Numerology, Shani Dev Number: युग-युगांतर से धर्म के अनुसार भारतवर्ष में सूर्यपुत्र शनिदेव की पूजा अनेक इच्छाओं की पूर्ति के लिए की जाती है. श्री शनि महाराज की पूजा-अर्चना सामान्यतः शनिवार के दिन करने की परंपरा रही है, लेकिन ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को उनकी जयंती का उत्सव चारों ओर मनाया जाता है.
शनि को ‘शनैश्चराय’ अथवा ‘शनैश्वर’ भी कहते हैं
अपने चारों भुजाओं में धनुष, बाण, त्रिशूल और वर मुद्रा धारण करने वाले स्वर्ण मुकुट से शोभित नील वस्त्राभूषणधारी शनिदेव देव जगत् के प्रधान न्यायधीश हैं, जो अपनी न्यायप्रियता के लिए लोकख्यात हैं. सौर्य जगत् के दूसरे बड़े ग्रह देव के रूप में प्रतिष्ठित पूजित शनि की गति धीमी होने के कारण उन्हें ‘शनैश्चराय’ अथवा ‘शनैश्वर’ भी कहते हैं. नव ग्रहों का यह राजा पीतरंग युक्त विशाल तारे की भांति दृश्यमान है.
शनिदेव का पिता सूर्यनारायण से बैर हो गया था
बाल्यकाल से श्रीकृष्ण भक्ति में समर्पित शनि देवता का जन्म सूर्य देव की दूसरी पत्नी छाया से हुआ. विवरण है कि जिस समय शनि जी गर्भ में थे, माता छाया शिव पूजा में इतनी तल्लीन रहती थीं कि उन्हें खाने-पीने की सुध नहीं रहती थी. यही कारण था कि शनिदेव धौर श्याम वर्ण के हो गए. शनि के जन्म के बाद सूर्य देवता ने मिथ्या आरोप लगाया कि ‘छाया! ऐसा मेरा पुत्र हो ही नहीं सकता.’ माता के इसी अपमान के फलस्वरूप शनिदेव का पिता सूर्यनारायण से बैर हो गया. ऐसे कहीं-कहीं उन्हें सूर्य देव की अर्धांगिनी छाया की प्रतिरूपा सवर्णा (सुवर्णा) से भी उत्पन्न बताया गया है. सूर्य देवता और सुवर्णा से शनिदेव के अलावा मनु और भद्रा (तपती) का जन्म हुआ.
एक अन्य कथानुसार, शनि का जन्म कश्यप युग में हुआ, जिसके अभिभावक कश्यप मुनि थे. शनि बाल्य काल से ही चतुर, प्रवीण, कुशाग्र व टेढ़ी दृष्टि से युक्त हैं. देव श्री शिव शंकर की आराधना से शनि सिद्ध-प्रसिद्ध हुए, यह सर्वविदित है कि शनि की श्रापग्रस्त दृष्टि पड़ने से ही बालक गणपति का मस्तक कटा था. शनि की साढ़ेसाती के प्रभाव से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम व लंकाधिपति रावण भी नहीं बच सके, तो आमजन की क्या बात है.
फिर भी विविध उपक्रम से की गयी शनि आराधना उनकी प्रशंसा और कृपा के आधार हैं.
भारत के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के काल की कथा शनि देव से संबंधित है, जिनकी कृपा से वह विश्व में प्रसिद्ध हुए. धर्म ग्रंथों में शनि देव की दो पत्नियों, नीलिमा (नीला देवी) और मंदा (धामिनी) का उल्लेख मिलता है. इन ग्रंथों में वीर बजरंगबली हनुमान और शनि देव के बीच बलशाली होने के संबंध में मतभेद का उल्लेख किया गया है. बाद में, दोनों के बीच हुए शारीरिक और मानसिक विवाद के परिणामस्वरूप, हनुमान जी ने अपनी कृपा से शनि देव को वरदान दिया, और तब से शनि देव की महत्ता पूरे जगत में व्यापक रूप से फैल गई.
शनि देव की पूजा और सरसो तेल का महत्व
शनि देव की पूजा में सरसों के तेल का महत्व अत्यधिक है. यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि शनि जी को तेल अर्पित करने की शुभ शुरुआत हनुमान जी द्वारा की गई थी. भक्त तिल और चमेली के तेल का भी उपयोग करते हैं.
मान्यता है कि जिस पर शनि देव नाराज हो जाते हैं, उसके कठिन दिन शुरू हो जाते हैं. यही कारण है कि भक्ति से अधिक भय के चलते लोग शनि देव की पूजा करते हैं. शनि व्रत और शनि की उपासना करने वाले भक्तों पर शनिदेव हमेशा प्रसन्न रहते हैं और शनि से उत्पन्न सभी दोषों का निवारण हो जाता है. कई अर्थों में, जब शनि ग्रह शांत होता है, तो जातक के ग्रहों द्वारा उत्पन्न अनिष्ट अपने आप समाप्त हो जाते हैं. कहा गया है कि छल, प्रपंच, द्वेष, बार-बार लापरवाही, दूसरों के प्रति हमेशा गलत व्यवहार करना और अपनी सेवा के प्रति अकर्मण्यता रखने वाले लोगों पर शनि देव कभी प्रसन्न नहीं होते. शनि देव जी को अंक 8 और काले रंग से विशेष प्रेम है. देव श्री शनि की कृपा से मनोकामनाएं निश्चित रूप से पूरी होती हैं.
श्री शनि चालीसा में स्पष्ट उल्लेख है –
पावै मुक्ति अमर पद भाई| जो नित्य शनि सों ध्यान लगाइ||
देश में प्रमुख शनिधाम
पूरे देश में शनि जी के प्रमुख देवालयों में शनि शिंगनापुर, जो महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है, शामिल है. इसके अलावा, जूनी इंदौर का शनि मंदिर, पाटन का शनि स्थान, मदुरई का शनि धाम, वैयापूर (कांचीपुरम), कोकिलावन मथुरा, नवग्रह तीर्थ गुवाहाटी, पुष्कर, कपासन क्षेत्र चित्तौड़गढ़, उज्जैन, अयोध्या, हरिद्वार, बनारस और जगन्नाथ पुरी का शनि धाम भी विशेष महत्व रखते हैं. वहीं, गयाजी का शनि मंदिर, देवघर, बासुकीनाथ और राजरप्पा के शनि मंदिर भी प्रसिद्ध स्थल माने जाते हैं.