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मन को छूती कल्याणी कबीर की कविताएं

कल्याणी कबीर की कविताएं आपके अंतरमन को स्पर्श करती नजर आयेंगी. किस तरह एक औरत से यह कहा जाता है कि वह अपनी सीमा में रहे, वह देखे आसपास क्या हो रहा और अगर देखे भी तो इस पितृसत्तामक समाज के कहने के अनुसार. कल्याणी कबीर ने राजनीति पर भी शानदार तरीके से तंज कसा […]


कल्याणी कबीर की कविताएं आपके अंतरमन को स्पर्श करती नजर आयेंगी. किस तरह एक औरत से यह कहा जाता है कि वह अपनी सीमा में रहे, वह देखे आसपास क्या हो रहा और अगर देखे भी तो इस पितृसत्तामक समाज के कहने के अनुसार. कल्याणी कबीर ने राजनीति पर भी शानदार तरीके से तंज कसा है, तो पढ़ें उनकी चंद कविताएं:-

कल्याणी कबीर, बिहार के मोकामा नामक गांव में 5 जनवरी को जन्म, शिक्षा : बीएड, एमए, पीएचडी. संप्रति : झारखंड के जमशेदपुर शहर में प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत. आकाशवाणी जमशेदपुर में आकस्मिक उद्घोषिका. सहयोग, अक्षरकुंभ, हुलास, सिंहभूम जिला साहित्य परिषद् और जनवादी लेखक संघ जैसे साहित्यिक मंच की सदस्या. पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, आलेख आदि प्रकाशित. कविता संग्रह ‘गीली धूप’ प्रकाशित. मध्य प्रदेश में नर्मदा सम्मान से सम्मानित, साहित्यिक संस्था सुरभि से सम्मानित, राष्ट्र संवाद पत्रिका द्वारा सम्मानित.
संपर्क : [email protected]
कल्याणी कबीर की कविताएं
तुम औरत हो
तुम औरत हो,
चांद पर लिखो,
बातें करो गुलाब की
गुनगुनाते भौंरे की
दिल लुभाते शबाब की
लिखो वात्सल्य रस पर
अपने पति परमेश्वर पर
देखो मत
क्या हो रहा इर्द-गिर्द
गुरू मत बनो
रहो बने शागिर्द
रोटी और राजनीति पर
चुप्पी पहनो
गर दिखाए कोई आंख
तो सहमो
याद रखो कि
औरत हो तुम
इंसान नहीं
छाया की तरह
कद में रहो
गर चाहती हो जीना
तो हद में रहो !!
तुम भी हो, हम भी हैं
अपनी नज़रों में इक खुदा, तुम भी हो और हम भी हैं
भीड़ में रहकर खुद से जुदा, तुम भी हो और हम भी हैं
धरती पर चांद उगाते थे, हम बादल भी बरसाते थे
बचपन की वो भोली अदा, तुम भी हो और हम भी हैं.
सिर्फ एक सच ही बोला था, राज-ए-उल्फत खोला था
आईने से उस दिन से ख़फ़ा, तुम भी हो और हम भी हैं.
सियासत के गंजे सर पर, फेंक दिया तो है पत्थर
फिर उस दिन से खौफज़दा, तुम भी हो और हम भी हैं.
मस्जिद में, रमज़ानों में, मंदिर और पुराणों में
अनसुनी रह गई जो एक सदा, तुम भी हो और हम भी हैं.
देखिये मत
बहने लगी है तीरगी देहरी – दरीचे तक,
उंगलियों में चांद अपनी भींच लीजिये .
शोर है कुछ बंट रहा है दरबार-ए-दिल्ली में,
अपने हक़ की चंद रोटी खींच लीजिये.
मत कीजिये जाया नमी को अपने पलकों की,
चंद फसलें उस नमी से सींच लीजिये .
हो रहे हैं खूब जलसे सियासत की आड़ में,
देखिये मत, अपनी आंखें मींच लीजिये .
अकेला दीपक
ये और बात है कि तलाश एक रोटी की,
ले जाएगी तुम्हें उन झूठे सियासी चेहरों तक .
जो हर मोड़ पर निचोड़कर वज़ूद को तेरे
फेंक देंगे सड़क पे
झूठे पत्तलों की तरह .
पर,
याद रखना कि झुक जाए भी कमर गर तेरी
झूठ के आगे अपना सर नहीं झुकाना तुम
कि अंधेरा लाख ही गहरा सही ज़माने में
सहर के आते ही चुपके से भाग जाता है
पैगामे- रौशनी लेकर अकेला दीपक भी
इस ज़मीं के हरेक कोने में पूजा जाता है
प्रेम
प्रेम करने से पूर्व
मैं तुम्हें जानती नहीं थी
मैं नहीं जान पाई तुम्हें
प्रेम करने के बाद भी
क्योंकि
संबंधों के शेयर मार्केट ने
दिवालिया हो चुके मेरे दिल को
इतना तो सीखा ही दिया है कि
प्रेम का सही अर्थ
एक दूसरे को जानना नहीं
एक दूसरे के साथ जीना है
बिना किसी शर्त
बिना किसी उम्मीद के
एक दूसरे के साथ जीना .
शहर लील चुका है

शहर लील चुका है
गांव के चबूतरे को,
भोले-भाले चेहरे को
खिलखिलाते आंगन को
रिमझिम गाते सावन को
गेंहू सुखाते छत को
अशीषते बरगद को
थपकी देते छांव को
मेहमान बुलाते कांव-कांव को
और साथ ही तोड़ डाला है उसने
संवेदना के उस पुल को भी
जिसपे चहलकदमी करते थे रिश्ते
अपनी उंगलियां फंसाये
आपसे में बतियाते
जीवन भर…
Prabhat Khabar Digital Desk
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