बिहारशरीफ. शराबबंदी के बाद राज्य सरकार द्वारा वैकल्पिक पेय के रूप में बड़े जोर-शोर से शुरू की गयी नीरा परियोजना अब पूरी तरह से ठप पड़ चुकी है. नालंदा जिले में स्थापित राज्य का पहला नीरा प्रोसेसिंग प्लांट, जिसकी लागत करीब 71.74 लाख रुपये थी, आज महज एक बंद गोदाम बनकर रह गया है. शुरुआत क्रांति की तरह, अंत खामोशी में : मार्च 2017 में पूर्ण शराबबंदी के लागू होते ही नीरा को स्वास्थ्यवर्धक और रोजगार सृजक पेय के रूप में प्रचारित किया गया. पहले ही साल पासी समुदाय के आठ हजार ताड़ी उत्पादकों को लाइसेंस दिया गया लेकिन यह उत्साह टिक नहीं सका. 2018 में यह संख्या घटकर 5,336 रह गई और 2019 में एक भी नया पंजीकरण नहीं हुआ. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2019 में 17 मई से 28 जून के बीच मात्र 11 हजार लीटर नीरा का उत्पादन हो सका जो कि इस स्तर की योजना के लिए बेहद नगण्य है.
11 प्रखंडों में बनाये गये थे 54 समूह : जिले के 11 ब्लॉकों में कुल 54 नीरा उत्पादक समूह गठित किये गये थे, जिनमें 2,268 पासी परिवार जुड़े थे. इनमें से 878 लोगों को नीरा संग्रहण और प्रोसेसिंग का प्रशिक्षण भी दिया गया था. इनसे नीरा को लेकर स्वास्थ्यवर्धक दावा किया गया था यह कहा गया था कि डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन में नीरा लिखेंगे. लेकिन आज ये सभी दावे सपने भर रह गये.
कच्चा माल ही नहीं मिल रहा : नीरा प्लांट के प्रोजेक्ट मैनेजर जगत नारायण सिंह कहते हैं कि चिलिंग प्लांट के संचालन के लिए प्रतिदिन कम से कम 500 लीटर नीरा चाहिए, लेकिन कच्चा माल ही नहीं मिल पा रहा है. ऐसे में सभी 51 सेलिंग प्वाइंट बंद पड़े हैं और 25 कर्मचारी खाली बैठे हैं.महिलाओं के लिए योजना बन गयी बोझ : नीरा संग्रह की जिम्मेदारी जीविका से जुड़ी महिलाओं को दी गयी थी, लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक बाधाओं के कारण महिलाएं ताड़ के पेड़ों पर चढ़ ही नहीं सकीं. यह योजना की सबसे बड़ी बुनियादी चूक साबित हुई.
विकल्प से अवसर तक का अधूरा सफर : नीरा योजना, जो शराबबंदी के बाद राज्य में एक वैकल्पिक रोजगार और स्वास्थ्य पेय के रूप में लाई गई थी, नालंदा में अपनी पहली प्रयोगशाला में ही नीति, नियोजन और निष्पादन के त्रिकोण में फंस कर दम तोड़ चुकी है. अब सवाल यह उठता है कि क्या यह सिर्फ एक जिला स्तर की विफलता है, या फिर राज्यस्तरीय योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीर खामी की मिसाल.
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