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झारखंड के संस्कृति की पहचान, यहां की फिल्म नीति पर नंदलाल नायक और विनोद आनंद से खास बातचीत

झारखंड की संस्कृति यहां की फिल्में और झारखंड में इनका भविष्य क्या है ? यह ऐसे सवाल है जिनका जवाब तलाशने की कोशिश हर बार हुई लेकिन इतनी तलाश के बाद भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला

प्रभात खबर डॉट कॉम ने इन मुद्दों पर बात करने के लिए नंदलाल नायक जो यहां के म्यूजिक और यहां की फिल्मों को समझते हैं म्यूजिक डायरेक्शन और फिल्म निर्देशन दोनों का काम कर चुके हैं. इनके पिता पद्मश्री मुंकुद नायक झारखंडी संस्कृति की पहचान दुनिया भर से कराते रहे हैं. दूसरे अभिनेता विनोद आनंद जो नेशनल स्कूल ऑफ ड्राम में पढ़े कई फिल्मों में काम किया और आज भी झारखंड में फिल्मों के प्रसार की कोशिश कर रहे हैं. पढ़ें पंकज कुमार पाठक से हुई पूरी बातचीत. तस्वीर / वीडियो- अरविंद सिंह

सवाल- झारखंडी संस्कृति के ब्रॉड एंबेसडर माने जाते हैं मुकुंद नायक. विदेशों में जाकर यहां की संस्कृति का परिचय लोगों से कराया है. इतने बड़े नाम के साथ आपका जुड़ाव है. क्या कोई दबाव रहता है कि उस नाम को आगे आपको लेकर जाना है. उसकी पहचान कायम रखनी है. कभी दबाव रहा ?

नंदलाल नायक- एक बड़े पेड़ के छांव में आप रहते हो तो दवाब होता ही है लेकिन यह सकारात्मक दवाब था. जब मैं बड़ा हो रहा था तो पहचान की बात हो रही थी. मैं समझ गया था हमारी पहचान क्या है. मैं अभी भी कहता हूं इंसान कितनी भी तरक्की कर ले जितनी पहचान बनानी है बना ले लेकिन जो यहां की माटी और संस्कृति से अलग हो गया उसने क्या विकास किया. मुझे लगता है संस्कृति जो भी है जहां की भी है सिर्फ झारखंड की नहीं कहीं की भी संस्कृति कोई बर्फ की सिल्ली नहीं है कि पिघल जाए वह नदी है बहती रहती है. उसे डोभा नहीं बनना है.

इसमें सबसे बड़ी चीज है रोटी रोटी की. जब पेट की बात होती है कब भाषा संस्कृति और माटी अलग हो जाती है पता नहीं चलता है. इसलिए प्रेशर तो पहले से है. क्या मैं इसे प्रोफेशनली इसे आगे लेकर जा पाऊंगा. मैं दुनियाभर के 113 देशों में ढोल बचाने के लिए गया. मुझसे बड़े स्टार गांवों में है. अगर मैं कर सकता हूं तो वो भी कर सकते हैं. हमारी संस्कृति जो है वह पारिवारिक शैली है. परिवार का मतलब है सारे वाद्य यंत्रों का एक दूसरे से रिश्ता है. हमारे यहां तो टैलेंट तो कूट – कूट कर भरा है. यहां मांदर भी बजा लेते हैं, ढोल भी , नगाड़ा भी सब बजा लेते हैं. हमारी संस्कृति में देखने की संस्कृति नहीं है हिस्सा लेने की संस्कृति है. हमारी संस्कृति देखने की संस्कृति हैं नहीं हिस्सा लेने की है.

सवाल- झारखंड में कई युवा हैं जो अभिनय के क्षेत्र में जाने का सपना देखते हैं. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में पढ़ना चाहते हैं चुकि आपका इस क्षेत्र में अपना अनुभव है क्या आपको लगता है उन्हें वह माहौल मिल रहा है. आप इतने सालों से इस क्षेत्र में आपको कितना सहयोग मिला ?

विनोद आनंद- मैं आज जो कुछ भी हूं इस झारखंडी मांटी की वजह से हूं. अगर आप में जज्बा हो काम करने की क्षमता है तो सहयोग मिलता है और मुझे मिला. मैं बोकारो के चंद्रपुरा का हूं. 1982 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने एक वर्कशॉप लगाया. कई दिग्गज जिसमें अजय मलकानी, विपिन कुमार, संजय झा जैसे दिग्गज थे. इस वर्कशॉप के बाद युवा रंगमंच रांची और इसी के आधार युवा रंगमंच चंद्रपुरा खुला और हिंदी रंगमंच को आगे ले जाने का काम शुरू हो गया.

पहले यह बिहार में पटना तक सीमित था. युवा रंगमंच ने नाटकों की प्रस्तुति शुरू की तो झारखंड की पहचान बनने लगी. नागपुरी भाषा में हमने नाटक को अनुवाद कर हमने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा तक हमारी चर्चा हुई फिर नेतरहाट में वर्कशॉप लगाया गया और यहीं हमारी मुलाकात नंदलाल नायक और बाबा मुकुंद नायक से हुई. हमने यहीं पर कालीदास की अभिज्ञान शाकुन्तलम् को नागपुरी में शंकुतला नाम से पेश किया. उस वक्त ऐसा वातारण बना हम फले फूले

इस चर्चा में नंदलाल नायक ने कहा, अभिज्ञान शांकुन्तलम् में हमने कोई डॉयलॉग नहीं रखा था सिर्फ गाने के फॉर्मेट में पूरी कहानी थी. इस प्ले में 28 गाने था और सभी लाइव गाये गये. सभी लोगों ने गाने गाये. इसके बाद सब अलग हो गये मैं अमेरिका चला गया. विनोद जी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा चले गये.

सवाल – इतने सालों बाद आप साथ हैं. आप मिलकर ऐसा कुछ कर रहे हैं जैसे आप सभी ने कालीदास की अभिज्ञान शांकुन्तलम् का नागपुरी में अनुवाद कर पेश किया था.

विनोद आनंद- हमने मिलकर फिल्म बनायी है धुमकुड़िया लेकिन अभी फिल्म रिलीज नहीं हुई है. फिल्म फेस्टिवल में जा रही है कई देशों में देखी जा चुकी है. जल्द ही सिनेमाघरों में इसे देखा जा सकेगा. यह सिनेमा नहीं है यह समय है. इस फिल्म में वजह है कि मैंने अमेरिका क्यों छोड़ा है. कम उम्र में मुझे बड़ा मौका मिला था. मैं सफल था सबकुछ था. 1992 में जब हम पहचान के लिए लड़ रहे थे तब मैं विदेशों में अपनी संस्कृति की पहचान स्थापति कर रहा था. हर दिन मैं बढ़ रहा था क्योंकि मेरा पास खोने के लिए कुछ नहीं था.

झारखंडी म्यूजिक सामुहिकता का रिफ्लेक्शन है. इसमें ऐसा जादू है कि लोगों को जोड़ देता है. इसकी कोई भाषा थी नहीं जिसे आप पढ़े लिखे लोगों के बीच रख सके. मेरे पास प्रैक्टिकल था लेकिन भाषा नहीं थी. वेस्ट में और क्लासिकल म्यूजिक में है राग है, ताल है. नाम तो हमारे पास है फगुवा है, झुमर है लेकिन ताल और राग नहीं है. मुझे लगा कि इसे भाषा में जोड़ना चाहिए. जब मैंने इसके रिसर्च करने का फैसला लिया.

अमेरिकन इंस्टच्यूट और जेएनयू ( जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ) के साथ मिलकर रिसर्च कर रहा था.

इसी दौरान मेरी मुलाकात एक बच्ची से हो गयी. मैं जब अमेरिका से आया तो सब मुझसे बात कर रहे थे लेकिन एक बाहर-तेरह साल की बच्ची चुपचाप थी उसका ध्यान मेरी ओर नहीं था जब मैंने उससे बात की तो उसने जो कहानी बतायी, 20 बार बेची जा चुकी थी. 100 से ज्यादा बार उसके साथ दुषकर्म हुआ था. मैंने उसे भरोसा दिया कि मैं तुम्हें गोद लूंगा लेकिन जबतक मैं लौटा उसे दोबारा बेचा जा चुका था उसकी हत्या हो गयी थी. इसी दर्द ने मुझे अमेरिका में रहने नहीं दिया.

सवाल- इस फिल्म को लेकर आप सिनेमाघरों में आयेंगे. कितनी उम्मीद है कि यह बेहतर कारोबार केरगी यहां रिजनल फिल्मों के पास स्क्रिन कम है, लोग गंभीर मुद्दों पर कम मनोरंजन करने वाली फिल्मों की तरफ ज्यादा ध्यान देते हैं ?

नंदलाल नायक – जिस दिन आप सिनेमा में व्यापार ढुढ़ेंगे आप मुद्दे से हट जायेंगे ऐसी फिल्में चलती है. इस फिल्म में तकनीक का बेहतर इस्तेमाल किया गया है. 25 फेस्टिवल में 19 अवार्ड ये रिस्पांस है.

विनोद आनंद- यहां का कल्चर यहां के लोकेशन, यहां के संगीत सब डिमांड के आधार पर है इस फिल्म में लेकिन अपनी मूल पहचान को बचाकर रखा है. हमने रियल लोकेशन पर शूट किया है.

सवाल- आप कह रहे हैं कि आपकी फिल्म एक बच्ची की कहानी पर है जिसने आपको दोबारा अमेरिका नहीं लौटने दिया. उस बच्ची की कहानी ने आपको इतना प्रभावित किया कि आपने इसे फिल्म के रूप दे दिया. हमारे पास निर्भया का उदाहरण है. निर्भया की मौत के बाद उनकी मां चाहती है कि बच्ची की पहचान जाहिर हो. वह अपने बेटी की पहचान छुपाना नहीं चाहती. आपने फिल्म बनायी आपको नहीं लगा कि उस बच्ची को सच्ची श्रद्धांजलि होती अगर उसका नाम उसकी तस्वीर सामने आती.

नंदलाल नायक – मुझे लगता है कि बच्ची का नाम आना चाहिए लेकिन मैं किन – किन बच्चियों का नाम सामने लेकर आता यहां तो हर दिन ऐसी बच्चियां बाहर बेची जा रही हैं. मैंने इसलिए नाम नहीं दिया क्योंकि हर किसी के पास ऐसा अनुभव है. इस फिल्म के बाद लोग अपनी बातें कहना शुरू करेंगे क्योंकि यह सिर्फ मेरी फिल्म नहीं है. यह झारखंडियों की है जो हर दिन हर रोज देख रहे हैं. अगर इस फिल्म से एक भी बच्ची वापस लौट जाती है तो इससे बड़ी सफलता नहीं होगी मेरे लिए. झारखंड की फिल्म को यहां की कहानी को करन जौहर के नजरिये से कही नहीं जा सकती. हमारे पास बेहतर वक्त है कि सरकार मदद कर रही है.

PankajKumar Pathak
PankajKumar Pathak
Senior Journalist having more than 10 years of experience in print and digital journalism.

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