Supaul News, राजीव कुमार झा: जब देश के ज्यादातर हिस्सों में मानसून की पहली बारिश राहत और खुशियों का पैगाम लेकर आती है, तब सुपौल जिले के कोसी तटबंध के भीतर बसे गांवों में यह बारिश एक खौफनाक दस्तक बन जाती है. बारिश की पहली बूंद यहां उम्मीद नहीं, बल्कि तबाही की आहट होती है.
तेलवा गांव के निवासी रघुनाथ यादव की डबडबाई आंखों में झलकता है वह हर साल का दर्द. वे कांपती आवाज में कहते हैं, हर साल यही होता है बाबू… पानी आता है, घर बह जाता है, खेत कट जाता है. फिर वहीं से जिंदगी की शुरुआत करनी पड़ती है, जहां सब कुछ खत्म हो जाता है.
कोसी नदी, जिसे बिहार की शोक कहा जाता है, इस नाम को हर साल अपने रौद्र रूप से साबित करती है. कोसी तटबंध के भीतर बसे गांवों बलवा, नौआबाखर, बनैनियां, ढोली में मानसून एक दोहरी आपदा लेकर आता है बाढ़ और कटाव.

उजड़ना व फिर से बसने की यह त्रासदी यहां की बन गयी है नियति
और कितनी बार उजाड़ोगी मैया?” यह सिर्फ एक पीड़ित की पुकार नहीं बल्कि सैकड़ो लोग जो अब तक कई बार अपनी आंखों के सामने अपना आशियाना नदी में विलीन होते देखा है. सरायगढ़ प्रखंड के ढोली गांव को कोसी की बाढ़ ने तटबंध निर्माण के बाद अब तक लगभग एक दर्जन बार उजाड़ दिया है. लेकिन यहां के लोगों ने हिम्मत नहीं हारी.
हर साल असजह ठोकरे लगती रही और वे खड़े होते रहे. लेकिन यहां के लोग आज भी कोसी से हाथ जोड़ कर कहते हैं इस बार माफ कर देना मैया, अब और नहीं… ढोली जैसे गांव दर्जनों हैं जो कभी पूरब में बसे थे, तो कभी दक्षिणी छोर पर आकर टिके.
इनके घरों के पते बदलते हैं, पर उनकी तकलीफें वही की वही रहती हैं. एक जगह से उखड़कर दूसरी जगह बसने का सिलसिला थमा नहीं है. कमल साह, जो कभी ढोली पंचायत के बलथरवा गांव में अपने पक्के घर में चैन से रहते थे, आज अपने परिवार सहित तटबंध पर जिंदगी काट रहे हैं. वे बताते हैं 10 साल पहले सबकुछ था घर, खेत, खलिहान.
एक रात आयी और सब बह गया. अब बस बचा है तो डर और एक अस्थायी टिन की छत…उनके साथ सहदेव पासवान, अनिता देवी, रामप्रसाद सरदार जैसे दर्जनों परिवार तटबंध पर बीते एक दशक से शरण लेकर किसी तरह जीवन बिता रहे हैं.

पक्का घर नहीं बनाते, पता नहीं कब बह जाए
इन गांवों में कई परिवार ऐसे हैं जिन्होंने बीते 60 वर्षों में 15-20 बार तक बासडीह बदला है. ये गरीब नहीं हैं इनके पास पक्के घर बनाने लायक संसाधन हैं, लेकिन जब कोसी का रौद्र रूप सब कुछ निगल लेता है, तो क्या पक्का, क्या कच्चा.
यातायात की स्थिति इतनी लचर है कि भवन निर्माण की सामग्री जैसे ईंट, बालू, छड़ गांव तक लाना भी पहाड़ जैसा काम बन जाता है. ट्रैक्टर या ट्रक यहां नहीं पहुंचते, लोग नावों और कंधों पर लादकर सामान लाते हैं. यही कारण है कि लोग आज भी मिट्टी और फूस के घरों को ही सुरक्षित मानते हैं नुकसान कम होता है.
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बारिश के साथ नहीं, डर के साथ आती हैं रातें
जून से अक्टूबर तक का समय यहां के लोगों के लिए हर पल अनिश्चितता और डर से भरा होता है. फसलों की हरियाली देखकर किसान मुस्कराते नहीं, बल्कि डूब जाने के डर से चिंता में घिर जाते हैं. एक महिला, कमला देवी, अपने बच्चे को गोद में लिए बताती हैं पिछले साल रात में पानी आया, पूरा घर बह गया. किसी तरह जान बची. अब तो हर बारिश में यही लगता है कि कहीं फिर सबकुछ न लुट जाए.
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