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लोकसभा चुनाव में झारखंड की आदिम जनजातियों को किसी पार्टी ने नहीं दिया चुनाव लड़ने का मौका

झारखंड की अत्यंत संवेदनशील जनजातियों (पीवीटीजी) को लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी ने टिकट नहीं दिया. इन्हें कभी इस काबिल समझा ही नहीं गया.

रांची, प्रवीण मुंडा : अत्यंत संवेदनशील जनजातियों की हालत आजादी के सालों के बाद आज भी बदतर है. सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से ये समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं. इन्हें अब आदिम जनजाति नहीं, पीवीटीजी कहा जाता है. राजनीति में इनकी सहभागिता सिर्फ वोट देने तक सीमित है. झारखंड की राजनीति में न तो इनके मुद्दे शामिल किए जाते हैं, न ही इन्हें कभी पूछा ही जाता है. लोकसभा चुनाव में आज तक इन जनजातियों को किसी पार्टी ने टिकट देने की जरूरत नहीं समझी.

आदिम जनजाति से कोई विधायक, सांसद या मंत्री नहीं बना

झारखंड में आदिवासी समुदाय से अभी तक कई लोग विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री बने हैं. पर अत्यंत संवेदनशील जनजातियों से अब तक कोई भी विधायक या सांसद नहीं बन पाया है. मुखिया का चुनाव भी जीता हो, ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता. संसदीय राजनीति में इस समुदाय की स्थिति अभी भी वंचितों की ही है.

आदिम जनजाति के लोग राजनीति में आज भी हाशिए पर

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने वर्ष 2009 और 2019 में सिमोन माल्टो को टिकट दिया था. झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) ने सिमोन को ही वर्ष 2014 में टिकट दिया था. कांग्रेस ने शिवचरण माल्टो को वर्ष 2014 में लिट्टीपाड़ा से टिकट दिया था. सीपीआई ने अनिल असुर को विशुनपुर विधानसभा से टिकट दिया था. हालांकि, ये जीत नहीं सके थे. इन चंद उदाहरणों को छोड़ दें, तो कभी भी आदिम जनजाति के लोग राजनीति में नहीं दिखे.

झारखंड में 8 आदिम जनजातियां

झारखंड में 32 जनजातियों में 8 अत्यंत संवेदनशील जनजातियों की श्रेणी में हैं. ये जनजातियां हैं- असुर, बिरजिया, बिरहोर, कोरवा, परहैया, माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया एवं सबर. ये जनजातियां आज भी किसी तरह भोजन संग्रह कर जीवन गुजारतीं हैं. डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान की रिपोर्ट है कि इन समुदायों के शत-प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजार रहे हैं. इनमें भी बिरहोर, बिरजिया, परहैया, और सबर की स्थिति भोजन-पोषण की दृष्टि से अत्यंत सोचनीय है.

22 जिलों के 127 प्रखंडों और 2649 गांवों में रहती हैं 8 जनजातियां

राज्य में कुल 22 जिलों में इन समुदायों के लोग निवास करते हैं. राज्य में 127 प्रखंड और 2,649 गांव में इन समुदायों के लोग रहते हैं. राज्य में अत्यंत संवेदनशील जनजातियों की कुल आबादी 2,92,359 है. इस समुदाय के बीच साक्षरता दर भी बेहद कम है. अभी भी समुदाय के बहुत कम लोग ही स्नातक तक की पढ़ाई कर सके हैं. आदिवासियों के नाम पर बने झारखंड राज्य की राजनीति में आदिवासी मुद्दे किसी न किसी रूप में सामने आते रहे हैं. लेकिन, इन समुदायों के मुद्दे उसमें भी गौण रह जाते हैं.

लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, इन्हें कौन पूछेगा : रणेंद्र

डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान के सेवानिवृत्त निदेशक रणेंद्र ने कहा कि लोकतंत्र में जहां सिर गिने जाते हैं, वहां इनकी पूछ नहीं है. इन अत्यंत संवेदनशील समुदाय की जनसंख्या काफी कम है. कई समुदाय आबादी मुश्किल से 15 हजार तक है. कई जनजातियों की उससे भी कम. तो ऐसे में उन्हें कौन पूछेगा. पहाड़िया, माल पहाड़िया की अबादी लगभग 2 लाख तक है, लेकिन ये बिखरे हुए हैं. सीपीआई ने अनिल असुर को विशुनपुर से टिकट दिया था, पर वे जीत नहीं सके. उनकी पत्नी उप-प्रमुख बनीं.

अब आदिम जनजाति नहीं, पीवीटीजी कहते हैं : डॉ गंगानाथ झा

Dr Ganganath Jha Vinova Bhawe University Jharkhand
लोकसभा चुनाव में झारखंड की आदिम जनजातियों को किसी पार्टी ने नहीं दिया चुनाव लड़ने का मौका 3

अब आदिम जनजाति शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसकी जगह अत्यंत संवेदनशील जनजाति (PVTG) शब्द का प्रयोग करते हैं. हम राजनीति में हाशिए पर पड़े लोगों की बात करते हैं, लेकिन सत्ता में इनकी भागीदारी हो, इसके लिए प्रयास नहीं करते. यह सिर्फ टिकट देकर नहीं होगा. मुझे लगता है कि पहले इनकी शैक्षणिक स्थिति को सुधारना होगा. फिर जागरूकता बढ़ाकर इन्हें राजनीति के लिए तैयार कर सकते हैं.

डॉ गंगानाथ झा, विनोवा भावे विश्वविद्यालय

Mithilesh Jha
Mithilesh Jha
प्रभात खबर में दो दशक से अधिक का करियर. कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स ग्रेजुएट. झारखंड और बंगाल में प्रिंट और डिजिटल में काम करने का अनुभव. राजनीतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों के अलावा क्लाइमेट चेंज, नवीकरणीय ऊर्जा (RE) और ग्रामीण पत्रकारिता में विशेष रुचि. प्रभात खबर के सेंट्रल डेस्क और रूरल डेस्क के बाद प्रभात खबर डिजिटल में नेशनल, इंटरनेशनल डेस्क पर काम. वर्तमान में झारखंड हेड के पद पर कार्यरत.

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