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मेरी ढाका डायरी: बांग्लादेशी इस्लाम और उसके अति विख्यात ढाका की जीवनकथा

Mere Dhaka Dairy : मधु कांकरिया ने यद्यपि उस पुराने इतिहास को बहुत याद नहीं किया है पर भारत और बांग्ला देश के बनते बिगड़ते रिश्तों, उठती गिरती सत्ता राजनीति, पनपती और पनपाई जा रही साम्प्रदायिकता, सत्ता और सत्ता राजनीति के मानव विरोधी चेहरे की पहचान करते हुए, अवाम, खासकर दोनों ही देशों में सदियों से अभिशापग्रस्त स्त्री, धर्म और राजनीति की घृणित मिलीभगत, इन दोनों के बीच सैण्डविच बन चुके अवाम की त्रासद नियति का मार्मिक साक्षात्कार यहां किया है.

समीक्षक : विजय बहादुर

Mere Dhaka Dairy book review : अपने कई उपन्यासों और कहानियों से हिंदी कथा साहित्य को अपने विचलित कर डालने वाले अनुभवों की तीक्ष्णताऔर मार्मिकता से चकित कर डालने वाली कथाकार मधु कांकरिया इस बार एक और ही अंदाज में उपस्थित हुई हैं. उनका यह नया अंदाज भले ही कहने को डायरी शिल्प में है किंतु है यह किसी भी कथा से अधिक जीवनदर्शी और विचलनकारी. जीवनदर्शी इस रूप में कि यह केवल बांग्ला देशी इस्लाम और उसके अति विख्यात ढाका की जीवनकथा नहीं है, उस भूले बिसरे हिंदुस्तान की कहानी भी है जब ढाका आज के महानगर कोलकाता से भी अधिक विश्वख्यात था अपने वस्त्र शिल्प और उद्योग के रूप में. जानने वाले जानते हैं कि अविभाजित भारत और अविभाजित बंगाल के दिनों में ढाका, चटगांव, नोआखाली की भूमिका क्या रही है.


मधु कांकरिया ने यद्यपि उस पुराने इतिहास को बहुत याद नहीं किया है पर भारत और बांग्ला देश के बनते बिगड़ते रिश्तों, उठती गिरती सत्ता राजनीति, पनपती और पनपाई जा रही साम्प्रदायिकता, सत्ता और सत्ता राजनीति के मानव विरोधी चेहरे की पहचान करते हुए, अवाम, खासकर दोनों ही देशों में सदियों से अभिशापग्रस्त स्त्री, धर्म और राजनीति की घृणित मिलीभगत, इन दोनों के बीच सैण्डविच बन चुके अवाम की त्रासद नियति का मार्मिक साक्षात्कार यहां किया है.


पुस्तक के शुरुआती पन्ने ही यह संकेत देने लगते हैं कि लेखिका को इस डायरी तक आने की चुनौती मंजूर ही क्यों करनी पड़ी—
“मेरी यह डायरी बांग्लादेश को संपूर्णता में जानने का कोई दावा नहीं करती. मार्केस ने कहा था कि आप को यथार्थ का एक टुकड़ा भर देखना और महसूस करना होता है…. उससे पूरा दृश्य दिख जाता है. तो बस टुकड़ा भर यथार्थ हाजिर है.”


इस टुकड़े भर यथार्थ की बानगी आप चाहें तो डायरी लेखिका के इन वाक्यों में महसूस कर सकते हैं—
सारा इस्लाम यहां औरत की देह पर टिका हुआ है. हर औरत अपने औरतपन के बंधन को वजूद की तरह अपने सीने से चिपकाए हुए. देह ही देह. हर पुरुष और औरत अपने देह की चौकसी में, इस्लाम के अनुसार, डूबा हुआ,. दाढ़ी, टोपी और बुर्के चहुं ओर. मैंने तो सोचा था ढाका कोलकाता जैसा होगा.


2–“-जहां धर्म नहीं है, वहां स्त्री तन और मन, दोनों से जरूरत से ज्यादा आजाद है. “पृष्ठ -64.
“उन्हीं दिनों सरे राह चलते -चलते मुझे गुलशन पार्क में कुछ नवयुवतियां मिलीं…. मैंने यूं ही पूछ डाला —
क्या आप इस्लाम को नहीं मानतीं?
मानती हैं. क्यों नहीं मानतीं?
तो फिर आपने बुर्का क्यों नहीं पहना है?
एक ने हंस कर कहा–कुरान में कहीं बुर्का या नकाब का जिक्र है ही नहीं, हिजाब का जरूर जिक्र है, वह भी हदीस में…… बांग्ला देश की आधुनिक पीढ़ी को बुर्का में कोई दिलचस्पी नहीं है.”पृष्ठ-66.


” गांधी जी की यादों में रचे -बसे नोआखाली के गांधी आश्रम में गांधी जी की चरखा चलाती तस्वीर के साथ जगह जगह पोस्टर लगे हैं उनके अमृत वचनों के. एक पोस्टर पर लिखा हुआ था –आमि मानुषेर विश्वास करि तार एकमात्र कारण आमि सृष्टिकर्ता के विश्वास करि(मैं इंसान पर विश्वास करता हूँ एकमात्र कारण है कि मै ईश्वर पर विश्वास करता हूं.)”पृष्ठ–134.


पुस्तक में इसका एक जीता जागता सबूत भी लेखिका ने अपनी घरेलू सहायिका फातिमा के प्रसंग से दिया है-लेखिका की पुत्रवधू की अठमासी बच्ची ने जन्म लेते ही दम तोड़ दिया. कोशिश की गई कि दोनों की जान बचा ली जाय. उसी दौरान रक्त की जरूरत हुई. “कौन दे रक्त?. विदेश में बहुत कम जान पहचान थी, उस पर कोरोना और रमजान. कोई ऐसा नजर न आया, जो दुख और संकट की इस घड़ी में कंधे पर हाथ रख दे. मैंने न फातिमा को बताया था, न ही सलमा को. जाने कैसे, किस बिस्तर ने चुगली खा दी कि सूरज की पहली किरण के साथ ही दोनों की गुजारिश –हम देंगे रक्त.


जरूरत तो थी, कैसे करते इनकार. तीन दुख एक हुए. बदरी सी बरसी आंखें!. ले गए दोनों को.. फातिमा का रक्त काम आ सकता था, पर उसका रमज़ान था. डाक्टर ने मन कर दिया–रमजान में रक्त नहीं ले सकते. घायल पाखी की तरह वह फड़फड़ाई. फिर कुछ देर बाद दृढ़ स्वर में कहा फातिमा ने- यदि ऐसा है तो इसी पल मैं रमजान तोड़ देती हूं, पर मेरा रक्त ले लें.
फातिमा का रक्त ले लिया गया.”पृष्ठ-146.


पुस्तक अनेक ऐसी गहरी, मार्मिक और करुण गाथाओं को लिए हुए शब्द- प्रतिशब्द इस वर्तमान से उस भविष्य की ओर बढ़ती गई है जो हर युग और सभ्यता का सबसे खूबसूरत सपना रहा है.
लेखिका का भाषा सौंदर्य, उसकी शैली की मनोहरी विदग्धता और जीवन बोध हमें कदम कदम पर विमुग्ध करता चलता है.

Prabhat Khabar Digital Desk
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