Vladimir Mestvirishvili Legendry Coach who Shaped Indian Wrestling: भारतीय कुश्ती के इतिहास में व्लादिमिर मेस्त्विरिश्विली का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा. जॉर्जिया से ताल्लुक रखने वाले इस महान कोच ने 2003 में भारत की पुरुष कुश्ती टीम की जिम्मेदारी संभाली, तब जब देश में मैट कुश्ती लगभग ना के बराबर थी. उन्हें प्यार से ‘लाडो’ कहा जाता था और यही ‘लाडो’ भारतीय कुश्ती का वह स्तंभ बन गए, जिन्होंने मिट्टी में पलने-बढ़ने वाले दर्जनों युवाओं को मैट पर ओलिंपिक पदक विजेता बना डाला. सोमवार को आकस्मिक नहीं, बल्कि उम्र संबंधी बीमारी के कारण स्वर्ग सिधार गए. व्लादिमिर मेस्त्विरिश्विली का जाना न केवल भारतीय कुश्ती के लिए, बल्कि पूरे खेल जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. उन्होंने न केवल तकनीकी रूप से पहलवानों को मजबूत बनाया, बल्कि उनमें लड़ने की भावना, अनुशासन और जुझारूपन भी भरा. बिना किसी सरकारी पुरस्कार या सम्मान की अपेक्षा के, उन्होंने वह कर दिखाया जो कई बार पुरस्कृत होने वाले कोच भी नहीं कर पाए. सचमुच, व्लादिमिर भारतीय कुश्ती के मूक नायक थे.
दो दशक का समर्पण
व्लादिमिर 80 वर्ष की उम्र पार कर चुके थे और हाल ही में उम्र संबंधी बीमारी के कारण उनका निधन हो गया. भारतीय पहलवानों ने इस दुःखद खबर की पुष्टि की. 2003 से लेकर लगभग दो दशक तक उन्होंने हरियाणा और दिल्ली के कुश्ती शिविरों में काम किया. शुरुआती वर्षों में हरियाणा के नीदानि और बाद में सोनीपत के राष्ट्रीय कैंपों में वह एकमात्र स्थायी चेहरा रहे, जबकि कई विदेशी और भारतीय कोच आते-जाते रहे. उनकी कोचिंग में भारत को छह में से पाँच पुरुष ओलिंपिक पदक मिले, सुशील कुमार (बीजिंग और लंदन), योगेश्वर दत्त (लंदन), बजरंग पुनिया (टोक्यो) और रवि दहिया (टोक्यो). उन्होंने विश्व चैंपियनशिप पदक विजेता दीपक पुनिया को भी शुरुआती वर्षों में तराशा.
सोवियत रूस से भारत तक का सफर
व्लादिमिर मेस्त्विरिश्विली ने 1982 से 1992 तक पूर्व सोवियत संघ में जॉर्जियाई टीम के कोच के रूप में 10 वर्षों तक काम किया, जहाँ उन्होंने कई यूरोपीय, ओलिंपिक और विश्व चैंपियन तैयार किए. मेस्त्विरिश्विली 2003 में भारत आए. उन्हें वह शख्स माना जाता है जिन्होंने सुशील और योगेश्वर को उनके प्रारंभिक वर्षों में आकार दिया. दोनों ने 2004 के एथेंस ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था. वह 2017 तक भारतीय टीम के साथ जुड़े रहे. उन्होंने दिव्या काकरान को भी प्रशिक्षित किया.
Very sad to hear of the passing away of legendary wrestling coach Vladimir Mershidivilli of Georgia. He coached Sushil, Yogeshwar, Bajrang, Ravi, Deepak & many other top 🇮🇳 wrestlers during their junior days. He was so dedicated & passionate. Everyone loved him. RIP Vlado ❤️🙏🏽 pic.twitter.com/9dPTW48OSh
— Viren Rasquinha (@virenrasquinha) June 23, 2025
तकनीकी कुश्ती का जनक
भारतीय पहलवान लंबे समय तक ताकत के दम पर कुश्ती करते रहे थे, खासकर मिट्टी की पारंपरिक शैली में. लेकिन व्लादिमिर ने इस सोच को बदला. उन्होंने बताया कि कुश्ती सिर्फ ताकत नहीं, तकनीक का भी खेल है. योगेश्वर दत्त बताते हैं, “उन्होंने हमें लड़ना सिखाया, अंक कैसे लेना है और बचाव कैसे करना है, ये सब सिखाया. उन्होंने हमें शुरुआत से सब कुछ सिखाया.” बजरंग पुनिया कहते हैं, “मैंने अपने शुरुआती साल सिर्फ मिट्टी में कुश्ती की थी, मैट पर कुछ नहीं आता था. उन्होंने हर मूव मुझे सिखाया. उन्होंने मिट्टी के पारंपरिक दांवों को नकारा नहीं, बल्कि उन्हें यूरोप से लाई आधुनिक तकनीकों से जोड़ा और एक नया अंदाज विकसित किया.”

अलग थी उनकी कोचिंग स्टाइल
व्लादिमिर की कोचिंग शैली पारंपरिक ढांचे से बिल्कुल अलग थी. वे सिर्फ बोलकर सिखाने में यकीन नहीं रखते थे. बजरंग याद करते हैं, “जब मैं कैंप में आया, तो उन्होंने मुझे अपना पार्टनर बना लिया. वह खुद हर मूव मुझ पर डेमो करते और बाकी पहलवान मैट के चारों ओर बैठकर उन्हें ध्यान से देखते. फिर हमसे वही दोहराने को कहते.” योगेश्वर कहते हैं, “उनका मंत्र था देखो, सीखो और दोहराओ. एक-एक दांव को सैकड़ों बार दोहरवाते थे, जब तक उन्हें यकीन न हो जाए कि हमने सही सीखा है.” उनकी मेहनत और डेडिकेशन ने ही भारतीय पहलवानों को तकनीकी रूप से सक्षम बनाया.
Legend @WrestlerSushil, the mentor of #DeepakPunia insisted on @OGQ_India bring legendary coach Vladimir Mestvirishvili to Chhatrasal Stadium for over 2 years now. The results showed today as Deepak becomes World Junior Champion. Here is Vladimir coaching Deepak.. pic.twitter.com/zX9K982QDR
— Viren Rasquinha (@virenrasquinha) August 14, 2019
केवल कोच नहीं, संरक्षक थे
व्लादिमिर केवल तकनीकी प्रशिक्षक नहीं थे, वे पहलवानों के संरक्षक भी थे. टूर्नामेंट्स के दौरान वह खिलाड़ियों को खुद मसाज देते थे, चाहे वे मना ही क्यों न करें. पहलवानों को वह अपने बच्चों की तरह मानते थे. वह अपने स्वभाव में बेहद सौम्य और थोड़ा भोले भी थे. लेकिन जब बात पहलवानों के प्रशिक्षण की आती थी, तो उनका समर्पण अविश्वसनीय था. जब भारत में सुविधाएँ न के बराबर थीं, व्लादिमिर ने पहलवानों के लिए जरूरी चीज़ें खुद तैयार कीं. 2003 में जब वह आए, तो पहलवानों के पास मैट तक नहीं थे. योगेश्वर बताते हैं, “उन्होंने अपने स्तर पर चटाइयाँ मंगवाईं, रस्सियाँ लटकाईं और खुद सिलाई उपकरण लाकर मैट को काट-छांटकर फिट किया.” बजरंग याद करते हैं, “2012 में जब मैं सीनियर कैंप में आया, तब देखा कि कोच खुद मैट के गैप भरते थे, रस्सियाँ पेड़ों से निकालकर क्लाइंबिंग के लिए बांधते थे. आज ये सब आम लगता है, लेकिन तब यह नया था.”
Vladimir Mestvirishvili walks alone after the trials. His contribution towards the rise of Indian wrestling is immense but he has never been given his due ever! @FederationWrest #wrestling #indianwrestling pic.twitter.com/1Vlp6JXMCX
— Vinayak Padmadeo (@Padmadeo) July 26, 2019
भारतीय संस्कृति में रच-बस गए
रियो ओलिंपिक के बाद, उनकी उम्र तथा ‘पुरानी’ कोचिंग शैली का हवाला देते हुए भारतीय कुश्ती संघ (WFI) ने उनका अनुबंध नवीनीकृत नहीं किया, तो वह दिल्ली के प्रतिष्ठित छत्रसाल स्टेडियम से जुड़ गए. दिल्ली के मॉडल टाउन में किराए के फ्लैट में रह रहे व्लादिमिर ने सिर्फ कुश्ती ही नहीं, बल्कि भारतीय खासतौर पर हरियाणवी संस्कृति को भी अपनाया. वह हरियाणवी में बात करने लगे, खेतों में किसानों के साथ समय बिताया, उन्हीं की तरह खाना खाया और भारतीय ‘जुगाड़’ को भी सीखा. SAI सेंटर, सोनीपत में जब उनके कमरे में साँप घुस आया, तो उन्होंने उसे मार डाला यह किस्सा भी पहलवानों में मशहूर है.
RIP Super Coach 🕯️
— नमह (@ShriNamaha) June 24, 2025
Vladimir Mestvirishvili — the architect of Bharat’s Wrestling Golden era.
From @WrestlerSushil, @DuttYogi to @BajrangPunia , @ravidahiya60 to @deepakpunia86 — his legacy lives in every mat, every medal.
A mentor. A legend. A force.
You may have left, but… pic.twitter.com/yynLX3kk1E
अपमानजनक उपेक्षा
हालाँकि उनका योगदान अमूल्य था, लेकिन व्लादिमिर को कभी आधिकारिक रूप से वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. भारतीय कुश्ती संघ (WFI) ने रियो ओलिंपिक के बाद यह कहते हुए उनका अनुबंध खत्म कर दिया कि उनकी उम्र ज्यादा हो गई है और उनकी कोचिंग शैली पुरानी पड़ चुकी है. जबकि उन्हीं के साथ काम कर चुके दर्जनों भारतीय कोचों को द्रोणाचार्य अवॉर्ड और तमाम सरकारी सम्मान मिले, व्लादिमिर को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज किया गया क्योंकि वह एक विदेशी कोच थे. संघ का तर्क था कि उन्हें भारतीय कोचों से अधिक भुगतान किया गया था. इस उपेक्षा की उन्हें कभी शिकायत नहीं रही. व्लादिमिर ने वही सादा जीवन जिया, कुश्ती को अपनी सांसों में बसाए रखा और चुपचाप चैंपियंस बनाते रहे. सुशील, योगेश्वर, बजरंग, रवि और दीपक जैसे खिलाड़ियों में उनका अंश सदा जीवित रहेगा.
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