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World Tribal Day: आदिवासी संस्कृति को समृद्ध करने में जुटे झारखंड के युवा, हर क्षेत्र में लहरा रहे हैं परचम

हर साल नौ अगस्त को पूरा विश्व आदिवासी दिवस मनाता है. यह दिवस समर्पित है उन लोगों को जो हमारे पुरखे हैं. आज जबकि पूरा विश्व आदिवासियों की संस्कृति उनके सहजीवन, कला, गीत-संगीत और जीवनशैली पर नजरें गड़ाए हुए है और इस बार विश्व आदिवासी दिवस का थीम युवाओं पर केंद्रित है.

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कवयित्री, लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार जसिंता केरकेट्टा अपनी कविता, कहानियों, आलेखों के माध्यम से लोगों का आदिवासी जीवन से परिचय करा रही हैं. वे हिंदी में लिखती हैं. उनकी कविताओं का अनुवाद कई विदेशी भाषाओं में हो चुका है. उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं. इनमें अंगोर, जड़ों की जमीन और ईश्वर और बाजार शामिल हैं. पहले संग्रह का अनुवाद इंग्लिश, जर्मन, इतालवी, संथाली, बांग्ला भाषा में हो चुका है. वहीं, दूसरे संग्रह का अनुवाद भी इंग्लिश, जर्मन, बांग्ला भाषा में प्रकाशित है. इनकी कुछ कविताएं देश की कई भाषाओं में अनुवादित हुई हैं. इनमें तमिल, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, मलयालम, बांग्ला, उर्दू, उड़िया, गुजराती भाषाएं शामिल हैं. वे देश भर में अपनी लेखनी से और संवाद से आदिवासी जीवन दर्शन की बात करती हैं. दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में भी वे कविताओं के माध्यम से आदिवासी जीवन दर्शन पर चर्चा करती हैं. वे अब तक अमेरिका, इंग्लैंड, वेल्स, जर्मनी, इटली, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, थाइलैंड, कोस्टारिका, ऑस्ट्रिया में लोगों से संवाद कर चुकी हैं. यूक्रेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया में भी लोगों ने उनकी सहमति से उनकी कविताओं का पाठ किया है, इस पर अध्ययन भी रहे हैं. एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए वे आदिवासी जीवन दर्शन का प्रसार पूरी दुनिया में कर रही हैं. 2022 में फोर्ब्स इंडिया ने उन्हें देश की 22 सेल्फमेड वूमन की लिस्ट में शामिल किया. 2014 में उन्हें एशिया इंडिजिनस पीपल्स पैक्ट की ओर से वॉयस ऑफ एशिया का रिकॉग्निशन अवार्ड मिल चुका है.

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खड़िया समुदाय की वंदना टेटे झारखंड की बहुचर्चित आदिवासी लेखिका, कवयित्री, मेंटर, प्रकाशक और आदिवासियत की प्रबल पैरोकार हैं. उन्होंने नब्बे के आरंभिक दशक में कविताओं और नुक्कड़ नाटकों से सांस्कृतिक कर्म की शुरुआत की. कुछ समय तक झारखंड आंदोलन की पत्रिका ‘झारखंड खबर’ की उप संपादक रहीं. 2003 में झारखंड के आदिवासी और क्षेत्रीय भाषा-साहित्य के संरक्षण, विकास और अधिकार के लिए ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ की स्थापना की. इस संगठन का नेतृत्व करते हुए उन्होंने झारखंड की नौ आदिवासी व देशज भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया. आदिवासी व क्षेत्रीय साहित्य और लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए 200 से ज्यादा किताबें छापी हैं. वर्तमान में उनका मातृ संगठन प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन देश का एकमात्र आदिवासी प्रकाशक है, जो पिछले 20 सालों से आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं सहित हिंदी व अंग्रेजी में पुस्तकें छाप रहा है. वे देश की पहली आदिवासी प्रकाशक हैं, जिन्होंने इस साल दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला में भागीदारी की. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कविता पाठ कर चुकीं वंदना टेटे ने विलुप्त होती असुर भाषा को बचाने के लिए ‘असुर अखड़ा मोबाइल रेडियो’ की शुरुआत की और सुषमा असुर व असिंता असुर जैसे अनेक नये आदिवासी लेखकों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराया. उन्होंने साहित्य अकादमी द्वारा आदिवासी दिवस पर अलग से आयोजन कराने के लिए पहल की.

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देव हेम्ब्रम झारखंडी भाषा- साहित्य के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम है. वे मूलतः संताल आदिवासी समुदाय के हैं और भारतीय डाक विभाग (धनबाद प्रमंडल) में कार्यरत हैं. संताली मातृभाषा होने के बावजूद उन्होंने हिंदी को अपने लेखन की भाषा बनाया और हिंदी की विस्तृत पहुंच के जरिये आदिवासी पहचान को लोगो तक पहुंचाने का निश्चय किया. अपनी पहली कहानी ”मुबाइल” डिजिटली प्रकाशित करायी , जो ”झारखंडी अखड़ा” कार्यक्रम में प्रस्तुत हुई थी. बाद में यह कहानी संकलन ”चुनिंदा संताली कहानियां ” में छपी. यह कहानी संकलन 2023 में नयी दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेला में आदिवासी बेस्ट सेलर बुक बनी. अपनी लेखन यात्रा के शुरुआती दिनों में इन्होंने ट्राइबल ट्राइलिंगुअल शॉर्ट स्टाेरीज राइटिंग कंपिटिशन- 2021 में भाग लिया था, जिसकी हिंदी श्रेणी में उन्हें पहला स्थान मिला. लेखक सुंदर मनोज हेम्ब्रम ने उनकी लेखन क्षमता को देखते हुए फिल्म गलियारे में भी किस्मत आजमाने की सलाह दी. इसके बाद देव हेम्ब्रम अपने आर्टिस्टिक फॉर्म से हटकर कॉमर्शियल फॉर्म में भी आये. उन्होंने संथाली में कई गाने और शॉर्ट फिल्में लिखी. संथाली फिल्म जगत में भी एक पहचान बनायी. इसी दौरान सोशल मीडिया के जरिये राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म निर्माता श्रीराम डाल्टन से संपर्क हुआ. देव हेम्ब्रन ने कहानी संकलन और कविता संकलन में अपनी पहचान दर्ज कराई है. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनायें आती है और सोशल मीडिया में भी लगातार सक्रिय रहते हैं. वह स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन, मुंबई के सदस्य भी हैं.

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साधना सामड चक्रधरपुर (पश्चिमी सिंहभूम) के गेलेया लोर गांव की हैं. हो भाषा साहित्य पर वारंग चिति लिपि में पढ़ाने और लेखन में सक्रिय हैं. हो आदिवासियों के आदि दर्शन पर ”सेंया सुड़िता” पुस्तक लिखी है, जिसे कोल्हान विश्वविद्यालय, चाईबासा के पीजी हो भाषा के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है. कुछ कविताएं भी लिखी हैं, जो तुर्तुङ पत्रिका में प्रकाशित हुईं. इन दिनों कुटुंब एप्प पर ऑल इंडिया आदिवासी हो समाज काउंसिल ग्रुप में हर मंगलवार को शाम आठ बजे से 9.30 बजे तक लाइव मीटिंग के माध्यम से हो भाषा वारंग चिति लिपि पढ़ाती हैं. साथ ही अन्य सामाजिक विषयों पर चर्चा में भी शामिल रहती हैं. टाटा स्टील के एक प्रोजेक्ट के तहत हो भाषाई शिक्षकों को प्रशिक्षण भी दे रही हैं. वारंग चिति लिपि पढ़ने की विधि, हो भाषा की विशेषता, हो आदिवासियों की संस्कृति, हो भाषा का प्राचीन मौखिक साहित्य, आदि पुरुष लुकु हड़म, लुकुमि बूढ़ी की वंशावली और सामाजिक व्यवस्था, परंपरागत शासन व्यवस्था की शुरुआत आदि विषयों पर जानकारियां साझा कर रही हैं. बता रही हैं कि हो भाषा वारंग चिति लिपि के साथ ही गणना के बारे में लेनेका (गिनती) की उत्पत्ति, अंकों के रूप, ये कैसे हो समाज के सामाजिक रिति-रिवाजों, कला नृत्य संगीत में रचे बसे हैं . वे कहती हैं कि परंपारिक प्राचीन पूज्य भाष्यों में सिंहभूम की उत्पत्ति का उल्लेख है, जो सिर्फ दियुरियों तक सीमित था. ऐसी कई और महत्वपूर्ण जानकारियां भी हैं. हमें प्राचीन मौलिक साहित्य को लिखित साहित्य में सजाना और संवारना है.

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लातेहार के महुआडांड में जन्मे बीजू टोप्पो राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता आदिवासी वृत्तचित्र व फिल्म निर्माता हैं. अपनी फिल्मों के जरिये हाशिये पर खड़े देशज समुदायों की आवाज उठाते हैं. श्री टोप्पो 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हैं. वर्तमान में रांची के संत जेवियर्स कॉलेज में वीडियो प्रोडक्शन विषय पढ़ा रहे हैं. बीजू टोप्पो फिल्मकार मेघनाथ के साथ झारखंड में संस्कृति और संचार के क्षेत्र में काम करने वाले फिल्म प्रोडक्शन हाउस अखड़ा से जुड़े हैं. अखड़ा द्वारा 1995 से ही देशज लोगों के मुद्दों पर फिल्में बनायी जा रही हैं. शहीद जो अंजान रहे (निर्देशन और संपादन, 1996), एक हादसा और भी (निर्देशन और संपादन, 1997), हमारे गांव में हमारा राज (निर्देशन और संपादन, 2000), विकास बंदूक की नाल से (मेघनाथ के साथ मिल कर निर्देशन 2003), कोरा राजी (निर्देशन कुड़ुख 2005), लोहा गरम है, गाड़ी लोहरदगा मेल, सोना गही पिंजरा, पक्ष लेना, संचित अन्याय, द हंट, नाची से बांची व झरिया. ‘विकास बंदूक की नाल से’ को 2004 में ट्रैवलिंग फिल्म साउथ एशिया पुरस्कार व 2005 में सीएमएस वातावरण का सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र पुरस्कार मिला. ‘कोरा राजी’ वर्ष 2006 में मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दूसरी सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री वीडियो बनी. ‘लोहा गरम है’ को 2009 में भारतीय वृत्तचित्र निर्माता संघ का सर्वश्रेष्ठ पर्यावरण फिल्म पुरस्कार और फिल्म समारोह निदेशालय का 58वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला.

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निरंजन कुमार कुजूर फिल्म निर्देशक हैं. इन्होंने कुड़ुख, संताली, बंगाली, हिंदी और चीनी ( मंडारिन) में फिल्में बनायी हैं. उनकी फिल्म एड़पा काना (गोइंग होम) ने 2016 में सर्वश्रेष्ठ ऑडियोग्राफी (गैर-फीचर) के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. पहाड़ा और एड़पा काना को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के भारतीय पैनोरमा (गैर-फीचर) के 44वें और 47वें संस्करण के लिए चुना गया. आदिवासी समाज में आदिवासी महिलाओं की दुर्दशा पर उनका संताली वीडियो दिबी दुर्गा 2019 में बांग्लादेश और मलेशिया में दिखाया गया. उनके द्वारा निर्देशित डिजिटल विज्ञापन फिल्म जन्नत-ए-केसर ने पिछले साल ईटी एसेंट स्टार ऑफ द इंडस्ट्री अवार्ड जीता. उनके द्वारा निर्देशित विज्ञापन फिल्म द स्पिटिंग वॉल ने गोवा फेस्ट-2023 में द एडवरटाइजिंग क्लब के प्रतिष्ठित एबीबीइएस (सिल्वर) पुरस्कार का 54वां संस्करण जीता है. निरंजन ने सितंबर 2022 में एसआरएफटीआइ के निर्देशन और पटकथा लेखन विभाग में सहायक प्रोफेसर (संविदा) के रूप में भी काम किया है. निरंजन कुमार कुजूर ने बिशप वेस्टकॉट ब्वॉयज स्कूल, नामकुम और डीएवी हेहल में पढ़ाई की है.

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मुंडारी लोक कलाकार सुखराम पाहन का सपना है कि हर गांव में एक सांस्कृतिक अखड़ा हो, जहां गांव घर के लड़के-लड़कियां अपने पारंपरिक गीत- संगीत के साथ- साथ पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण ले पायें. जिससे आनेवाली पीढ़ी लोक कला के साथ आगे बढ़ सके. पूरा विश्व आदिवासी समाज के नृत्य-गीत के साथ पहनावे और संस्कृति से परिचित हो सके. सुखराम पाहन ने 22 नृत्य दल तैयार किये हैं, जिनमें लगभग 700 कलाकार हैं. उन्होंने छह गांवों में सांस्कृतिक अखड़ा खोला है, जिन्हें अपने स्तर से संचालित कर रहे हैं. उन्होंने स्वतंत्र रूप से भी अपना नृत्य दल बनाया है और यह दल राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों में शिरकत करता है. वह खुद गीत लिखते हैं और गाते भी हैं. खूंटी, सोयको के कुद्दा गांव के सुखराम पाहन ने अपने गुरु व आदर्श पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा के सान्निध्य में रहकर लोक कला की बारीकियां सीखी हैं.

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गुंजल इकिर मुंडा ने आदिवासियत के एक प्रहरी के रूप में मुंडारी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए खुद को समर्पित कर दिया है. झारखंड के एक छोटे से गांव दिउड़ी से आने वाले, गुंजल इकिर मुंडा ने झारखंड के केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में अपनी यात्रा शुरू की, जहां उन्होंने भाषा विज्ञान और सांस्कृतिक मानव विज्ञान की जटिलताओं को गहराई से समझा. ज्ञान और दृढ़ संकल्प से लैस होकर मुंडारी भाषा को पुनर्जीवित करने और सुरक्षित रखने के मिशन पर काम शुरू किया है, जो आदिवासी पहचान का एक अभिन्न अंग थी और आधुनिकीकरण की छाया में धीरे-धीरे लुप्त हो रही थी. एक स्वतंत्र विद्वान और सांस्कृतिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने अकादमिक क्षेत्र से परे अपने प्रयासों का विस्तार किया है. वह आदिवासी युवाओं से जुड़े हैं और उन्हें अपनी विरासत पर गर्व करने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित करते हैं.

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कोकर (रांची) निवासी लक्ष्मी खलखो अपने अंदाज में जूट बैग का निर्माण करती हैं. हस्त निर्मित जूट बैग में ट्राइबल आर्ट का रंग बिखेर रही हैं. साथ ही अपने स्वयं सहायता समूह प्रगति महिला समूह से जुड़ी महिलाओं को रोजगार दे रही हैं. इनके खास उत्पादों में लंच बैग, ट्रैवल बैग, वाटर कैरी बैग, शॉपिंग बैग और फोल्डर आदि शामिल हैं. लक्ष्मी कहती हैं : मैं वर्ष 2005 से दिल्ली ट्रेड फेयर में हिस्सा ले रही हूं. इस ट्रेड फेयर में उनके बनाये उत्पादों की अच्छी-खासी डिमांड रहती है. समूह से जुड़ी महिलाएं जूट बैग को ट्राइबल आर्ट से सजाती हैं. लक्ष्मी मूल रूप से मांडर के सुरसा गांव की रहने वाली हैं. कहती हैं : मैं पहले अपने गांव-घर के जल-जंगल पर आश्रित थी. हालांकि पढ़ने का अवसर मिला. रांची से ग्रेजुएशन की डिग्री ली. इसके बाद ग्रामीण विकास विभाग के सहयोग से प्रशिक्षण मिला. फिर जूट बैग पर हुनर दिखाने लगी. वह कहती हैं झारखंड में बने बैग की डिमांड देशभर में है.

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डिबडीह की मर्सी मंजुला बिलुंग झारखंड की फेमस सब्जी रूगड़ा का अचार बना कर देश भर में पहुंचा रही हैं. पहली बार जब उन्होंने इसे बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर किया, तो एक दिन में हजारों लाइक्स आये और ऑर्डर मिलने लगे. इन्हें झारखंड ट्रेडिशनल फूड एक्सपोजर अवार्ड मिल चुका है. इसके अलावा झारखंडी कुदरूम, कांदा, फुटकल, करौंदा सहित अन्य चीजों का भी अचार बनाती हैं. इसे काफी पसंद किया जा रहा है. रूगड़ा का अचार सबसे ज्यादा प्रचलित है.

Prabhat Khabar News Desk
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