गुमला. यह कहानी है उन वीर शहीदों की, जिन्होंने 1999 के करगिल युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देकर भारत माता की रक्षा की. झारखंड के गुमला जिले के तीन सपूत शहीद जॉन अगस्तुस एक्का, शहीद बिरसा उरांव और शहीद विश्राम मुंडा ने इस युद्ध में वीरगति प्राप्त की थी. करगिल विजय दिवस पर प्रभात खबर ने शहीदों के परिजनों से बात की और उनकी स्मृतियों को साझा किया.
छह दिन बाद गांव लाया गया था शहीद जॉन अगस्तुस का शव : इमिलयानी लकड़ा
रायडीह प्रखंड की परसा पंचायत के तेलया गांव के लांस हवलदार शहीद जॉन अगस्तुस एक्का की पत्नी इमिलयानी लकड़ा ने युद्ध के समय पति के साथ हुई अंतिम बात को स्मरण करते हुए कहा है कि मेरे पति युद्ध में शामिल होने के लिए जाते समय कहा था कि 25 दिसंबर को क्रिसमस पर्व के दिन आयेंगे, परंतु वे वापस नहीं आये. उनके जाने के बाद करगिल में युद्ध शुरू हो गया. इससे पूरा परिवार डरा हुआ था. हमलोग ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे. इसके बाद हमें सूचना मिली कि वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गये. उस समय मोबाइल या फोन नहीं होने के कारण काफी बाद हमें सूचना मिली. छह दिन के बाद शहीद के शव को गांव लाया गया था. शहीद की पत्नी ने कहा कि सरकार हमारी मदद करें. पति के शहीद होने के बाद हमारे परिवार को सिर्फ पेंशन का लाभ मिला. वह भी ढाई सालों से नाम में गड़बड़ी के कारण बंद था, जो अब जाकर ठीक हुआ है. मेरे दो पुत्र हैं. मैं सरकार से मांग करती हूं कि मेरे दोनों पुत्र में से किसी एक को सरकारी नौकरी दें, जिससे परिवार चलाने में कुछ सहायता मिले.
आखिरी खत बिरसा उरांव के शहीद होने के कुछ दिन पहले मिला था : मिला
सिसई प्रखंड के जतराटोली शहिजाना के बेर्री गांव निवासी बिरसा उरांव करगिल शहीद हैं. शहीद बिरसा उरांव ऑपरेशन विजय कारगिल में दो सितंबर 1999 में शहीद हुए थे. बिरसा उरांव हवलदार के पद पर बिहार रेजिमेंट में थे. जवान से उन्हें लांस नायक व हलवदार के पद पर प्रोन्नति हुई थी. शहीद हवलदार बिरसा उरांव की पत्नी मिला उरांव ने युद्ध के समय का स्मरण करते हुए कहा कि जब युद्ध शुरू हुआ था, तो मेरे पति से मेरी अंतिम बार बात उनके शहीद होने से एक वर्ष पूर्व हुई थी. वे अपने घर आये हुए थे. उस समय रेडियो टीवी, टेलीफोन की सुविधा नहीं थी. उनसे पत्र के माध्यम से बात होती थी. उनका आखिरी खत शहीद होने से कुछ दिन पहले आया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं जल्द घर वापस आऊंगा, पर वे वापस नहीं आ पाये. दो सितंबर 1999 में फर्स्ट बिहार बटालियन रेजिमेंट में वे शहीद हुए थे. मिला उरांव ने कहा है कि आज भी मेरे शहीद पति के बेर्री गांव का समुचित विकास नहीं हो सका है. प्रशासन से अपील है कि गांव के विकास में मदद करें व सरकारी योजनाओं से गांव को जोड़ा जाये.
शहीद विश्राम का शव नहीं मिला था, अस्थियां आयी थी गांव : पुत्र
भरनो प्रखंड के नवाटोली गांव निवासी लांस नायक विश्राम मुंडा 1999 में कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे. इस युद्ध में उन्होंने पाकिस्तानी फौज के कई जवानों को मार गिराया था और भारत माता के लिए सीने में गोली खाकर शहीद हो गये थे. उनका शव भारतीय सेना को नहीं मिल सका था. परिवार तक शहीद की अस्थियां पहुंची थी. शहीद के पुत्र विक्रम मुंडा ने बताया कि मेरे पिता करगिल युद्ध में शहीद हो गये. हमारा परिवार उनका अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया. परंतु सरकार ने हमें भुला दिया. सरकार ने अनुकंपा पर नौकरी भी नहीं दी. प्रतिवर्ष अखबारों में विजय दिवस के दौरान मेरे पिता और परिवार की खबर छपती है, तब प्रखंड के पदाधिकारी घर आते हैं और सरकारी लाभ देने का आश्वासन देकर चले जाते हैं. ब्लॉक में कभी-कभी किसी कार्यक्रम में मेरी मां, बहन और मुझे बुला कर शॉल ओढ़ा कर सम्मानित कर दिया जाता है. फिर उसी हाल में छोड़ दिया जाता है. मेरे पिता अच्छे फुटबॉलर थे. जब भी वे छुट्टी में आते थे, मैं खूब उनसे खेलता था. परंतु उनके शहीद होने पर मैं उन्हें अंतिम बार देख भी नहीं पाया.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है