Bilva Patra: शिव पूजा में बिल्वपत्र अर्पण की विशेष महिमा बताई गई है. इसके पत्ते अद्वितीय हैं, क्योंकि एक ही डंठल में तीन पत्तियां होती हैं. इसी कारण इसे त्रिपत्र और त्रिशाखपत्र कहा जाता है. यह भगवान शिव को अत्यंत प्रिय हैं, इसलिए शिवलिंग पर चढ़ाए जाते हैं. इसे शिवेष्ट और शिवदुम भी कहा जाता है.
शिव के आनंदवन का प्रतीक बिल्व वृक्ष
धार्मिक मान्यता के अनुसार, जहां बिल्व वृक्ष का वन होता है, वह स्थान शिव के आनंदवन के समान होता है, अर्थात वाराणसीपुरी. कहा जाता है — जहां पांच बिल्व वृक्ष हों, वहां स्वयं श्रीहरि का निवास होता है; सात वृक्ष होने पर उमामहेश्वर का और दस वृक्ष होने पर शिव अपने गणों के साथ विराजमान रहते हैं. यहां तक कि एक अकेला बिल्व वृक्ष भी शिवशक्ति से युक्त माना जाता है.
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शिव को प्रिय बिल्वपत्र की पवित्रता
बिल्वपत्र का पत्ता या बीज यदि भूमि पर गिर जाए तो उसे व्यर्थ न जाने देने के लिए स्वयं भगवान शिव उसे अपने सिर पर धारण करते हैं. इसकी छाया के भीतर का क्षेत्र तीर्थक्षेत्र के समान पवित्र माना जाता है. यहां मृत्यु होने पर शिवलोक की प्राप्ति होती है. बिल्व वृक्ष को सर्वतीर्थमय और सर्वदेवमय भी कहा गया है। इसकी महिमा इतनी है कि इसे कल्पवृक्ष के समान माना गया है.
वेदत्रयी का प्रतीक त्रिपत्र
इसके तीन पत्ते वेदत्रयी के प्रतीक हैं— ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद. बिल्व वृक्ष के अनेक नाम इसके गुणों को दर्शाते हैं, जैसे — श्रीफल, लक्ष्मीफल, गंधफल, शिवेष्ट, त्रिशिख, सदाफल, सत्यफल, त्रिपत्र, महाफल, हृदयगंध इत्यादि.
लक्ष्मीजी की तपस्या और बिल्व की उत्पत्ति
एक पौराणिक कथा के अनुसार, लक्ष्मीजी की उत्पत्ति भी बिल्व से जुड़ी है. जब भगवान विष्णु का स्नेह देवी सरस्वती की ओर अधिक हो गया, तो देवी लक्ष्मी ने शिव आराधना हेतु तपस्या की और समर्पण स्वरूप अपना बायां वक्ष भगवान शिव को अर्पित कर दिया. उनकी भक्ति और त्याग से प्रसन्न होकर शिव ने उनका मनोरथ पूर्ण किया और वक्ष पुनः पूर्ववत कर दिया. शिव को अर्पित वह वक्ष बिल्व वृक्ष बन गया और धरती पर शोभायमान हुआ।
बिल्व के त्रिदल में त्रिदेव का वास
दूसरी मान्यता के अनुसार, बिल्व वृक्ष की उत्पत्ति गोबर से हुई। इसके त्रिदल में त्रिदेव — ऊपर शिव, बाएं ब्रह्मा और दाएं विष्णु का वास बताया गया है, जबकि इसके डंठल में देवी का वास माना जाता है. गणेश और सूर्य को छोड़कर यह सभी देवी-देवताओं को अर्पण योग्य है. शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि बिल्वपत्र तोड़ते समय इसकी डालियां न तोड़ी जाएं और न ही वृक्ष पर चढ़ा जाए, ताकि इसका संरक्षण और पवित्रता बनी रहे.