Shravani Mela 2025: बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की भौगोलिक स्थिति के संबंध में आदि शंकराचार्य ने इसे पूर्व-उत्तर दिशा में अवस्थित माना है:-
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्म श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ।।
इसी तरह द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रति प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर, राजस्थान में सुरक्षित है. इस अक्षर के लेखक को 1971 ई में तत्कालीन क्यूरेटर डॉ ब्रजमोहन जावलिया ने इस पाण्डुलिपि को दिखाया था, जिसमें वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से संबंधित पक्ष इस प्रकार है :-
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने के स्थान पर ऐसा पाठ है :-
पूर्वोत्तरे पुण्यगयानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्म श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ।।
ठक्कर फेरू ने स्तोत्र का संकलन किया है. इससे प्रमाणित होता है कि बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का विख्यात मंदिर बिहार झारखंड प्रदेश के गया नगर के समीप है. वर्तमान में इसकी भौगोलिक सीमा को गया से जुड़ा हुआ माना जाता है.
रामानन्द सरस्वती के अनुसार, बैद्यनाथ पुण्य तीर्थ गया और जगन्नाथ धाम के मार्ग में स्थित है. बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के धार्मिक महत्व के संबंध में अलौकिक परम्परा का सदैव लोकव्यापी स्थान रहा है. चमत्कारों के लिए यह तीर्थस्थल प्रसिद्ध रहा. इन्हीं चमत्कारों की परम्परा में यहां धरना की प्रथा है. बैद्यनाथ मंदिर के बरामदे पर और अन्य मंदिरों के प्रशाल में तीर्थयात्री धरना देते हैं.
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धरना शब्द का साधारण अर्थ है, धैर्यपूर्वक निवास करना. बैद्यनाथ की उपासना करने वाले भक्त अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए मुख्य मंदिर तथा अन्य मंदिर के बरामदे या प्रशाल में निवास करते हैं. धरना पर बैठने वाले भक्तों को धरनाधारी कहते हैं. ये दिन भर निराहार रहते हैं. सायंकालीन पूजन और आरती के गालवाद्य के पश्चात् फलाहार ग्रहण करते हैं. बैद्यनाथ के सायंकालीन नीर-पान के बाद फलाहार करते हैं.
सांसारिक विषय-वासना की चिंता को छोड़कर एकाग्र हो बैद्यनाथ का ध्यान करते हैं. धरना की प्रथा का यही आध्यात्मिक स्वरूप है. धरनाधारी की मनोकामना अहोरात्र, 3 रात्रि और 3 महीने में पूरी होती है. कभी-कभी वर्षों तक बैद्यनाथ के स्वप्नादेश की प्रतीक्षा में ये रहते हैं.
असाध्यरोगी, पुत्रकामी, धनकामी और यशकामी सभी बैद्यनाथ मंदिर में धरना पर बैठते हैं. मनोकामना की पूर्ति होने के बाद बैद्यनाथ की विशेष पूजा करते हैं. धरना की प्रथा हजारों वर्षों से यहां चली आ रही है. भारत के किसी अन्य ज्योतिर्लिंग के मंदिर में धरना की प्रथा नहीं है. इस प्रथा का उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में नहीं है. लोक परम्परा ही इसका प्रमाण है. बैद्यनाथ की महिमा अपरम्पार है, क्योंकि :-
कामार्थिजनकामानां पूरकोहं सदाम्बिके ।
अनन्यशरणो नित्यं वनानां पति रहस्म्यहम् ।।2।।
पूर्वसागरगामिन्या गंगाया दक्षिणे तटे ।
हरीतकीवने दिव्ये दुःसंचारे भयावहे ।।3।
अद्यपि वर्तते चण्डि वैद्यनाथो महेश्वरः ।
पूरयन् सकलान्क्रमान सदा चिन्तामणिर्यथा ।।4।।
हे अम्बिके! कामनावालों की सदा कामना पूर्ण करता हूं, अनन्यशरण इन वनों का पति मैं हूं. पूर्वसागरगामिनी गंगा के दक्षिण किनारे हरीतकी के दिव्य वन में जो अगम्य और विद्यमान हैं और चिन्तामणि की समान भक्तों की कामना पूर्ण कर देते हैं. स्पष्ट है कि बैद्यनाथ के प्रति अनन्य भक्ति से कुछ भी दुर्लभ नहीं है.
धरना की प्रथा के संबंध में यदुनाथ सरकार ने इंडिया ऑफ औरंगजेब में बैद्यनाथधाम के संबंध में लिखा है. उन्होंने खुलासते तनारिख (1695-1699) के आधार पर वर्णन प्रस्तुत किया है. मुंगेर जिले के पर्वतीय क्षेत्र में एक प्रसिद्ध स्थल है, जो झारखंड के बैद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध है. यहां एक अत्यन्त ही अलौकिक घटना होती है, जिससे किसी के हृदय में भक्ति हो सकती है.
इस मंदिर के परिसर में एक पीपल का वृक्ष है, जिसकी बुनियाद किसी को मालूम नहीं है. यदि किसी व्यक्ति को, जो मंदिर में अपनी कामना पूर्ति हेतु आते हैं, भक्तिभाव से सेवा करते हैं, अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए निराहार रहते हैं. वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर उपासना भक्ति भाव से करते हैं, तब 3 दिनों के बाद वृक्ष से पत्र गिरता था, जिसमें हिन्दी लिपि में एक अदृश्य लेखन में आदेश रहता था.
इस लिखित पत्र को बैद्यनाथ की हुण्डी के नाम से सम्बोधित किया जाता है. तीर्थयात्री जहां कहीं भी इसे लेकर जाता था, उसके अभीष्ट की पूर्ति होती थी. इसमें उसके माता-पिता का नाम भी लिखा रहता था. धरनाधारी इसे लेकर जहां जाते थे, उनकी मनोकामना की पूर्ति होती थी.
खुलासते तवारिख के लेखक ने लिखा है कि एक बार इस हुण्डी को लेकर एक भक्त उनके पास आया था. इस आश्चर्यजनक ऐतिहासिक अभिलेख से धरना की प्रथा के संबंध में जानकारी मिलती है. साथ ही, सुजान सिंह खत्री ने यह लिखा है कि बैद्यनाथ मंदिर परिसर में एक गुफा है. प्राचीनकाल में शिवरात्रि के अवसर पर तीर्थपुरोहित उस गुफा में प्रवेश करते थे. उस गुफा से मिट्टी लाकर भक्तों को देते थे. यह मिट्टी का टुकड़ा हाथ में लेते ही सोने में बदल जाता था. सोने की मात्रा भक्त की भक्ति और विश्वास के अनुपात में बनती थी.
इस प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि धरना-प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है, परन्तु उस समय पीपल वृक्ष के नीचे तीर्थयात्री धरना देते थे. जब वह वृक्ष प्राकृतिक आपदा से विनष्ट हो गया, तब वैद्यनाथ मंदिर के बरामदे पर धरना देने की परम्परा प्रारम्भ हुई. आज भी यह प्रथा निर्वाध रूप से चली आ रही है. बैद्यनाथ कामनालिंग हैं, इसलिए यह प्रथा अत्यन्त ही लोकप्रिय है.
पीसी राम चौधरी ने इसके संबंध में लिखा है कि इस प्रकार धरना की प्रथा प्राचीन भारतीय इतिहास के आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतीक है. भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धि का यह सहज मार्ग है. इसके संबंध में अनेक चमत्कारिक कथाएं प्रसिद्ध हैं. आज भी सैकड़ों लोग धरना पर बैठते हैं.
(साभार : श्रीश्री बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वांगमय से)
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