कृष्णाब्रह्म. प्रखंड क्षेत्र में सावन का महीना इस बार किसानों के लिए वैसा नहीं है जैसा हर साल होता आया है. आमतौर पर सावन के आगमन के साथ ही जब आसमान से बरसात की रिमझिम फुहारें गिरती हैं, तो किसानों के चेहरों पर मुस्कान तैर जाती है. मिट्टी से सोंधी खुशबू उठती है और खेतों में धान की रोपनी का कार्य पूरे उत्साह से शुरू हो जाता है. मगर इस बार न वो सोंधी मिट्टी की महक है, न आकाश से झरती बूंदे सिर्फ सूनी निगाहें हैं, जो टकटकी लगाए बादलों का इंतजार कर रही है. इस बार सावन की शुरुआत भले ही कैलेंडर पर हो गई हो, लेकिन मौसम की चाल किसान की उम्मीदों से मेल नहीं खा रही. नीला और एकदम साफ आसमान किसी कवि को भले सुंदर लगे, मगर एक किसान के लिए यह चिंता का कारण बन गया है. गांव-गांव में किसान इस समय खेतों में नहीं, बल्कि अपनी छांव में बैठे आसमान की ओर देख रहे हैं. धरती सूख रही है, बीचड़ा तैयार हैं. मगर पानी के अभाव में धान की रोपनी शुरू नहीं हो पा रही है. किसान का संघर्ष: बीचड़ा तैयार, मगर रोपनी अधूरी धान की खेती एक नियत समय पर निर्भर होती है. जून के अंत तक बीचड़ा डाल दिया जाता है और जुलाई के पहले या दूसरे सप्ताह तक रोपनी शुरू कर दी जाती है. किसानों ने पूरी मेहनत से बीजड़ा तैयार किया है सुबह-शाम उसे पानी देकर, घास-फूस हटाकर उसकी देखरेख की. लेकिन अब बीचड़ा खेत में रोपे जाने को तैयार है और खेत प्यासे है. स्थानीय किसान शिवनंदन महतो बताते है कि हमने समय पर बीजड़ा डाला, बहुत मेहनत की. अब वो तैयार है, मगर खेत में पानी ही नहीं है. कैसे रोपनी करें. ललन पासवान कहते है हर साल इस समय तक खेत में हरियाली छा जाती थी. गांव में शोर होता था किसानों की आवाज, मशीन की गड़गड़ाहट. लेकिन इस बार गांव जैसे खामोश हो गया है. हर कोई बस ऊपर देख रहा है कि कब पानी बरसे. बारिश के बिना बदला ग्रामीण जीवन का रंग सावन में जहां खेतों में काम के कारण ग्रामीण जीवन में गहमागहमी रहती थी, वहां इस बार सन्नाटा पसरा है. महिलाएं जहां खेतों में रोपनी के समय गीत गाती थीं, वहां इस बार गीतों की जगह चिंता के स्वर सुनाई दे रहे है. आमतौर पर सावन में गांव की गलियों में पानी होती थी, मगर इस बार धूल उड़ रही है. सावन में किसानों का सुबह चार बजे उठना, खेतों में जाना रूटीन था. लेकिन अब किसान देर तक घर में रह रहे हैं, खेत सूने हैं, खेतों में काम करने वाले लोग भी खाली बैठे है. इससे ना केवल किसानों को बल्कि खेतिहर कामगारों को भी रोज़गार का संकट हो गया है. सिंचाई का संकट और निजी संसाधनों की सीमाएं कुछ किसान अपने निजी नलकूप से सिंचाई कर किसी तरह रोपनी शुरू कर चुके है. मगर यह सुविधा सभी को उपलब्ध नहीं है. निजी सिंचाई के साधन महंगे है. कीमतें हर हफ्ते बदलती हैं, और सरकारी नलकूपों की मरम्मत भी समय पर नहीं हो पाया जिससे किसान को राहत मिले.
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