत्र और आरक्षण का लाभ लेने के लिए आवेदन किया था. उस वक्त गुजरात सरकार ने उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि रमेशभाई के पिता गैर जनजाति समाज से थे. हालांकि रमेशभाई की मां गुजरात की मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजाति “ढोड़ा” समाज से आती थीं. जब गुजरात में रमेशभाई का एसटी प्रमाणपत्र वैध नहीं माना गया, तब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए यह माना कि अंतरजातीय विवाह या आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच विवाह में पति की जाति से ही बच्चे की जाति तय होती, लेकिन जिस परिवेश में बच्चा पला-बढ़ा हो और उसकी मां की उसमें जो भूमिका है उसे नजर अंदाज भी नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने यह भी माना था कि अंतरजातीय विवाह में अगर एक स्त्री अकेले अपने बच्चे का लालन-पालन करे और उसमें उसके पिता की कोई भूमिका ना हो, तो बच्चे की जाति वही मानी जा सकती है, जो उसकी मां की होगी.
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